एहसास की पहली बात
एहसास की पहली बात
लगातार फोन की घंटी बज रही थी एक बार दो बार तीन बार घंटी लगातार बजते ही जा रही थी। न जाने क्यों मैं फोन नहीं उठाना चाह रहा था। मैंने नहीं उठाया। ऐसा नहीं था कि मेरा दिल नहीं चाह रहा था पर ना जाने क्यों बस यूँ ही।
२ साल न जाने कैसे बीत गए थे खुद मुझे पता नहीं चला। न जाने कितनी बातें कितनी यादें और ना जाने क्या-क्या, फोन की हर घंटी के साथ उसकी सारी यादें मेरे मन में लहरों की तरह दौड़ जाती थी। मैंने फोन बंद कर दिया और सोने की कोशिश करने लगा। नाकाम कोशिश और तमाम यादों ने न जाने कब ३ घंटे बिता दिए पता ही नहीं चला। सुबह के ४ बज रहे थे और आखिरकार अब नींद लग गई। कुछ सपने अभी शुरू हुए थे कि फिर अलार्म ने मेरी नींद और सपने दोनों ही तोड़ दिए।
आज कॉलेज जाने का बिल्कुल ही मन नहीं था। बगैर मन से उठा ९:२० हो रहे थे। अपनी धुन में मैं उदास सा चेहरा लेकर कॉलेज में आ गया। जैसे-तैसे ३ बजे, आज का दिन मुझे पता नहीं चला। मैं फिर से उदास सा वही चेहरा लेकर वापस कमरे में आ गया। कुछ भी करने का मन नहीं हो रहा था। "मैं तुम्हें पसंद करती हूँ" वह एक आवाज जिसने मेरे जीने का तरीका रहन सहन सब कुछ बदल दिया था, बार बार मेरे कानों में गूंज रही थी। मैं भी उसे पसंद करता था लेकिन कभी कहने की हिम्मत नहीं कर पाया। कॉलेज के पहले दिन से ही वह मुझे अच्छी लगती थी पर ना जाने क्यों मैं उसके पास नहीं जा पाया।
आखिरकार ३ महीने और १३ दिन बाद उसने खुद ही बोला। मैं बहुत खुश था। ऐसा नहीं था कि कोई लड़की पहली बार पसंद आई थी या किसी लड़की ने पहली बार ऐसा बोला था, इससे पहले भी कई लड़कियों ने मुझे ऐसा बोला था और कई लड़कियाँ मुझे अच्छी भी लगी थी पर अपनी आदतों की वजह से मैं किसी से कुछ नहीं कह पाया। यूँ कहें कि प्रकृति ने कुछ और ही लिखा था मेरे लिए। आज से पहले कई लड़कियाँ मुझे यह बात बोल चुकी थीं पर आज उसकी आवाज में और बोलने के तरीके में या मेरे मन में उसके लिए पहले से ही कुछ था इस बात से या बात चाहे जो भी रही मैं आज बहुत खुश था। मैंने उस दिन हिम्मत करके उससे बोल भी दिया कि मैं कॉलेज के पहले दिन से उसे पसंद करता था। वह थोड़ा मुस्काई और "फिर तुम पागल हो, बताया क्यों नहीं ?" मानो ऐसा लगा कि वह सदियों से मुझे जानती हो वही अपनापन वही प्यार। हमारी बातचीत शुरू हुई, मिलना जुलना शुरू हुआ और अब मैं खुश रहने लगा था। मेरे जीने का तरीका बदल गया था मैं अपने आपको उससे बांटने लगा था। मेरी आदत नहीं थी अपनी बातें किसी को बताने की फिर भी मैं उसे सब कुछ बताने लगा था जो शायद मैं खुद को ही नहीं बताता था। वह भी मुझे समझने की पूरी कोशिश करती थी। समय बीतता चला गया हमारे बीच दूरियां एकदम खत्म हो गई थीं।
८:३० हो गए थे रात के खाने का समय हो गया था जो कि हॉस्टल के नियम थे। पूरा दिन बीत गया मैंने किसी से ठीक से बात नहीं की। १८ मैसेज और ७ फोन कॉल्स लेकिन मुझे उससे बात ही नहीं करनी थी। १० बज रहे थे आखिरकार आठवीं बार मैंने फोन उठाया। "मुझे माफ़ करना मैं तुम्हें बताने वाली थी पर भूल गई थी और जैसा तुम्हें लगता है वैसा कुछ भी नहीं है, वो..." वो थोड़ा हिचकिचाहट के साथ बोली "वो बस ऐसे ही था" मैं यह नहीं सुनना चाहता था लेकिन फिर मैंने चुपचाप उसकी बात सुनी, पर न जाने क्यों मैंने उसकी बात पर गौर नहीं किया। मैं उसके बारे में सब कुछ जानता था फिर भी मैं अंजान बनने का नाटक करता था और चीजों के बदल जाने की उम्मीद में था लेकिन कुछ कहानियाँ अधूरी छोड़ दी जाए तो अच्छी लगती हैं, न जाने कितनी बातें थी मेरे मन में जो मैं उसे कह देना चाहता था पर नहीं क्योंकि जो चीजें बननी न हों उन्हें छोड़ देना अच्छा होता है। रात के ११ बज रहे थे मैंने घर पर बात की, मैंने फोन बंद किया और सो गया।
८:३० बजे फिर से अलार्म ने मेरी नींद खोल दी आज मैं एक मुस्कान के साथ उठा, ऐसा नहीं था कि मैं बहुत खुश था पर हाँ ऐसा था कि मुझे अब खुश होना था।