मुसीबत को न्यौता

मुसीबत को न्यौता

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सुबह सुबह काम वाली आयी ,बड़ी दुखी लग रही थी। वैसै भी हम तो हैं भी ऐसे की किसी का दुख तो देखा ही नहीं जाता ना। आकर बोली दीदी मेरे बच्चों की छुट्टी हैं एक सप्ताह तो या तो मैं बच्चों के साथ आऊँगी अन्यथा नहीं आऊँगी।

अचानक ऑंखों के सामने फैला हुआ घर,बर्तन आते ही अनायास ही बोल पड़ी नहीं नहीं तुम आराम से लेकर आ सकती हो। बच्चें आयेंगे तो अच्छा ही लगेगा। कल लता ले आयी अपने दोनों बच्चों को।

काम तो कर रही थी और मैं मन को मना रही थी कोई नहीं एक सप्ताह ही तो है। बच्चे इतने भी शैतान हो सकते हैं पता नहीं था।

मैं भी कम नहीं हूँ बच्चों को खाने को केक दे दिया तो कभी बिस्कुट। सोचा बच्चे हैं।

लता भी खुश। मैं वैसे भी सहायता करने को तैयार रहती ही हूं,भले ही बाद में पछताना पडे।

अभी दो ही दिन निकले की फिर मेरे सामने आ खड़ी हुई लता तो कह रही थी कि दीदी बच्चे आप से घलमिल गयें है, आपको पसंद करने लगे हैं। आगे बोल क्या चाहती है ? बस पूछा और वो तो जैसै इंतज़ार ही कर रही थी तपाक से बोली। मैं एक दो और भी घरों में जाती हूं तो बच्चे आपके पास बैठे रहेंगे। दीदी कुछ काम कर देगें, परेशान नहीं करेगें। प्लीज़ दीदी बस एक दो दिन। मैं हॉं बोलती उससे पहले बच्चे आकर मेरे सामने खड़े हो गये और लता बाहर निकल गई।

उठकर बच्चों को टी वी देखने बिठाया और सोच रही थी मेरे जैसे ही इंसान होतें हैं जो मुसीबत को खुद न्यौता देते हैं। मुझ जैसे लोगों के लिये ही आ बैल मुझे मार कहावत बनी है।


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