उड़ान

उड़ान

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भारत पाकिस्तान के बॉर्डर पर बसा एक छोटा सा गाँव है जिसमे घर के नाम पर टूटी हुई झोंपड़ी जिसमे मॉं बैठी कुछ कर रही है।राम सिहं बड़ी ही तेजी से दौड़ता हुआ आया और स्कूल बस्ते के नाम पर कटा फटा सीमेन्ट के कट्टे का थैला जमीन पर फेंका और मिटटी के गारे में थोड़ा और ठण्डा पीनी डालकर पैर उसमें ठूंस दिये। वैसे भी तपते रेगिस्तान में ५० डिग्री तापमान पर आग उगलती धरती पर नंगे पैर चलकर आना ,साहस से कम नहीं है।

कितनी बार बोला रामसिहं सीमेंट का कट्टा बचा है तो पैरों में भी बॉंध लिया कर रोज छालों से भरे रहते हैं कहे दे रही हूं बहुत भारी पड़ती दिख रही है तेरी पढाई । वो सब छोड़ ये बता आज कछ खाने को है क्या? रामसिहं ललचाई नजरों से मॉं के आसपास के बर्तनों पर नजर डालता है। बाजरे की रोटी और पिसी लाल मिर्च मे लूण पाणी मिलाकर चटनी बनी से रोटी खाकर तृप्त महसूस कर रहा था ।

तभी भाई सुरेन्द्र सिहं की आवाज कानों में पडी कि मॉं चिल्लाने लगी कि रोज कोन दारु के पैसे दे देता है,अरे नालायक घर मे तो खाने को अनाज तक नहीं है।वह अपनी ही धुन में नीम के पेड़ के नीचे पडी खाट पर गिर जाता है।

मॉं में पास वाले गॉंव से पुरानी स्कूल की ड्रेस ला रहा हूं आज मास्टरजी ने बताया कोई अपनी पुरनी ड्रेस दे रहा है ,कहता हुआ राम सिंह घर से निकल गया तभी रास्ते में सबसे बडा भाई नरेन्द्र सिंह जो की विकलांग है,दिख जाता है रामसिहं दौड़कर उसे सहारा देता है।एक यह भाई तो है जो सदा मनोबल बढाता है।कैसी चल रही है रामसिहं तेरी पढाई? 

हॉं भाईसा इस साल बोर्ड है,फार्म भी भरना है अभी तो।पहले जा स्कूल के कपड़े ले आ फिर देखते हैं,भाई के चेहरे पर कुछ ना कर पाने की बेबसी साफ झलक रही थी।

रामसिहं सब्जी के ठेले पर बैठने लगा पर पैसै अभी भी कम पड़ रहे थे।थोड़ी बहुत पलदारी भी शुरु कर दी ,जैसै तैसै फार्म भर दिया पर पड़ाई भी तो करनी थी ।घर में तो नकारात्मकता का वातावरण सदा बना रहता था।कभी इस रास्ते तो कभी उस रास्ते बैठकर परिक्षा दे दी ,लग रहा था सपनों के कुछ क़रीब पहुँच रहा है रामसिहं ।तभी पास के गॉंव में नक़ली दारु पीने से भाई की मौत ने पूरे परिवार को हिला कर रख दिया ।लगा जैसे तपते रेगिस्तान की लू हवा में सब कुछ उड़ा कर ले गई।वैसे वो कुछ करता नहीं था पर एक एहसास था कि वह है।महिने दो महिने में वापस सब अपनी रोज़मर्रा के जीवन में व्यस्त हो गये ,शायद ये ही प्रकृति का नियम है।

रामसिहं ने कॉम्पिटीशन की तैयारी के लिये पैसै इक्कट्ठे करने के लिये काम करना शुरु कर दिया।गरमी की छट्टीयों में जहॉं सब अपने नाना नानी,दादा दादी के घर जातें हैं वहीं राम सिहं ने कुल्फी के ठेले पर बैठना शुरु कर दिया ।जैसै भी पैसै आते बस सब पढ़ाई में चले जाते ।एक दिन पिताजी पास आकर बोल रामसिहं अब तक ५० परिक्षायें दे चुका है,अब बसकर।अपनी किस्मत में सरकारी नौकरी नहीं है। इधर मॉं भी ताने मार रही थी ।अब रामसिहं भी थक चुका था,उसके साहस ने भी जवाब दे दिया था।लोगों से भी गालियाँ और ताने मिलने लगे कि घर परिवार की परवाह नहीं है। परिवार में सदा निराशा का वातावरण बना रहता।रामसिहं सोच रहा था कि ये कैसी मृगतृष्णा है जो समाप्त होने का नाम ही नहीं लेती।एक भाईसा ही हैं जो विकलांग होते हुये भी रामसिहं के सथ खडे रहते। जिससे रामसिहं का उत्साह टस से मस नहीं होता।

अख़बार की प्रिंटिंग प्रेस मे शाम का काम मिल गया तो थोड़े पैसे और आने लगे पर रामसिहं हिम्मत कहाँ हारने वाला था ,परिक्षायें देता रहा,फेल होता रहा ।कभी फिजिकल में फेल हो जाता तो कभी इंटरव्यू में ।कभी कभी तो बस एक दो नम्बर से ही रह जाताशाम का समय था, बरसात हो रही थी ,ऐसा लग रहा था कि बादल फट गये हैं जल्दी जल्दी घर पहुँचा देखा भीड जमा है भाग कर देखा भाईसा ने आत्महत्या कर ली ।मॉं तो पूरी तरह से सुन्न हो गयी ।एक साल मे दो जवान मौत सुनकर ही पूरे बदन में डर से झुरझरी हो जाती है।रामसिहं पूरी तरह टूट गया।समझ नही आ रहा था कि क्या करुं।समय ,समय ऐसा होता है कि कैसा भी दुख हो ,दस बीस दिन मे सब पहले जैसा कर देता है परन्तु जो चला जाता है उसकी कमी सदा हर क्षण जलाती है। घर में घुसते ही दोनों भाईसा की बातें याद आती।मॉं का यूं सदा चुप बुत बनकर रहना सहन नहीं होता।पिताजी रामसिहं को बुलाकर कहतें हैं कि तू ही सहारा है हमारा और गले लगकर खूब रोये।फिर भी मन में बैठ गया कि रामसिहं तू किसी काम का नहीं हैं,समझ नहीं आ रहा था कि करे तो क्या करे,एक बार जो नकारात्मकता घेर लेती है तो सब नकारात्मक ही दिखाई देता है।रामसिहं के भी मन में विचार आने लगे कि मैं भी आत्महत्या कर लेता हूं क्या रखा हैं इस संघर्ष भरी ज़िन्दगी में, कितनी परिक्षायें दी अभी तक एक में भी सफलता नहीं मिली।दुनिया के तानों से तो छुटकारा मिलेगा। कोई ये नहीं सोचता कि ईश्वर ने जीवन दिया है। उसको हर स्थिति में जीओ ,क्या पता है मरने के बाद सब सुख हैं।

रामसिहं तो निकल पड़ा अपना जीवन समाप्त करने अपनी ही धुन में। उसने ठान लिया की हाइवे पर किसी ट्रक के नीचे आ जायेगा बस फिर क्या मिल जायेगा सब विपत्ति से छुटकारा।जोर से हॉर्न की आवाज से जैसे वह निद्रा से जागा।ओ बनाजी मेरो ही ट्रक मिल्यो कईं मरबा वास्ते?घरां जाओ मॉं बाप राह देख रिया होवेगा।ड्राइवर जोर से चिल्लाया।रामसिहं को देखकर उसको रामसिहं की लाचारी पर दया आ गयी बोला बैठो गाडी में आगे उतार दूँगा और हाथ पकडकर चढा लिया ट्रक में।

ट्रक मे एक कवि की कविता सुनाई दी जिसकी कुछ पंक्तियों ने रामसिहं के जीवन को नई राह दे दी।वो पंक्ति थी-

छिप छिप कर अश्रु बहाने वालों,मोती व्यर्थ लुटाने वालों।

कुछ सपनों के मर जाने से ,जीवन नहीं मरा करता।

कुछ सालों के पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता।

कुछ दीपों के बुझ जाने से आंगन नही मरा करता,

और कुछ सपनों के मर जानें से जीवन नहीं मरा करता।

इन पंक्तियों ने रामसिहं को एक नई राह दे दी।चारों तरफ बस ये ही पंक्तियाँ गूँज रही थी।उसे लग रहा था असल परिक्षा तो आज से शुरु हुई है।ड्राइवर ने गाँव के मोड़ पर छोड़ दिया।घर पहुँच कर अपने माता पिता को देखा जिनके चेहरे पर एक ही साल में दो दो बेटों को खोने का महा दुख तथा मेरे लिये चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही थी। उनके फटे हाल कपड़े,दरिद्रता ,घर के खाली बरतन सब कुछ वो जो निराशा के चश्में मे छिप गया था ,आज दिखाई दे रहा था।रामसिहं सोचता है कि मैं ये क्या करने जा रहा था,मैं ये कैसे कर सकता हूँ,मैं भाईसा जैसे कायर नहीं बनूँगा ,मॉं पिताजी की उम्मीद बस मैं ही हूँ अब ।

एक बार पुन: रामसिहं खुद से ही वादा करता है,वादे तो वैसे वह हर बार करता है परन्तु पूरे कभी नहीं होते ,लेकिन इस बार वह अलग धुन में था । कह रहा था-मैं इन खाली बरतनों को भोजन से भर दूँगा,इन चिन्ता की लकीरों को हमेशा के लिये हटा दूँगा,इस कच्ची टूटी झोंपड़ी को पक्के मकान में बदल दूँगा ।अब सरकारी नौकरी पा कर ही रहूँगा ।

पर चाहने से कुछ नहीं होता,उसके लिये मेहनत आवश्यक है।

परिक्षाओं का दौर फिर से शुरु हो गया,हर बार परिक्षा देता रहा फेल होता रहा।हर कम्पिटिशन के फार्म भरता रहा तैयारी करता रह।रोटी कम खा लेता था पर फार्म सारे भरकर भाग्य जरुर आजमा लेता था। 

फेल होने का इतनी आदत सी हो गयी थी कि रामसिहं सोचता कि क्या कभी मैं भी पास हो पाऊँगा या मेरा भविष्य केवल कपड़े की फ़ैक्ट्री,प्रिंटिंग प्रेस,कुल्फी और सब्जी के ठेले पर ही है।बेलगारी से तो पूरा बदन दुखने लगता था ,पर इससे एक फायदा भी हुआ ,बदन दर्द के कारण पूरी रात सो नहीं पाता था तो पड़ाई कर लेता था। 

फेल होते होते एक बार पुन: हिम्मत और हौसलें साथ छोड़ने लग रहे थे।मॉं पिताजी बिचारे डर के मारे कुछ नही कहते बस मुझे देख दुखी होते रहते कि यह पागलपन कब तक?आस पड़ोस,रिश्तेदार,दोस्त,सगे संबंधी सब बस एक ही बात कहते कि रामसिहं तेरी किस्मत में सरकारी नौकरी नहीं हैं यह ज़िद छोड़ दे।

पर रामसिहं तो हिम्मत और हौसले की उड़ान भर चुका था। एक दिन वह सोचने लगा कि जब रेल्वे स्टेशन पर चाय बेचने वाले नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन सकते हैं,एक छप्पर के घर में रहकर पढने वाले रामनाथ कोविंद देश के राष्ट्रपति बन सकते हैं,अखबार के बण्डल उठाने वाले अब्दुल कलाम देश के वैज्ञानिक और राष्ट्रपति बन सकते हैं,जिसके मता पिता का बचपन में ही कत्ल हो चुका और हर परिस्थिति में लडने वाले मिल्खा सिंह कॉमन वेल्थ गेम में गॉल्ड मेडल जीत सकते हैं तो मैं क्यों नहीं ।

रख होंसला वो मजंर भी आयेगा,प्यासे के पास चलकर इक दिन समंदर भी आयेगा।

थककर ना बैठ मंजिले मुसाफिर,तुझे मंजिले भी मिलेगी और मजा भी आयेगा।

इन पंक्तियों के साथ एक बार फिर पूरे जोश से परिक्षा दी,इस बार परिक्षा में जो हमेशा ग़लतियाँ करता हूं,इस बार सुधारा।

इस बार मॉं पिताजी और ईश्वर की कृपा बनी,हर बार हार रामसिहं को हराती थी इस बार हार को हराकर रामसिहं जीत गया,उसको तो विश्वास ही नहीं हो पा रहा था कि वह पास भी हो सकता है। सबको बहुत खुशी थी वहीं एक कोने में भाईसा को खोने की पीडा दुख दे रही थी,आज वो होते तो कितना खुश होते।

रामसिहं जैसे लड़के के लिये बहुत बड़ी बात थी ये,जिसने अपनी परिवार में खाने की कमी देखी थी, जिसने अपनी ज़िन्दगी किताबों ,काम और संघर्ष में काटी।कमाल हो गया ये तो,जो उसे उठते बैठते समझाते वही आज उसके हौसले की तारीफ़ कर रहे थे।बच्चो को मिसाल देने लगे,कहने लगे कि हिम्मत कभी टूटने मत दो।हौसला बनाये रखो।

रामसिहं भी सोच रहा था कि जोश जज्बा और जुनून की जो उड़ान भर ले तो कोई पंख नहीं काट सकता सपनों के। अपने अंदर की आग को जिनंदा रखना है,परिस्थितियों से लडने की हिम्मत खुद ही आ जाती है।

आज रामसिहं पंचायत अधिकारी के रुप मे पहली बार अपने ऑफिस मे जा रहा था तो बस ये ही गुनगुना रहा था कि-

सोच को बदलो तो सितारे बदल जाते हैं,नजरों को बदलो तो नजारे बदल जाते हैं।

कश्तियों को बदलने की ज़रूरत नहीं है यारों दिशाओं को गर बदलों तो किनारे अपने आप मिल जाते हैं।


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