Arya Jha

Drama

4.9  

Arya Jha

Drama

मोहब्बत

मोहब्बत

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विदिशा दी' जाने माने ख़ानदान की बड़ी बेटी थी पर पता नहीं क्यों, छोटी उम्र में ब्याह दी गयीं। माता -पिता के विवाह के ११ वर्षों के बाद भी कोई औलाद ना थी। कई मंदिरों, मस्जिदों, व गुरूद्वारे में माथा टेकने के बाद, अलभ लाभ के रूप में वह आयीं थीं ।उनमें, उनके पिता की जान बसती थी। उनके पिता को अच्छा रिश्ता मिला तो 12वीं में ही चट मंगनी पट ब्याह संपन्न करा दिया। शायद सभी जिम्मेवारियों का निर्वाह करने की शीघ्रता में उनका नंबर जल्दी आ गया था।

मुझे हमारी आखिरी मुलाकात अच्छी तरह याद है। लाल बनारसी साड़ी में सजी -धजी एक चंचल हिरणी सी विदिशा दी और उनका हाथ थामे बैठे हुए जीजाजी। जरा सी पकड़ ढीली होती तो फिर से हॉस्टल के चार चक्कर लगा आतीं क्यूंकि उन्हें भी पता था कि ये सुनहले दिन फिर ना आएंगे। जीजाजी के सामने खड़े हम दो दर्जन सालियाँ, उनसे गाना सुनाने की जिद्द कर बैठे। उन्होंने एक बार, अपनी सहचरी की ओर देखा जो धवल दंतपंक्तियां दिखाती हुयी हमसे बातें करने में मशगूल थीं, फिर गाना शुरू किया'बड़े अच्छे लगते हैं.. ये धरती... ये नदिया.. ये रैना.. और तुम !" 

जोड़ी बहुत प्यारी थी। बिल्कुल बालिका वधु के नायक नायिका दिख रहे थे। फिर उन्होंने हॉस्टल छोड़ दिया तो उनसे मिलना भी ना हो सका। हाल -फ़िलहाल उनकी फेसबुक में फ्रेंड रिक्वेस्ट आयी तो मैं देखते ही पहचान गयी।

कितना ओजमयी चेहरा, और आत्मविश्वास से भरी ऑंखें, प्यारी तो पहले भी बहुत थी अब लावण्य के साथ गरिमा ने व्यक्तित्व में चार चाँद लगा दिया था। नाम के साथ डॉक्टर लग गया था।

''डॉ विदिशा मिश्रा, वाह दी! वजनदार !"

मैंने उन्हें कमेंट दिया उधर से उनका जवाब आया।

"संडे को क्या कर रही हो ?"

मैंने कहा" खाली हूँ। "

" मिलने आ जाओ। सैटरडे शाम की टिकट्स बुक करती हूँ। "बस ऐसी ही थीं हमेशा से। बहुत प्यार करने वाली और अपने अधिकारों को न छोड़ने वाली। जैसे हक़ से मुझे बुला लिया। घर आलीशान था पर उनका कमरा २० साल पुराने स्टाइल में सजा सा दिखा। दीवाल पर जीजाजी की तस्वीर, उसपर हार लगा था। मैं तो स्तब्ध थी, पर वो हँसे जा रही थीं। "गले ना लगोगी? "

तुरंत ही उन्होंने टोका ...

"अब मैं बस विदिशा नहीं बल्कि विदिशा आदित्य मिश्रा हूँ। तुम विशु दी के साथ जीजू से भी गले मिल रही हो। "

"तो जीजाजी का नाम अपने नाम के साथ जोड़ लिया? "

"ना ....ऐसा नहीं वो मुझमे समा चुके हैं कहकर ज़ोरदार ठहाका लगाया उन्होंने। "

"कैसे दी ! कब हुआ ये ? "मैं शरमाकर झट से अलग हो गयी। नज़रें तस्वीर पर टिकी थीं।  

"बहुत कुछ बताना है तुझे पर पहले हॉस्टल वाली मैगी और कॉफ़ी हो जाये ?"

मैंने 'हाँ 'में सर हिलाया खुद को संयत करने की निरंतर कोशिश किये जा रही थी।

उन्होंने वहीं से शुरू किया-

"मुझे' आदित्य'ने हमेशा बच्ची ही समझा जबतक कि मैं २० की ना होगयी। कहते थे 'टीन 'हो अभी। थोड़ी बड़ी हो जाओ फिर बताऊंगा।"

"दो साल तक हम दोनों एक ही छत के नीचे मित्रवत रहे !किशोरी पत्नी और युवा पति नजरों से एक दूसरे से बंधे थे। इन्होने कॉलेज लेक्चररशिप ज्वाइन कर रखा था। मेरा भी एडमिशन करा दिया था। दिन कॉलेज में कट जाता और रातें आँखों में।  वो सोफे पर लेटते, मैं पलंग परआदित्य ने ड्रेसिंग टेबल के शीशे का एंगल कुछ यूँ व्यवस्थित किया था कि मैं उन्हें नज़र आती रहती। "

ये बताते हुए उनके चेहरे की लाली, उनके आँखों की हयाउन दोनों के बेपनाह मोहब्बत का पुख्ता सबूत देती थीं,

"आदित्य ने मेरा इंतज़ार किया। मुझे खिलता -खेलता देख कर मोहित होते। पर नाज़ुक कली समझ, हमेशा सहेजना चाहते थे। उन्हें पता था कि वो मुझे किसी भी क्षण हासिल कर सकते थे। पर प्यार का वह अहसास हमेशा के लिए मर जाता जो धीरे धीरे परवान चढ़ रहा था। मेरा ग्रैजुएशन पूरा हो गया तब एक दिन उन्होंने कहा "एक अनुरोध मानोगी ?"

"क्या ? "

"मेरी ओर कभी पीठ मत करना।"

"क्यों ? 

"बस यूँ ही।"

"उन्हें मुझे अपनी आँखों के सामने रखना अच्छा लगता था। "दीदी ने बताया।

"हाउ रोमांटिक !"

मेरे मुंह से निकला.... 

"रोमांस ही रोमांस.....!बहुत प्यार व धैर्य के साथ वो क़रीब आये। "उन्होंने आगे बताया।

"उसके बाद तो हमने तमाम उम्र गुज़ार ली थी उन 20 सालों में !उस बीच दो बेटों की माँ बनी। अच्छे -बुरे सभी उतारों -चढ़ावों को हमने साथ देख लिया था। उन्होंने एक दिन अपने हाथों में मेरा हाथ लेकर यही कहा था कि उन्हें पूरा विश्वास है कि मैं बच्चों का और अपना ख्याल रख सकुंगी।

पता नहीं क्या हुआ था उन्हें। चेहरे पर एक दाना था जो शेविंग के समय कट गया था। घर में ही जेठानी डॉक्टर थीं। उन्होंने परीक्षण कर कहा "सब ठीक है" और हमने विश्वास कर लिया। वह घरवालों पर विश्वास करने वाले सरल हृदयी थे। छोटी जगहों में तो अब भी मेडिकल सुविधाओं का अभाव है। पर जरा भी अंदेशा होता तो बड़े अस्पताल लेकर जाती।जब तक मैं समझ पायी और उन्हें शहर के अस्पताल में भर्ती कराया, उनका घाव कैंसर बन फ़ैल चूका था।वह दर्द सह रहे थे। मैं उन्हें तकलीफ उठाती बस देख रही थी। अस्पताल के डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था। उनके कैंसर की अंतिम अवस्था थी।उन्होंने मुझसे, एक दिन एक पेपर -पेन माँगा, जब वह बोलने में भी स्वयं को अक्षम पा रहे थे तब ये लिखकर अनुरोध किया कि मेरे बच्चों को पढ़ाई पूरी करा देना.. मैंने पढ़ा और आँखों से ही उन्हें निश्चिन्त किया।उन्हें पता था कि उनका आदेश मेरे लिए ब्रह्मवाक्य था। शब्दहीन थी मैं। मेरे आदित्य, जिनसे मेरे जीवन के हर तार जुड़े थे वह किसी भी क्षण मेरा साथ छोड़कर जाने वाले थे।  

मेरी आँखों के सामने उन्होंने आखिरी सांसे लीं। उनके जाते ही घरवालों के व्यवहार बुरी तरह बदल गए थे। मैं वहीँ रहना चाहती थी। आखिर 20 वर्ष उसी छत के नीचे काटा था पर मायकेवाले साथ लेकर आ गए थे। पहले ६ माह का तो मुझे होश नहीं ....!"

एक ही साँस में बोलती"कब सोती-जागती,  कुछ याद नहीं। शायद जीने की इच्छा ही समाप्त हो गयी थी फिर एक दिन मेरे छोटे बेटे ने कहा -'माँ तुम भी क्यों न मर गयी, पापा के साथ ? 'वो बात सीधे कलेजे में लगी!

उसने ठीक ही तो कहा था। तब ही मैंने सोचा मर ही तो गयी हूँ ....मैं तो जीतेजी मर गयी हूँ। ना खुद का होश -न बच्चो की खबर ! ऐसे कैसे चलेगा? मैं पति से किया गया वादा कैसे भूल सकती हूँ। मैंने बच्चों का ख्याल रखने का वादा किया था उनसे। मुझे स्वयं को संभालना ही होगा।

एक झटके से उठी और आदित्य की पुरानी सभी चिट्ठियाँ निकालीं जो मायके की अलमारी में मेरी धरोहरों के साथ सुरक्षित थीं। उन्हें पढ़ा, ताक़त बटोरा और ससुराल आने का फैसला लिया। उनमे वादा किया था आदित्य से कि मैं दोनों बेटों को बड़ा आदमी बनाउंगी। अब पति के सपनों को उड़ान देने का समय आ गया था। मार्ग में रोड़े ही रोड़े थे पर मुझे भी ज़िद्द थी। जाने किस ताक़त पर अपनी लड़ायी लड़ती गयी। शायद उद्देश्य का होना बहुत जरुरी है, जीने के लिए। मेरा उद्देश्य मेरे सामने था:-मेरे पति का सपना और मेरे बमुझे वापस घर में सेटल होने देने के सभी विरुद्ध थे। सास नहीं थी, उन्हें तो एक बार दिवंगत पुत्र के परिवार का मोह हो भी सकता था पर दो मीठे बोल बोलने वाला एक भी अपना ना था। जेठ जी सबसे सुदृढ़ थे। घर की अथाह संपत्ति को अपनी मन -मर्ज़ी से चलाने वाले को, अन्य उत्तराधिकारी कहाँ भाते हैं। उन्हें देखा तो उनकी कही बातें याद आती गयीं जो वापस मुझे खड़े होने में प्रेरक साबित हुयी थीपति की चिता जब जल ही रही थी कि जेठ जी के शब्द 'अब ये बच्चे कैसे पलते -बढ़ते हैं देखता हूँ!'उनकी वह ललकार, मैं कभी भूल ना पायी थी. 'अगर वो शब्द कानों में न गूंजते तो शायद मैं, मज़बूत ना हो पाती।' 

यही वो दो बातें थी जिसने उन्हें शोक से बाहर निकाला। अब जन्मस्थली से कर्मभूमि का सफर तय करना था। माँ से विदा लेते समय कहा :- ' सदा सुहागन का आशीर्वाद दो माँ वो मुझमे हैं, कहीं नहीं गए। मैं अर्धांगिनी उनसे पूर्ण होकर तुमसे आशीर्वाद मानती हूँ !' भरी हुयी आँखों और मुस्कुराते होठों से उन्होंने ये बताया।

आगे का सफर :--

फिर उन्होंने बच्चों को हॉस्टल भेज दिया और खुद ससुराल आ गयी। बस पति की किताबें, और इस कमरे की दीवारें, पहले तो खुद को यहीं क़ैद कर लिया था। खाली वक़्त ना कटने लगा तो कॉलेज ज्वाइन कर लिया था। उन्हें वही -वहीँ ढूँढा, जहाँ जाते देखती थीं। उनका ही विषय, वही किताबें, उनकी किताबों में डुबोकर एक शांति महसूस करने लगी थी। पोस्टग्रैजुएशन में भी अच्छे नंबरों से पास हो गयी। उनके ही कॉलेज में उनकी जगह नियुक्ति प्राप्त की। साथ ही साथ पीएचडी किया। अपनी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए हर कोशिश की। स्वावलम्बी हो चुकी थी। आदित्य के सपनों को साकार करने में अपने जीवन को लगाया।हर कोने में बसी यादें, उनसे किये गए वादे इन सबको जीने का आधार बनाया !पूरा कमरा, बिना किसी फेर -बदल के ज्यों का त्यों सहेज रखा था। वह बताती गयीं और मैं बस उन्हें देखती रही। आखिरकार पूछ बैठी।

"क्या है विदिशा दी ये -प्यार, इश्क़ या मोहब्बत ?"

"मोहब्बत !"

उनका जवाब था। ये कहते हुए जो अलौकिक मुस्कान उनके चेहरे पर थी, वो देख मैं आश्वस्त हो गयी थी कि उन्होंने अपनी जंग जीत ली है। वो कोई अबला नारी नहीं बल्कि शक्ति का वह पुंज हैं, जिनसे थोड़े देर बात करके कोई भी प्रेरित हो सकता है।

दोस्तों किसी का पूरा जीवन १०००-२००० शब्दों में भी नहीं उतारा जा सकता पर जिस तरह से उन्होंने मौत के नजदीक जाकर जीवन को न केवल वापस पाया बल्कि लौहस्तंभ के समान, अपने शत्रुओं के बीच सम्मान के साथ खड़ीं है। बिना किसी बाहरी सहायता के ना केवल स्वयं को बल्कि दोनों पुत्रों को अपने पैरों पर खड़ा किया, मैं उनका ह्रदय से सम्मान करती हूँ। उनकी कहानी लिखने का उद्देश्य नारियों में सृजनात्मक शक्तियों का संचार करना है ! 


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