मन का डर मन में रहने दो
मन का डर मन में रहने दो
" मैं जानती हूँ पापा कि...आपको किस बात का डर है। यकीन मानिये, दुआओं में बहुत ताकत होती है। देखना... माँ ठीक हो जाएंगी !"
" ओह... मेरी पॉजिटिव थिंकर , तू भी ना कब्बू... कभी हार नहीं मानती है ना...!"
बार-बार कहने से कहा हुआ सच हो जाता है...?
काव्या से जब कोई पूछता तो उसका जवाब होता... "हां" होता है।
आज भी जब बाबूजी मां को देखकर चिंतित थे तब काव्या उनका मन ठीक करने के लिए बोली
"बाबूजी ! आपको लगता है ना कि मां की तबीयत अब ठीक हो जाएगी। मुझे भी ऐसा ही लगता है!"
काव्या ने बाबूजी का हाथ पकड़ते हुए कहा।
और उन हाथों की कंपन से वह समझ रही थी कि, बाबूजी को किस बात का डर है।
वह अक्सर बोलती,
" पापा ! मन का डर मन में ही रहने दो। उन्हें शब्दों में मत लाओ, नहीं तो हम कमजोर हो जाते हैं !"
दरअसल...इलाज तो अम्मा का सही चल रहा था। लेकिन इलाज शुरू करने में इतनी देर हो गई थी कि, अब कुछ भी नहीं कहा जा सकता था।
अम्मा दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थीं। और काव्या का मन ड़रता जा रहा था। और जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे उसकी उम्मीद भी खत्म होती जा रही थी। काव्या का मन यह सवाल कर रहा था कि अगर अम्मा ठीक नहीं हुई तो क्या होगा ? ओर जो अगर अम्मा को कुछ हो गया तो बाबूजी को कौन संभालेगा?
आज उनकी कीमोथेरेपी शुरू हो गई थी। खर्चे की बात तो जो थी सो थी।
सबसे बड़ी बात थी कि ...
अब अम्मा की आंखों में भी जिंदगी जीने की तमन्ना खत्म सी होती जा रही थी।
और ...यही एक बात थी,
जिसने डॉक्टर को भी चिंतित कर दिया था। और बाबूजी भी कुछ कुछ समझ रहे थे। कदाचित अम्मा ने भी अपने संभावित मृत्यु के पैर देख लिए थे।
इन सब बातों को झूठलाकर, सारी बातों को दरकिनार कर काव्या रात दिन भगवान से यही प्रार्थना करती थी कि,
भगवान उसकी अम्मा को ठीक कर दें। और कैसी भी हो यह मुसीबत के दिन टल जाएं।
काव्या के बड़े भैया और मझले भैया दोनों आए तो थे। लेकिन उन्होंने बाबू जी से एक बार भी नहीं पूछा कि,
इस इलाज में पूरा खर्चा कितना आएगा ?
दोनों ने सिर्फ यही कहा कि,
"बाबू जी हम आपके साथ हैं !"
और संकोच से बाबूजी भी नहीं कह पाए थे कि इस इलाज में तो पैसा कितना लगेगा ,पता नहीं !
और यह कहा भी नहीं जा सकता की अम्मा ठीक हो जाएंगी।
दोनों भाभियां भी आईं थीं। और ऊपर से सहानुभूति दिखाती हुई बातों बातों में मां से अम्मा से यह जानने की कोशिश करती रहीं कि उनके पास कितने गहने हैं और कहां रखे हैं। और उनके जाने के बाद उन गहनों में उनका हिस्सा कितना होगा।
रिश्तों का ऐसा स्वार्थ और ऐसा दोगलापन देखकर काव्या समझ नहीं पा रही थी कि वह खुलकर कुछ कहे या फिर मन में ही सारी बातें रखकर किसी तरह अम्मा के इलाज के लिए पैसे का भी जुगाड़ करवाए। और दत्तचित होकर मां की सेवा में लग जाए।
दरअसल तीन भाई-बहनों में काव्या सबसे छोटी थी। और पास के गांव में ब्याही गई थी। इसलिए बार-बार उसे अम्मा को देखने आना पड़ता था। बेटी का मन था ना...मां को देखे बिना चैन नहीं पड़ता था। और इस तरह दोनों भाइयों ने भी जिम्मेदारी से आंख मूंद ली थी कि काव्या तो है ही वह अम्मा बाबूजी को देख लेगी।
काव्या के माता-पिता सुरेश जी और गायत्री जी ने अपने तीनों संतानों में से संस्कारों की जिम्मेदारियों की थाती तो अपनी बेटी काव्या को थमा दी थी और और घर की जिम्मेदारियों से अलग रहने और असली आर्थिक स्थिति नहीं बताकर दोनों बेटों को एक तरह से विलासी और गैरजिम्मेदार बना दिया था।
सबसे बड़ा बेटा विकास और उससे चार साल छोटा विनय दोनों ने बारहवीं के बाद बाहर जाकर क्रमशः इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई की।
अब चूंकि दोनों भाई हायर स्टडी कर रहे थे। इसलिए अम्मा के ही कहने पर उन्हें घर की वास्तविक आर्थिक स्थिति नहीं बताई जाती थी। और हैसियत से बढ़कर उन पर खर्च किया जाता। इसलिए वह दोनों पढ़ाई के साथ-साथ कुछ-कुछ अय्याशी भी करते थे। क्योंकि उन्हें वास्तविक स्थिति पता ही नहीं थी कि बाबुजी ने कितनी जगह कर्ज लेकर उन्हें पढ़ाया था।
सिर्फ कर्ज की बात होती तो और था... दोनों पति-पत्नी अपना पेट काटकर दोनों बेटों को पढ़ा रहे थे । इस क्रम में ना तो दोनों फल खाते ना दूध पीते और ना ही पौष्टिक आहार ले पाते थे।
इधर काव्या सबसे छोटी थी।
दरअसल... विनय के बाद इन लोगों ने तो अपना परिवार समाप्त ही समझा था।
कि विनय के जन्म के आठवें साल जब काव्या का जन्म हुआ तो दादी ने उसे बहुत ही प्यार से अपनाया और कहा ,
"अरे! यह तो कोखपोछनी बेटी है। यह तो राज लगाएगी राज!"
तब काव्या की बुआ ने हंसकर कहा भी था।
" क्या बात कर रही हो मां ! तेतर बेटी राज लगाती है। यह तो दो बेटे के बाद आई है। यह कहीं खानदान को बर्बाद ना कर दे!"
"अब तू चुप कर नंदिनी! यह मेरी पोती है। और देखना यह खानदान का नाम रोशन करेगी!"
कहकर दादी ने उसे जब कलेजे से लगा लिया तो गायत्री जी के चेहरे की शिकन भी कम हो गई।
वरना दो बेटे के बाद बेटी होने पर वह कुछ कुछ सकुचा रही थीं।
दो भाइयों के बाद काव्या पर उनका ध्यान कम ही जाता। काव्या की परवरिश में जब पैसे कम पड़ने लगे। तब काव्या को बहुत बार एहसास होता है कि,
वह बेटी है इसलिए उस पर कम खर्च किया जाता है ।
गांव के हाई स्कूल में ही पढ़ने के बाद पास के जिले में काव्या कॉलेज की पढ़ाई करने लगी थी। कोलेज दूर था लेकिन फिर भी रोज जाती और शाम ढले तक लौटकर आती थी। उस समय गांव की बहुत कम लड़कियां ही कॉलेज में पढ़ती थीं । इसलिए सात आठ लड़कियों का एक झुंड बन गया था। जो मिलकर कॉलेज जाती थीं और शाम तक लौट आती थीं। तकलीफ तो बहुत थी लेकिन काव्या में आगे पढ़ने का और आगे बढ़ने का चाव भी बहुत था।
एक करके दोनों भाइयों की जब शादी हो गई तब काव्या के ही सिर पर मां की जिम्मेदारी आ गई थी।
और और संजोग ऐसा बैठा कि काव्या की शादी पास के गांव के बटाईदार अमरेंद्र जी के बेटे रवि से हो गई।
अब तो काव्या के ऊपर दो दो घर की जिम्मेदारी आ गई थी। पति शहर में रहते थे और घर की जिम्मेदारी संभालते हुए काव्या को बीच-बीच में अपने अम्मा बाबूजी को भी देखने आना पड़ता था।
काव्या ने जिम्मेदारी से इनकार नहीं किया था। लेकिन समय के साथ बाबूजी और अम्मा और भी वृद्ध और कमज़ोर होते जा रहे थे।
चुंकि काव्या की शादी पास के ही गांव में हुई थी। इसलिए महीने में एक चक्कर वह मायके का जरूर लगा जाती थी।
उधर काव्या की सास भी बहुत ताने देती थी कि,
"दोनों भाइयों के रहते तुम्हें अपने माता-पिता को देखने क्यों जाना पड़ता है!"
उनके कहने का अपना रूआब था। क्योंकि उनका बेटा और काव्या का पति रवि एक तरह से मातृभक्त था। उनके दोनों गाल चावल के दानों से भरे थे वह भला भूखे का दर्द क्या समझती?
इधर जब एक साल से काव्या गांव आती तो मां को हरदम बीमार ही पाती थी। बाबुजी भी कमजोर हो गए थे। खेती पथारी भी कोई खास तो नहीं थी। लेकिन दोनों का वृद्धावस्था में गुजारा हो जाता था।
काव्या ने जब देखा कि अम्मा का सही इलाज नहीं हो रहा है। बाबूजी से पूछा तो उन्होंने भी अपने हाथ तंग होने की बात कहकर इस बात को टाल दिया।
जबकि अब तक काव्या समझ चुकी थी कि...
अम्मा की बीमारी कोई साधारण बीमारी नहीं थी।अम्मा को सामान्य बुखार नहीं था। और रक्त स्राव भी जब-तब हो जाया करता था।
इसी एक बात ने काव्या को बहुत चिंतित किया ।
जब उसने बड़े भैया को फोन लगाया तो विकास ने साफ-साफ कह दिया ,
"कब्बी! अभी मैं नहीं आ सकता हूं। तुम बगल के गांव में रहती हो। तुम उन्हें देख लो। पैसे की कोई बात हो तो बता देना!"
अब काव्या आपने भैया से क्या कहती? अपनी मां के इलाज के लिए पैसे मांगना उसे ठीक थोड़ी ही लगता था।
और रही उसके पति की कमाई की बात....?
तो ...
देकर ले देकर उसकी कमाई ठीक ही थी। वह पास के शहर कोतमा में रहता और महीने में दो बार गांव आया करता था। अधिकतर समय तो वह पास के शहर में ही एक रूम लेकर रहता था। अभी तक परिवार व्यवस्थित नहीं हुआ था काव्या और उसके पति रवि जब मिलते तो इस बारे में बात करते थे क्या परिवार को अवस्थित करना पड़ेगा लेकिन इस बीच यह हादसा हो गया।
एक रात जब मां को बहुत दर्द हो रहा था और ब्लीडिंग नहीं रुक रहा था तो काव्या अपने पति के साथ मां को शहर के डॉक्टर को दिखाने ले गई। वहां पर जो डॉक्टर ने उन्हें कैंसर बताया तो सुनकर बाबूजी का सिर चकरा गया था। किसी तरह वह गिरते-गिरते बचे। लेकिन अभी इलाज संभव था और अम्मा की जान बचाई जा सकती थी। लेकिन सबसे बड़ी समस्या थी कि,
अम्मा अभी बहुत कमजोर थी। इसके अलावा पैसे की समस्या भी थी।
अब इलाज के लिए उन्हें शहर में ही रहना पड़ता। तब एक कमरा किराए पर लेकर रहना और डॉक्टर से इलाज कराना...सब मिलाकर खर्चा भी था और सास-ससुर के ताने सुन सुनकर काव्या का हृदय अलग छलनी हुआ जा रहा था। दोनों भाई यह कह रहे थे,
"कब्बी! जब तू है तो हमें क्या फिकर?"
और बातों की चासनी लपेटकर काव्या को सिर्फ ऊपर से खुश कर देते थे और ना तो पैसे की मदद कर रहे थे और ना ही आकर रह रहे थे।
अम्मा जब तब काव्या का हाथ पकड़कर कहती,
"तू जरूर पिछले जन्म में मेरी मां रही होगी… तू तो देवी है,देवी बेटा! वरना अपना सारा घर संसार त्याग कर मां की सेवा को लगी है। भगवान मुझे इस दुनिया से उठा क्यों नहीं लेता। मैं तेरा घर उजड़ता हुआ नहीं देख सकती!"
तब काव्या मां के मुंह पर हाथ रखते हुए कहती,
"अम्मा!ऐसा मत कहो। तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगी और पहले से भी बेहतर जिंदगी जियोगी!"
यही एक पंक्ति थी जो अम्मा में दोबारा नवजीवन का संचार करती थी।
और काव्या इस पंक्ति का इस्तेमाल दिन में कई कई बार करती थी।
इलाज और सेवा तो चल ही रही थी।
फिर पैसे की कमी तो हो ही रही थी। और कई बार कहने पर दोनों भाइयों ने कुछ हजार पैसेके मदद तो किए थे।
लेकिन....उससे वैसे ऊंट के मुंह में जीरा का फोरन "
साबित हो रहे थे।
तो अम्मा के कहने पर ही काव्या ने उनके कुछ गहने गिरवी रख दिए थे। अपने ससुराल से कुछ भी उम्मीद करना तो बकार था।
ससुर जी जजमानी करके अच्छा पैसा कमा लेते थे। और कई बंटाईदार के खेत भी उनके पास थे। घर में अन्न धन धन की कमी तो नहीं थी लेकिन काव्या के ससुराल वाले लोग कृपण बहुत थे और काव्या किस मुंह से अपने माता-पिता का के इलाज के लिए पैसे मांगती...? सास ससुर और पति के पास एक तर्क रहता था कि,
" तुम्हारे दो दो भाई हैं। और शादी के समय ताल ठोककर तुम्हारे पिता कहकर गए थे...हमारे दो दो बेटे हैं जो बुढ़ापे में देखभाल कर लेंगे तो" तो अब किस मुंह से पैसे मांग रही हो?"
इधर अनहद खर्च हो रहा था। अम्मा इलाज जो चल रहा था। रात दिन का जागना चल रहा था। लेकिन काव्या का हौसला कम नहीं हो रहा था।
वह एक ही उम्मीद लिए सोती और एक ही उम्मीद लिए जागती।
और सबको बार बार कहती कि,
"देखना.. अम्मा को कुछ नहीं होगा। वह तुम बिल्कुल ठीक हो जाएगी।!"
और उसकी इस बात पर कई बार उसकी भाभियाँ भी उसे छेड़ देती कि,
" बार-बार कहने से कहा हुआ वह सच थोड़ी ना हो जाता है? "
ऊपर से...
"अम्मा इतनी कमजोर हैं कि उनका बचना मुश्किल है…और काव्या का पागलपन देखो... यह बिल्कुल गोबर में घी मिला रही है। भला कैसर के बाद अम्मा का शरीर कभी पहले की तरह चल पाएगा?"
पर काव्या पर एक जुनून सवार था। उसे कैसे भी अम्मा को ठीक करना था।अम्मा की आंखों में एक सपना दिया उसने कि,
" वह अपने नाती पोतों को खिलाएगी …और सब की फेवरेट नानी और दादी बनेगी!"
धीरे-धीरे अम्मा की तबीयत में सुधार होने लगा था। उम्मीद की एक पंक्ति ने उनके जीवन में रक्त का नया संचार किया था।और आशा की किरण जगाई थी कि,
"अम्मा!तुम पहले से भी ज्यादा स्वस्थ हो जाओगी!"
और सच में कुछ महीनों में अच्छे खान-पान से और अच्छे इलाज से अम्मा शकी बीमारी तो ठीक हुई ही।वह पहले से भी स्वस्थ होने लगीं।
इस बीच सुरेश जी ने कुछ खेत बेंच दिए। मकान गिरवी रख दिया। लेकिन अंततः अम्मा स्वस्थ होकर घर आ गईं।
और...काव्या की कही हुई बात सच हुई,
"अम्मा! तुम बिल्कुल ठीक हो जाएगी!"
अब दोनों भाभियों का भी मुंह बिल्कुल बंद हो चुका था। जो काव्या को यह कहकर उसका मनोबल कम करती थी कि,
" बार-बार कहने से कहा वह सच थोड़ी ना हो जाता है!"
अगर किसी में लगन हो, मेहनत हो और कोई किसी से सच्चा प्यार करता हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। सावित्री सत्यवान तो पति-पत्नी की कहानी थी। यहां एक बेटी ने अपनी मां को अपने अथक प्रयास से और लगातार सेवा से मौत के मुंह से वापस ले आई थी।
कमजोर सी दिखनेवाली माँ अब धीरे-धीरे ताकतवर हो रही थी। और जिंदगी की और उनके कदम पहले से ज्यादा तेज चलने लगे थे।
क्योंकि उन कदमों के साथ कदम मिलाकर चलने वाली उनकी बेटी काव्या हमेशा उनके साथ खड़ी थी। वह काव्या को सदा एक ही आशीर्वाद देती थी कि,
"सदा ख़ुश रहो बेटा! भगवान ऐसी बेटी सब को दें!"
काव्या की सकारात्मक प्रवृत्ति और लगातार सेवा से आज मां खड़ी हो गई थी। और जब एक मां अपनी बेटी के साथ कदम मिलाकर चलती है तो...
दोनों अपने आप में पूरे हो जाते हैं।
(समाप्त)
