मन का भय
मन का भय
पाँचवीं कक्षा तक पढ़ी लिखी कमला के मन में चल रही उथल पुथल अनजाने भय को और बड़ा कर रही थी। हर बार तो बच्चों की फीस बैंक में उनके पापा खुद ही जमा करवाते है मगर आज वो शहर से बाहर है तो ये काम उसे ही करना होगा।
मैं तो आज तक बैंक नहीं गयी, क्या होगा वहाँ पर? मैं नहीं कर पायी तो सब हँसेंगे तो नहीं। बार बार भय नये सवाल के रूप में सामने आकर उसे ओर ज्यादा भयभीत कर रहा था। बैंक समय पर वह सकुचाती हुई सी बैंक में दाखिल हुई। भीड़ देखकर पैर वापस मुड़े मगर गेट पर खड़ा गार्ड कहीं हँस न दे, सोचकर कुछ देर वहीं रुकने का मन बनाया। मन कड़ा करके पास खड़े एक युवक से पूछा "भाई साहब यहाँ फीस कहाँ जमा होगी ? "वहाँ से पीले रंग वाला फार्म लेकर भर लेना, फिर दूसरे नम्बर वाली खिड़की पर चली जाइयेगा, वहीं होगी" युवक बोला। "ये वाला" हाथ में पीला फार्म लेकर उसने पूछा। "यह पीले रंग का है तो यही होगा न!!" युवक ने इस बार कुछ खीझ के साथ कहा। वातानुकूलित परिसर में भी आ रहे पसीने को पल्लू से पोंछकर साथ लायी पुरानी रसीद देखकर उसने फार्म भरा और खिड़की पर गयी, बारी आने पर पैसों के साथ फार्म अंदर देकर वापस मुड़ी तो कैशियर ने मुस्कराते हुए कहा "मैडम, रसीद तो ले लीजिए।" आने वाली साँस को अंदर ही अंदर गटकते हुए उसने रसीद लेकर पूछा" जी हो गयी फीस जमा?" "हाँ जी, हो गयी।" स्वीकृति मिलते ही जंग जीते हुए सिपाही की मानिंद वह बैंक से बाहर निकली। सहसा एक आवाज सुनकर रुकी। "बहनी, यहाँ फीस कहाँ जमा होगी" उसके जैसी ही एक औरत ने पूछा, जो शायद पहली बार बैंक आयी थी। "सामने से पीला वाला फार्म लेकर, दूसरे नम्बर की खिड़की पर चले जाना" वह मुस्करा कर बोली।