Rajyavardhan Singh Soch

Abstract

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Rajyavardhan Singh Soch

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महीना बनाम पीरियड

महीना बनाम पीरियड

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पूरा आंगन औरतों से भरा पड़ा था। एक ओर गेंहूँ को फटका जा रहा था। एक ओर पाँव में महावर लग रहे थे।

कोलाहल जारी था कि अभिधा अपने साजो-सामान के साथ आँगन में आ धमकी।

"अरे अभिधा! मेरी लाडो" पाँव में महावर लगवाती वर्तिका दौड़कर उससे गले लग गयी। पूरे डेढ़ सालों के बाद अभिधा घर आयी थी, उसकी बड़ी बहन वर्तिका की पन्द्रह-बीस दिनों में शादी थी।

"तो छुट्टी मिल गयी मैडम को" माँ ने उसे प्यार से झिड़कते हुये कहा।

"माँ... तुमको पता तो है न काॅलेज का हाल..." अभिधा गर्दन पकड़कर झूल गयी।

"अच्छा चल। ई प्यार बाद में दिखाना। अभी कपड़ा बदल कर आ अऊर दीदी के पास बइठ" माँ ने कहा और अभिधा अपने चिर-परिचित कमरे में बढ़ गयी जो उसका और उसकी दीदी का था।

थोड़ी देर बाद ही अभिधा बाहर आयी और निगाहें माँ को खोज रही थीं। वर्तिका ने इशारे से पूछा तो वह पास गयी और धीरे से उसे बताया ताकि और महिलायें अपना काम करती रहें।

वर्तिका थोड़ी परेशान दिखी। अभिधा माँ को ढूंढ़ती, ओसारे की ओर बढ़ गयी।

"माँ, सुनो!"

"का है रे। जल्दी बोल। बहुत काम है" माँ ने पूछा।

"मुझे पैड चाहिये।" अभिधा ने माँ से कहा।

"पैड! ई का होता है?" माँ अपने काम में लगी थी।

"माँ; मेरा पीरियड चल रहा है, मुझे पैड बदलना है और मैं लाना भूल गयी।" अभिधा खिसियाई-सी बोली।

"पीरियड...ऽ!" माँ ने सवालिया निगाह मारी। फिर अभिधा को अपने पेट पकड़ देख उसके चेहरे पर देखा और धीरे से बोली;

"महीना शुरू है! और तू इतना तो जोर से बोल रही है। कुछ शरम-वरम है कि नहीं?"

"माँ... इसमे शरम कैसी। पीरियड है और मुझे पैड..." वह और कुछ कहती कि माँ उसे भीतर आँगन में खींच ले गयीं, जहाँ बस महिलायें थीं।

उसे ऐसा खींचता देख पड़ोस की चाची ने पूछ लिया "अरे जीज्जी, का हुआ?"

माँ चुप रहीं लेकिन अभिधा बोल पड़ी; "पीरियड चल रहा है चाची। माँ से पैड माँग रहे थे तो कह रहीं धीरे बोल।"

"पीरियड...ऽ!" चाची ने भी सवालिया निगाह से देखा।

"अरे महीना शुरू है इसका। पता नहीं का पैड-वैड माँग रही है। लाज-शरम हइये नहीं जइसे। दुआरे तक जा खड़ी हुई।" माँ भुनभुनाते स्वर में बोलीं और पूरा आंगन अभिधा को देख रहा था।

"लो भइया। जीज्जी की बिटिया का पीरीयड आता है, हमारे तो महीना आता था। अरे! जीज्जी, कवनो कपड़ा दे दीं" चाची फिर बोलीं और हँस पड़ीं।

"कपड़ा! सच में!" अभिधा बिफर गयी।

"काहे बिटिया! कपड़ा में का दिक्कत है?" दूसरी महिला ने पूछा।

"अरे इनके ऊ टीवी वाला पैड चाहिये" किसी और कहकर ताना कसा।

"दिक्कत आप सबकी सोच में है। मेरा पीरियड है, मैं पैड बोल रही हूँ, आप लोग कपड़ा थमा रही हैं।" अभिधा बोली।

"ई देखा बहिनी। तनिक शहर में रहने लगी, कालेज पढ़ रही तो बतकही सुनो। हम लोगों का सोच खराब है। कपड़ा लगाने की बात पर ऐतना पंचायत। बहिनी हमारे भी महीना बैठता था, हमने तो कपड़े से ही बीता लिया। हम सबों की बिटिया भी हैं। लेकिन तनिक भी शरम नहीं ई लड़की में।" चाची ने कहा।

"हाँ, हमारी तो बिटिया लोग भी नहीं माँगती पैड-वैड। कैसे कहें कि महीना चल रहा है और खुद लेने जायें तो दुकानदार मरद। अब ऐतना बेशरम कौन लड़की होगी जो गैर-मरद से कहे कि हमारा महीना चल रहा। हमारा कपड़े से बीत गया, हम सबकी बिटिया भी कपड़े से ही बीता रहीं। आँगन के दूसरे कोने से किसी ने कहा।

"तो आप सब कपड़ा यूज करती थीं तो मैं भी करूं! आप सब घुट के रहती हैं तो मैं भी रहूँ और आप सबकी ही तरह मर..." अभिधा चुप हो गयी। पिताजी दरवाजे पर खड़े थे।

"का शोर हो रहा है?" उन्होने गुस्से में पूछा। फटाफट कितनों के घूंघट निकल आये।

"आप ही की बिटिया है पूछिये। ऐतना कहे कि शहर पढ़ने मत भेजिये। ऊ भी तो बिटिया है, ऊ तो नहीं गयी शहर" माँ ने वर्तिका को देखा और फिर अभिधा को "इसको भेज दिये आप शहर, चार हाथ की जुबान ले आयी है।" माँ ने भुनभुनाती बोलती गयीं।

"का बात है अभिधा!" पिताजी की आवाज में अब भी रोष था।

"पिताजी... हमारा..." अभिधा ने माँ को देखा, उनकी निगाह उसे ही घूर रही थीं, जैसे जुबान खुली नहीं और वह उसे भस्म कर देंगी।

"का?" पिताजी की निगाह अभिधा पर जम गयी।

"वो... हमारा पीरियड है पिताजी और पैड नहीं तो उसी के लिये बोले माँ से और माँ फिर..." अभिधा चुप हो गयी और माँ जैसे जलते तवे की भाँति हो चुकी थीं। महिलायें अवाक-सी अभिधा को देख रही थीं। वर्तिका भी सन्न थी। उसे तो कभी पिताजी के सामने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं हुई थी और अभिधा ने तो...

"बेशरम कहीं की..." माँ गुस्से से हाथ उठाने को हुई कि पिताजी ने उन्हे रोक दिया।

"अइसा का बोल दी है! हाँ! गलत का है इसमें? इसको जो जरूरत है ऊहे न माँग रही है। कितना समस्या होता है पता है न तुम सबको... महीना हो या पीरियड। ऐतना सीरियल देखती हो सब, प्रचार नहीं देखती। ऐतना बताया जाता है कि तरह-तरह का बीमारी फैलता है। हद है एकदम..." पिताजी दरवाजे से ही गुस्से में बोले फिर अभिधा से "हम जा कर ले आते हैं बिटिया।" कहते हुये बाहर चले गये और अभिधा अपने कमरे में। लेकिन आंगन में पहले-सा कोलाहल नहीं था... स्वर बदल गये थे।

"हाँ; बहिनी बतिया तो ठीक ही है। कितना बार इनफेशन होता था।"

"हमरे सुरभिया के तो लेडीज डाॅक्टर को दिखाना पड़ा था।"

"अरे कपड़वा से दाग भी पड़ जाता है। सुना है ई पैडवा से दाग-वाग नहीं पड़ता है।"

कमरे में अभिधा मुस्कुरा पड़ी। उसे कमर में अभी भी दर्द था लेकिन उतना टीस नहीं रहा था।


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