मेरी नानी की पसंदीदा कहानी

मेरी नानी की पसंदीदा कहानी

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खूबसूरत पोश कॉलोनी में बने ये 

डुप्लेक्स और इनमें रहने वाले अमूमन  रिटायर्ड या अधेड़ दंपति मात्र, नहीं कुछ जवान जोड़े भी रहते हैं, कुछ संयुक्त परिवार भी बसते हैं! मगर नानी के पास-पड़ोस में रहने वाले अधिकतर लोग साठ वसंत पार कर चुके हैं। सबके बच्चे दूर रहते हैं। कभी माता-पिता कुछ दिनों के लिए बच्चों के पास रह आते हैं, मगर अधिकतर इन लोगों को बेसब्री से इंतज़ार रहता है बच्चों की छुट्टियों का। कब बच्चे आयेंगे, कब उनके बच्चों की शैतानियां घर को सर पर उठा लेंगी।


हम नानी के यहां जब आते हैं तो घर के सारे कमरों में से हमारा पसंदीदा कमरा तो नाना - नानी का बैडरूम ही होता है। उनके बेड पर आड़े तिरछे एडजस्ट करेंगे, कैसे भी, मगर दिन भर दूसरे कमरों में शायद ही बिना धकेले अपने मन से जाते।


नानी से छेड़छाड़ भी चलती रहती है, "नानी, अपनी शैतानी की कोई मजेदार बात बताओ।" नानी कहती, “बच्चों, मज़ेदार है या नहीं ये तो तुम लोग बताओगे, हां, एक किस्सा सुनाती हूं।" और नानी शुरू हो जाती।


ये क़िस्से उनकी खुद की ज़िंदगी के ही पन्ने होते जिन्हें, वे पलटती।ज़िन्दगी की धूल नहीं जमने दी इन पन्नों पर। उनके भोगे हुए एक - एक क्षण को सुनने वाले भी भोगने लगते। क़िस्सा खत्म होने पर वे कहते, “इसमें फलां- फलां आप ही थीं न?"

कई बार वे बच निकलती मगर अक्सर पकड़ी जाती। हम बड़े हो रहे थे!


इस बार का क़िस्सा कुछ यूं शुरू हुआ, "एक बार की बात है, एक घर में दो बहनें अपने बाबूजी के साथ रहा करती थीं। बड़ी बहन के लिए रिश्ता तलाशा जा रहा था। अच्छा घर और वर मिलते ही झट मंगनी, पट शादी हो गई। दीदी हो गई पराये घर की।अब घर पर रह गई विनी और बाबूजी।

अच्छी बात तो यह थी कि दीदी उसी शहर में थीं और हफ्ते में एक बार चक्कर लगा लेती थीं। मगर चार महीनों के भीतर ही जीजाजी की ट्रांसफर हो गई। अब विनी को पीछे अकेले तो नहीं छोड़ा जा सकता था।बाबूजी थे, मगर वे दिन भर तो घर पर नहीं रहते न। विनी ने उसी वर्ष हाईस्कूल किया था। दीदी बाबूजी को किसी तरह मना कर विनी को अपने साथ ले गई काश्मीर, जहां जीजाजी की ट्रांसफर हुई थी।

यहीं विनी का कॉलेज में एडमिशन करवा दिया गया। उसने फर्स्ट ईयर बीए किया। सेकंड ईयर शुरू हुआ। तीन ही महीने बीते थे कि बाबूजी का संदेश मिला कि विनी के लिए बहुत अच्छा लड़का मिला है और कि विनी को फ़ौरन भेज दें। लड़का उसे देख ले, तो बात पक्की हो। 


दीदी की डिलीवरी हुए कुछ ही समय बीता था, विनी को छोड़ने कौन जाता? लिहाज़ा जीजाजी ने उसे दिल्ली जानेवाली बस से रवाना कर दिया। दिल्ली में उसके चाचा जी रहा करते थे। तय रहा कि वे विनी को दिल्ली उतार लेंगे। आगे फिर वहां से वे उसे वडोदरा की ट्रेन में बैठा देंगे। ये और बात थी कि ना तो विनी ने पहले कभी चाचा जी को देखा था और ना उन्होंने विनी को। विनी के जीजाजी उसे चाचा जी का एड्रेस देना भी भूल गए। उन दिनों संपर्क का साधन केवल डाक हुआ करती थी। जब आप यात्रा कर रहे हो तो संपर्क हो ही नहीं सकता था। विनी तो बस में बैठी उस हैंडसम युवक के सपने देख रही थी, जिसकी फोटो दीदी ने उसे दिखाई थी। मन ही मन डर भी रही थी, रिजेक्ट न कर दे। बस चली जा रही थी, साथ में कुलांचे भर रहे थे विनी के हज़ार सपने!


उसे तो खबर ही नहीं कि उसकी बस काफी लेट चल रही है और गंतव्य पर भी देर से पहुंचेगी। न उसे भान था कि उसके पास चाचा जी का एड्रेस भी नहीं है। इसमें उसका कोई दोष भी नहीं था। वह थी महज़ सोलह साल की। अभी पिछले महीने ही पंद्रह पूरे किए थे। इधर जब दिल्ली बस डिपो उसे चाचाजी रिसीव करने पहुंचे तो उन्हें डिपो से सूचना मिली कि आखरी बस जा चुकी है, और कि दूसरी बस तो सुबह 4:00 बजे आएगी। चाचा जी को शायद उनकी सिक्स्थ सेंस ने ही डिपो रिकॉर्ड को भी झुठलाने का साहस दिया। वे उसी सेंस और अज्ञात विश्वास के साथ वहीं इंतजार करने लगे। डेढ़ दो घंटे वे वहीं उद्विग्न टहलते रहे।आखिर  बस पहुंची। बस से उतरने की हर एक को जल्दी थी।


बस के रुकते ही चाचा जी ‘विनी, विनी’ पुकारने लगे, और विनी बस में से ‘चाचा जी - चाचा जी।’ यही एक संबोधन ही तो उन्हें एक-दूसरे से मिला सकता था। वह सबको धकियाती हुई नीचे उतरने लगी, लगातार ‘चाचाजी-चाचाजी’ पुकारती और वे ‘विनी, विनी।’


नीचे उतरते ही उन्होंने विनी को डिपो वालों की गैरजिम्मदाराना हरक़त के बारे में हैरानी से बताया कि कैसे उन्हें कहा गया था कि बस जा चुकी है, यदि वे चले जाते, तो विनी घर कैसे पहुंचती, वह भी अकेली इतनी रात में? एड्रेस के सहारे तो दिन में भी दिल्ली में मकान ढूंढ़ लेना आसान नहीं।


तब विनी को अचानक ख्याल आया कि एड्रेस भी तो कहां था उसके पास?  जैसे ही उसने उन्हें यह बताया कि एड्रेस तो उसके पास था ही नहीं, वे झटके से रुक गए,पूछा,"क्या ?"

उन्होंने जीजा जी को बहुत खरी-खोटी सुनानी शुरु की।


जीजाजी एक प्रशासनिक अधिकारी थे। उन्होंने कहा ,"इतने बड़े ओहदे पर बैठा एक व्यक्ति इतनी अहम बात को कैसे भूल सकता है? अगर मेरे मन की बात सुनकर मैं न रुक जाता तो तुम्हारा क्या होता? मैं खुद को और भाई साहब को क्या जवाब देता?” वे विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि इतनी बड़ी गलती कोई कैसे कर सकता है, और वह भी तब जब मामला एक लड़की का हो। 


मगर विनी की उम्र उस समय इन बातों को गंभीरता से सोचने की थी ही नहीं। वह तो बस खुश थी कि चाचा जी आ गये हैं, अब चचेरे भाई - बहनों के साथ यहां तीन-चार दिन रहेगी। दिल्ली घूमेंगी-फिरेंगी और फिर उस अनजाने राजकुमार से उसका साक्षात्कार कराया जाएगा।’


नानी कुछ देर चुप हो गई और हमने झकझोरते हुए पूछा, "कहां खो गई थी आप ?" और वे मानो बुरे सपने से जागी हों बोलीं, "सोचो, अगर आज का दौर होता, विनी के चाचा जी डिपोद्वारा मिली सूचना के बाद घर चले गए होते ? या बस रुकने पर

भीड़ में से कुछ और लोग भी विनी, विनी पुकारने लगते? या जो व्यक्ति विनी, विनी पुकार रहा था, वह उसके चाचा जी ना होते ?

वह सही सलामत हाथों में पहुंच गई थी, वरना...? 

नानी सुनाते - सुनाते फिर कहीं खो गई, हमने देखा नानी के झुर्रिदार हाथों के रोंगटे खड़े थे।


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