मेरी ईर्ष्या की सीमा
मेरी ईर्ष्या की सीमा
छाती भारी है और हृदय में लगी हुई आग किसी गैस या एसिडिटि का असर नहीं है। ये है जलन, मन को बोझिल करती, तपाती ईर्ष्या। बड़े दिन हुए बाद आज किसी पुरानी सहेली से बात हुई। बात की शुरुआत मैंने ही की, हाल चाल से, परिवार से, व्यवहार से व्यापार तक, लेकिन जब बात आमदनी पर आ पहुंची, और सामने से बेझिझक अपनी मासिक सैलरी की घोषणा की गयी तो अन्तर्मन तिलमिला उठा। मुझे गलत न समझिए, मैंने अपनी दोस्त का बुरा कभी नहीं चाहा बल्कि हमेशा से इच्छा रही कि उनकी पारिवारिक स्थिति दुरुस्त हो जाए, आज वह इस मुकाम पर है और मुझे इस बात कि खुशी हुई, ये मेरा मन भलीभाँति जनता है। पर मेरी परेशानी का कारण यह है कि इस तरह जलन का भाव मेरे मन में कहीं था, इस बात से मुझे स्वयं बहुत हैरत हुई, और मेरे चिंतन का सबब ये है कि इस जलन ने उस खुशी को पूरी तरह किसी कोने में धकेल दिया।
अब आप सोचेंगे कि दोनों तरह के भाव एक ही कारण से किस तरह उठ सकते हैं और शायद खुशी होने कि बात केवल ढोंग की बात है पर आपको आश्वासन दिला दूँ कि यहाँ कोई ढोंग नहीं है। पर इस परिस्थिति ने न केवल मानव मन कि विकटता को जिसके बारे में अब तक बस पढ़ा-सुना था मेरे सम्मुख खड़ा किया, इसने मेरे चरित्र के उस छिपे स्वरूप को मेरे आगे रखा जिसे मैंने हमेशा ओछे व्यक्तियों कि थाती समझ, स्वयं को उनसे ऊपर जाना था ।
मन क्यों इस ईर्ष्या से विषादित है और क्यों मेरी इच्छा के विरुद्ध जाता है? इसका कारण क्या इतना सहज है कि मानव मन को अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों कि तरक्की से सबसे ज्यादा पीड़ा होती है या उसे इस बात का भय ज्यादा है वह भौतिकता और पूंजीवाद कि दौड़ में उन ही लोगों से न पिछड़ जाय जिन्हें वो बराबरी का या अपने से निम्न मानता रहा। या वह इस भाव से डरता है कि आगे निकले ये लोग उसे हीन समझें और उसका त्याग न कर दें । तरक्की के साथ- साथ आपकी आदतें, आचार-विचार बदलते हैं, और इसके साथ बदलती है आपकी संगति और मनोदशा । मैंने बिरले ही देखें हैं जो धन के साथ और इसके बावजूद मन कि निरंतरता बनाए रखते हैं । आज के समय में मैं इन्हें महापुरुषों कि श्रेणी मैं रखती हूँ, फिर भले ही ये लोग लाख बुरे काम करें । पर ईर्ष्या के भाव का कारण अभी भी मेरी समझ से परे है | डर का भाव तो डर का भाव है, ईर्ष्या का भाव तो डर से कहीं अधिक निंदनीय है क्योंकि ये मानव की वीभत्सता को कहीं व्यापक रूप में सामने लाता है। तो क्या ईर्ष्या डर से इतर मन में नैसर्गिक रूप से वास करती है ? क्या जानवरों में भी ये भाव इसी रूप में रहता है ? आप कहेंगे कि हमने ये जरूर सुना-देखा है पर उनका इसी तरह का कोई व्यवहार क्या उनकी सरवाइवल वृत्ति (अपना जीवन और स्थान बनाए रखने कि चाह) से हटकर है ? शायद जानवरों कि ईर्ष्या, इन्सानों की उस तरह कि ईर्ष्या कि तरह है जो किसी के रूप को, किसी के प्रेम को देख होती है । किसी की प्रगति से होने वाली ईर्ष्या क्या इस तरह की ईर्ष्या से भिन्न नहीं है?
प्रगति से प्रतिद्वंदिता की बात आती है, प्रतिस्पर्धा की बात आती है । और सतही तौर पर भी देखें तो ये प्रतिस्पर्धा उसी सरवाइवल इन्स्तिंक्ट का क्या बदला स्वरूप ही नहीं है जो कभी जीने की, प्राण रक्षा की प्रतिस्पर्धा थी ? आज प्राणों को भय नहीं तो वही भाव जीवन सँजोने की, जीवन को बेहतर करने की प्रतिस्पर्धा बन चुका है, क्रम-विकास ने उस भाव को इस तरह परिणत कर दिया है जिसका मापक सामाजिक स्थिति और धन बन चुके हैं । यदि इस तरह से देखा जाये तो प्रतिस्पर्धा की भावना प्राणों की रक्षा के संघर्ष की एक सकारात्मक परिणति है और ईर्ष्या उसी भावना का नकारात्मक रूप में परिवर्तन। अगर अपनी ही दशा पर गौर फरमाया जाये तो हमारी आमदनी अपनी सहेली से कम नहीं । लेकिन कुछ वर्षों पूर्व कोई आस पास का हमसे होड़ में न था और अपनी इस सहेली से तो मीलों कदम आगे थे और तब अपने ग्रुप में हमारी धाक थी और लड़कियों से उसी तरह का सम्मान भी । अब यदि ईमानदारी से आज की भावनाओं का विश्लेषण किया जाये तो गम इस बात का नहीं है कोई बेहतर कर रहा है, गम इस बात का है हम अपने बेहतर से कुछ कम कर रहे हैं, गम इस बात का है कि बीते कुछ वर्षों में क्यों अपने कदम धीमे कर दिये ? और डर इस बात का है कि वे लोग जिन्हें हमसे ये उम्मीद थी कि हम बेहतरीन करेंगे केवल निराश होकर रहेंगे । संकोच इस बात का है कि हम उस तरह खुलकर अपनी तनख्वाह का जिक्र नहीं कर सकते कि कहीं सामने वाले पर अपना असर कम न हो जाय । अपने आलस से, अकर्मण्यता से उपजी निराशा और अयोग्यता, उसे स्वीकार करने का संकोच, और छोटा हो जाने का डर मिलकर ये अजीब सा मिश्रण बनाते हैं जिसे हम बाहर नहीं उड़ेल सकते और ये अंदर ही अंदर ईर्ष्या रूपी विष बन जाता है जो हमें ही जलाता है और कहीं ना कहीं अपने दोषों के वास्तविक कारणों पर पर्दा डाल देता है । उस सहेली के सामने तो न सही पर अपने आप में इस तरह के भावों के शर्मिंदगी तो है पर क्या मानव मन में बैठी इस तरह कि ईर्ष्या इन्हीं कारणों में सीमित है ?
