मेरे साथ चलो – जब एक बच्ची ने चलने को कहा"
मेरे साथ चलो – जब एक बच्ची ने चलने को कहा"
बारिश हो रही थी — धीमी, सर्द और लगातार।
सड़कें गीली थीं, दुकानें बंद…
और मोबाइल की बैटरी 3% पर झपक रही थी।
मैंने शॉर्टकट लिया —
रेलवे लाइन के पीछे से, जहाँ झाड़ियाँ हैं, कीचड़ है…
पर रास्ता छोटा है।
अंधेरा था… लेकिन मैं जल्दी घर पहुँचना चाहता था।
जैसे ही मैं पुराने पीपल के पेड़ के पास पहुँचा —
मुझे एक हल्की सी सिसकने की आवाज़ सुनाई दी।
झाड़ियों के पास,
एक छोटी बच्ची बैठी थी — 6-7 साल की।
कपड़े गीले, बाल चिपके हुए…
चेहरा नहीं दिख रहा था — सिर झुका हुआ था।
मैं थोड़ा हिचकिचाया… पर रुक गया।
“क्या हुआ बेटा? तुम यहाँ क्या कर रही हो?”
मैंने पूछा।
उसने धीरे से सिर उठाया,
और मुझसे कहा —
“भैया… मुझे बस स्टैंड तक छोड़ दो। बहुत डर लग रहा है।”
मैंने इधर-उधर देखा।
सड़क खाली थी…
पास में कोई आदमी नहीं।
“ठीक है,” मैंने कहा।
“चलो, मैं छोड़ देता हूँ।”
वो उठी — चुपचाप।
मुझे उसका चेहरा साफ नहीं दिखा।
सिर झुका ही रहा।
हम दोनों चलने लगे।
बारिश थोड़ी तेज हो गई थी।
मैंने पूछा —
“तुम कहाँ रहती हो?”
उसने कहा — “बस थोड़ा ही और…”
मैंने पूछा — “तुम्हारे मम्मी-पापा?”
उसने कुछ नहीं कहा।
बस बोली —
“भैया, आप थक तो नहीं गए ना?”
अब मुझे अजीब लगने लगा।
हम 15 मिनट से चल रहे थे —
बस स्टैंड तो 5 मिनट के रास्ते पर था।
और फिर...
मैंने पीछे मुड़कर देखा —
हम उसी जगह पर खड़े थे जहाँ से चले थे।
वही झाड़ियाँ, वही पीपल का पेड़।
मेरे पैरों से जैसे ज़मीन खिसक गई।
मैंने कहा — “बस… अब मैं जा रहा हूँ।”
वो बच्ची चुप रही।
फिर धीरे से बोली —
“एक बार और चलो ना… इस बार आखिरी बार…”
अब मैं डरा नहीं था…
मैं जड़ हो गया था।
उसने मेरा हाथ पकड़ लिया —
बिलकुल बर्फ़ जैसा ठंडा।
और पहली बार मैंने उसका चेहरा देखा…
उसके चेहरे पर आँखें नहीं थीं।
बस दो गहरे काले गड्ढे…
मैंने एक झटका दिया और दौड़ पड़ा।
कीचड़, झाड़ियाँ, पानी — कुछ नहीं देखा।
जैसे-तैसे, किसी कॉलोनी के बाहर पहुँचा।
एक गार्डन में बैठा, हांफता रहा।
फोन देखा —
बैटरी खत्म थी… पर स्क्रीन पर कुछ लिखा था:
“अगली बार और जल्दी चलना…”
— 👧🏻
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