मेरे पापा - मेरी पहचान
मेरे पापा - मेरी पहचान
दोस्तों आप सब युवराज सिंह, मनीषा कोईराला, ताहिरा कश्यप इन सबको तो जानते ही होंगे। इन में से कोई बड़ा क्रिकेट खिलाड़ी है और कोई बॉलीवुड से जुड़ा शख्स।
आपको पता है इन सब में एक सामान्य बात क्या है? ये सब 'कैंसर सर्वाइवर्स' हैं। जी हां, इन्होंने कैंसर जैसी बीमारी से जंग लड़ी और जीती भी। और मैं दिल से इनकी हिम्मत और हौसले को सलाम करती हूं।
अब कहीं आप ये तो नहीं सोच रहे की यहां मैं इनकी ' कैसे जीती कैंसर से जंग ' यात्रा का वृतांत बताने वाली हूं। बिल्कुल नहीं और वो इसलिए क्योंकि ये लोग तो ठहरे ' सेलेब्रिटी'। इनके बारे में तो गूगल सब कुछ विस्तार से जानकारी दे ही देगा।
यहां मैं आपसे अपनी ज़िन्दगी के असली हीरो यानी कि मेरे पापा के बारे में बात करने वाली हूं।
कभी - कभी सोचती हूं की इतना फर्क क्यों? क्यों एक आम आदमी के संघर्ष की कहानी उसके और उसके परिवार की तकलीफों और आंसुओं में कैद हो कर रह जाती है और बड़े लोगों की कहानियां अखबारों की सुर्खियां बन जाती हैं।
दर्द तो दोनों को ही बराबर होता होगा ना। एक लम्बी लड़ाई दोनों ने ही लड़ी होगी, बस फर्क इतना है की 'सेलेब्रिटी ' ने ये जंग लड़ी और जीती पूरे संसाधनों के साथ और आम आदमी ने उन्हीं संसाधनों के अभाव में।
जवाब ढूंढ रही हूं... पर फिलहाल कहानी शुरू करती हूं। ये सिलसिला शुरू हुआ आज से करीब नौ साल पहले। हम 7 लोगों का एक बड़ा मध्यम वर्गीय परिवार था जिसमें मेरे मम्मी पापा, दादी और हम 4 भाई बहन थे। मेरे पापा ने बिजनेस में नुकसान होने के बाद घर के पास ही किराए की एक दुकान लेकर उसमें काम करना शुरू कर दिया था। मम्मी पास ही के सरकारी स्कूल में प्राइमरी की शिक्षिका थीं।
मेरी शादी हुए कुछ ही वक़्त हुआ था। उस समय मै दिल्ली के एक नामी स्कूल में रसायन शास्त्र (chemistry) पढ़ाया करती थी। मेरे स्कूल की छुट्टी होती थी 1.50 पर और 2 बजे तक मै स्कूल बस में बैठ जाया करती थी मेट्रो स्टेशन तक का सफ़र तय करने के लिए।
जैसे ही मोबाइल की घड़ी में 2 बजते, वैसे ही स्क्रीन पर फ्लैश होता - 'Papa calling'.
हर रोज़ पापा वहीं चार बातें करते - कैसी है, घर पर सब कैसे हैं, जॉब ठीक चल रही है ना, ख़ुश रह, अपना ख्याल रख।
ये सिलसिला काफी समय तक चलता रहा। इसी बीच कुछ वक़्त बाद मैंने कंसीव ( conceive) कर लिया और घर से दूरी ज्यादा होने की वज़ह से वो जॉब छोड़ दी।
ये बात है करीब मेरी प्रेग्नेंसी के छठे महीने की। हुआ ये की पापा जो पहले रोज़ मुझसे बात किया करते थे, उनके फोन आने बंद हो गए।
घर पर जब भी मम्मी से इस बारे में पूछती तो वो भी टाल देती ये कहकर कि तू बस अपना ध्यान रख हमारी फिक्र छोड़ दे। मम्मी की कांपती आवाज़ से ये तो अंदाज़ा लग गया था कि कुछ तो है जो सब मुझसे छुपा रहे हैं। एक दिन मेरे ज्यादा जोर देने पर बात करते करते मम्मी के मुंह से निकल ही गया कि कैसे करें तेरे पापा तुझसे बात, उनकी आवाज़ चली गई है। तेरे पापा को आखिरी स्टेज वाला गले का कैंसर(Throat cancer) है।
कैंसर वो भी आखिरी स्टेज!
कैसा महसूस कर रही होगी एक बेटी उस वक़्त..
हां इससे पहले पापा को कान में तकलीफ होती थी। उनका कान काफी ज्यादा बहने लगा था, पर कैंसर.....
खैर इसके बाद शुरू हुई एक मध्यम वर्गीय परिवार के तकलीफों और संघर्ष की असली कहानी।
घर में दो बड़े बच्चे जिनकी अभी शादी होनी है।
एक बेटी जिसके होने वाले पहले बच्चे की गोद भराई, ससुराल वालों की मिलनी, बच्चे का छूछक और ना जाने उससे जुड़ी कितनी रस्में बाकी है।
( यकीन मानिए वो रस्में उस नाज़ुक दौर में भी समाज के तय नियमों के अनुसार निभाई भी गईं।
पता है, इतने सालों बाद आज भी जहन में ये ख्याल ज़रूर आता है कि क्या ही बिगड़ जाता उस वक़्त, अगर किसी की मज़बूरी समझ कर कुछ पुरानी परंपराओं में थोड़ा सा बदलाव कर लिया जाता?कितना अच्छा होता अगर खुशियां भी दर्द और आंसुओं की तरह दिखावे से ज्यादा दिल की होती)।
हर वक़्त यही चिंता कि कैसे होगा सब कुछ।कुछ कमी रह गई तो?
इन सब बातों की वज़ह से घर में तनाव का माहौल रहने लगा। पर वो कहते हैं ना कि जब अपने साथ होते हैं ना तो इंसान ज़िन्दगी की बड़ी से बड़ी चुनौती का भी सामना कर लेता है। उस वक़्त मेरी मम्मी हमारे परिवार की कमाई की अकेली स्रोत थीं। उनका हर तरह से साथ दिया मेरी दादी, मुझ से बड़ी दीदी( जिनकी पहले ही शादी हो चुकी थी )और मेरे छोटे भाई बहन ने।
शुरू हुआ डॉक्टरों के चक्कर लगाने का सिलसिला। प्राइवेट इलाज करते करते जब कुछ फर्क नहीं पड़ा तो AIIMS तक पहुंच गए। यहां शायद हमारी किस्मत अच्छी थी। क्योंकि मेरे पापा का केस काफी जटिल था,तो उसे एक प्रशिक्षित डॉक्टरों की टीम ने खुद अपने हाथ में ले लिया। इलाज कैसे शुरू किया जाए, इस पर डॉक्टरों की बैठकें होने लगीं। इनमें कभी कभी पापा और भाई को भी बुलाया जाता था आगे का इलाज समझाने के लिए। कुल मिलाकर पापा इस बीमारी के प्रयोग का हिस्सा बन गए थे।
इधर मेरा सातवां महीना शुरू हो गया था और उधर पापा की बायोप्सी(Biopsy) और कैंसर की दवाइयां। ये सब कुछ अभी यहीं खत्म नहीं हुआ। डॉक्टर्स के अनुसार इलाज उस तरह असर नहीं कर रहा था जैसे होना चाहिए था। एक बार फिर से बायोप्सी की गई। इस बार कान के पीछे से और गहरा घाव करके मांस का टुकड़ा निकाला गया और दुबारा से जांच के लिए भेजा गया।
इन सबके बीच पापा का वज़न करीब 38 किलो रह गया था। मेरा भाई उनको अपने कंधों का सहारा देकर चलाता था- रोजमर्रा के कामों के लिए, डॉक्टरों के पास ले जाने के लिए।
खैर कुछ दिनों में वो आखिरी रिपोर्ट भी आ गई। उनको कैंसर के साथ टीबी (TB) भी थी। डॉक्टर्स ने मेरे भाई को बुलाया और बोले - माफ़ करना बेटा हमें नहीं पता की आपके पापा के पास कितना समय और है। 10-15 दिन या कुछ महीने। इससे पहले कि कोई आगे कुछ कहता, पापा ने कहा - मरना तो सबको ही है डॉक्टर साहब, इसमें घबराना कैसा। हम संभाल लेंगे खुद को। आप बस कुछ इलाज़ हो तो बताइए। पापा की ये मनोबल और दृढ़ इच्छा शक्ति देखकर डॉक्टर ने बताया कि कैंसर के इलाज़ के लिए तो आपको रेडिएशन थेरेपी दी जाएगी और साथ ही गले में खाने पीने के लिए एक नली डाली जाएगी। पर उसके साथ आपका टीबी का इलाज़ भी शुरू करना होगा। टीबी की दवाइयां बहुत हाई पॉवर की होती हैं और हम नहीं जानते कि इस हालत में आपका शरीर इन दवाओं को पचा भी पाएगा या नहीं।
आप सोचकर देखिए कि क्या बीती होगी मेरे भाई के दिल पर..
सारे सपने, महत्वाकांक्षाएं, प्लान धरे रह गए। यूं लगा जैसे तेज भागती जिंदगी की रफ्तार एकदम से धीमी पड़ गई हो और कोई तुमसे कह रहा हो कि बस ये सफ़र और ये साथ यहीं तक का था। एक तरफ मम्मी जो दमे(Allergy bronchitis) की तकलीफ से जुझ रही हैं और अब पापा..
भाई और पापा घर आ गए। बहुत मुश्किल था परिवार में सबको ये सच बताना और खुद को समझाना की ज़िन्दगी आगे और कितनी मुश्किल होने वाली है।
और फ़िर शुरू हुआ प्यार, हिम्मत, हौसले और दुआओं का सिलसिला। घर में किराए पर कफ़ को साफ करने वाली एक बड़ी सी मशीन लाई गई। पास के एक सरकारी अस्पताल से टीबी की दवाइयां लाई जाने लगीं। वो दवाई (जो खून की तरह लाल रंग की और ज़हर जैसी कड़वी होती थी), पीस कर गले में लगी नली के द्वारा पापा को दी जाती थी।
पापा ने भी एक दिन भी वो नियम नहीं तोड़ा और ना ही उम्मीद। (शायद कहीं ना कहीं पापा जानते थे कि उनकी सक्रात्मक सोच ही हम सबको इस कठिन दौर से लड़ने की ताकत दे सकती है)।
धीरे - धीरे दुआएं रंग लाई और पापा की टीबी ठीक हो गई। पर हां उनका कैंसर का इलाज़ जारी था।
इस बीच मैंने एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया। आज भी याद है मुझे वो दिन। अस्पताल में खुशी का माहौल था। मायके और ससुराल से लगभग सब आए थे मुझसे और बच्चे से मिलने। मैं भी बहुत खुश थी। पहली बार मां बनने का एहसास क्या होता है, उसे शायद यहां शब्दों में बयां ना कर पाऊं। पर साथ ही दिल में एक अजीब सा खालीपन , एक बेचैनी सी थी। मेरी नज़रें उस भीड़ में पापा को ढूंढ रही थी( ये जानते हुए भी कि वो नहीं आएंगे)। क्योंकि उस वक़्त वो बिना किसी सहारे के चल - फिर नहीं पाते थे और ना ही कुछ ढंग से बोल पाते थे।
वक़्त गुजरने लगा। ज़िन्दगी की गाड़ी फिर से पटरी पर आ रही थी। और ऐसे ही लगभग डेढ़ महीने बाद अचानक मेरे घर के दरवाज़े की घंटी बजती है। दरवाज़ा खोला तो देखा सामने पापा खड़े हैं, भाई के कंधों का सहारा लिए। मेरे बेटे को तस्वीरों में नहीं बल्कि अपनी नज़रों के सामने देखने, उससे मिलने आए थे। और पता है क्या, जैसे ही मैं पापा को अपने कमरे में लेकर गई, मेरे बेटे को देखकर पापा ने प्यार से बस उसकी अंगुलियों को ही छुआ (गोद में नहीं लिया इंफेक्शन के डर से) और उनकी आंखें गीली हो गईं। मेरे बेटे 'शिवांश' की उसके नानू से वो पहली मुलाकात मेरी ज़िन्दगी के कुछ सबसे प्यारे लम्हों में से एक है।
आज मेरा बेटा 8 साल का होने वाला है। काफी कुछ बदल गया है इतने सालों में। छोटे भाई बहन की शादी हो गई और बच्चे भी। इस बीच मम्मी को प्रधानाचार्य का पद भार संभालने का अवसर भी मिला। अभी दो साल पहले ही वो सेवानिवृत्त हुई हैं। दादी को पापा की बीमारी के कुछ समय बाद ही एक हाथ और पैर में लकवा मार गया था। और पापा...
पापा आज भी हमारे साथ हैं, उसी आखिरी स्टेज वाले कैंसर और गले में लगी उस नली के साथ ही। पर वो एक चीज़ जो इतने सालों में आज भी नहीं बदली वो है ज़िन्दगी की हर बड़ी से बड़ी चुनौती का डट कर सामना करने की मेरे परिवार वालों की ज़िद और उनकी हिम्मत।
जब से पापा की आवाज़ वापस आयी है ना, तब से लेकर अब तक जारी है उनका वो ही हम सबको रोज़ कॉल करके हाल -चाल पूछना। वो आज भी सुबह से लेकर रात तक भाई के साथ दुकान पर जाते हैं, ताकि मेरा भाई खुद को कभी अकेला या कमज़ोर महसूस ना करे। उनसे या दादी से कभी उदास होकर पूछ लो कि आप ठीक हो ना, तो हमेशा सामने से एक बुलंद आवाज़ सुनाई देती है - हम तो बिल्कुल सही हैं, हमें क्या हुआ है। बस तुम बच्चे खुश रहो और आगे बढ़ते रहो। हम भाई बहनों के बच्चों में जान बसती है पापा की। आज पापा उनकी फरमाइशें पूरी करने और शिकायतें सुनने वाले सबसे प्यारे दादू और नानू बन चुके हैं।
बस एक बात की कसक है मेरे दिल में कि काश उस वक़्त मैं भी उनके पास होती। पर वो कहते हैं ना कि भगवान जो करता है उसके पीछे कोई ना कोई कारण ज़रूर होता है। आज बेशक मै उनके और मेरे परिवार के संघर्षों की कहानी आपके साथ साझा कर रही हूं, पर उस वक़्त भी और आज भी मैं और मेरे घरवाले ये जानते थे कि मैं उनका ये दर्द बर्दाश्त नहीं कर सकती। मै उनके जितनी बहादुर नहीं हूं।
आज भी मम्मी, पापा और दादी की परेशानियों, उनकी हिम्मत और भगवान के प्रति उनके भरोसे को देखकर अक्सर मेरी आंखें भीग जाती हैं।
हां, मन में एक सुकून भी है कि खड़ा है ना पूरा परिवार एक दूजे का हर कदम पर साथ निभाने के लिए। सच में किस्मत वाले होते हैं वो लोग ,वो परिवार जिनके पास पैसा भले ही कम हो मगर रिश्तों में रूहानियत है।
इन्हीं रिश्तों को अपनी ज़िन्दगी का आधार मानती हूं और अपनों के लिए कुछ बड़ा कर गुजरने का सपना और जज्बा रखती हूं। फिर चाहे इसके लिए मुझे अपनी आंखों के ख्वाब बेचने भी पड़ें, पर उनकी खुशी से बढ़कर मेरे लिए और कुछ भी नहीं।
यही हूं मैं और इन्हीं से है मेरी यानी 'रिचा' की असली पहचान और उसका वजूद।
दोस्तों मेरी ये कहानी कोई सहानुभूति हासिल करने के लिए नहीं है। अपितु आप सबको ये एहसास दिलाने के लिए है कि अगर आपके अपने आपके साथ
हैं, उनका प्यार , उनका भरोसा आपके साथ है, तो दुनिया की कोई भी जंग आप हार नहीं सकते।
हम तो बड़े हो रहे हैं, पर इस भाग दौड़ भरी ज़िन्दगी में अक्सर हम ये भूल जाते हैं कि वो भी बूढ़े हो रहे हैं। अपनी इस कहानी के माध्यम से मैं आप सबसे बस ये आग्रह करना चाहती हूं कि अपनी इस धरोहर ( मां - बाप, दादा - दादी) को संभाल कर रखिए। क्योंकि इन्होंने भी कभी बसंत में छायादार पेड़ बन कर हमारे जीवन को खुशहाल किया था।