" मेरे मार्गदर्शक-मेरे पापा"
" मेरे मार्गदर्शक-मेरे पापा"
इन्सान के सफल होने के पीछे एक अच्छे मार्गदर्शक का होना ज़रूरी है। वो साथ हो न हो उसकी बातें मार्ग दिखाती जाती हैं। मेरे मार्गदर्शक 'मेरे पापा 'हैं।
मेरे 'पापा ' अनुशासन प्रिय, समय के पाबन्द , सख्त और कम बोलने वाले इन्सान थे। उन्होंने बी.एस.सी. (केमिस्ट्री ऑनर्स ) की पढ़ाई पूरी की । घूस की कमाई उन्हें पसंद नहीं थी । इसलिए अपने गाॅंव कोछोड़ तरक्की के ख्याल से जमशेदपुरआ गए ।वे बहुत अच्छे फुटबॉल प्लेयर थे । जिसका फायदा उन्हें अपनी नौकरी में मिली। वह अकेले नहीं आए अपनी बीवी के साथ में भाई, बहन ,माता , पिता सबको ले आए। एक नौकर भी आया था। अपनी
कमाई में सबकी देखभाल अच्छे से की। उन्हें पढ़ने - पढ़ाने का बहुत शौक था। पहले वे गाॅंव में, कुछ दिन शिक्षण संस्थान से भी जुड़े थे। पारिवारिक कठिनाईयों के बावजूद भी उन्होंने जमशेदपुर आकर उन्होंने ए. एम. आई . ई. का कोर्स किया और तरक्की पाकर ऊंचे ओहदे पर कार्य रत रहे। वे अपने उसूलों के पक्के तथा उनकी शिक्षा - दीक्षा का फल है कि मैं भारत के विभिन्न क्षेत्रों में एक शिक्षक के रूप में कार्यरत रही जो कि उनका सपना था।
हम तीन भाई हुए। तीनों की परवरिश उन्होंने अच्छे संस्कारों के साथ की । पढ़ाई के साथ कला में भी उनकी रुचि थी । वे तबला अच्छा बजाते थे। माॅं भी गाती थी। तब जमाने में उन्होंने मुझे कत्थक नृत्य की शिक्षा दिलवाई। क्यों कि ,मुझे नृत्य का बहुत शौक था। (आज भी है)छोटी थी तब तक तो ठीक था । थोड़ी बड़ी हुई तो लोग कहने लगे कि लड़की को डाॅंस सिखाना ठीक नहीं। पर पापा ने लोगों की परवाह न कर मेरी नृत्य शिक्षा जारी रखी । मैं स्कूल से और प्राइवेटली दोनों तरफ से स्टेज प्रोग्राम दिया करती थी।
जब मैं आठवीं, नौवीं में आ गई । तब मैं बाहर डाॅंस सीखने जाने से डरने लगी । पुलिया पर लड़के बैठ फिकरा कसा करते थे। कभी पीछा करने लगते थे सो, मैंने माॅं से कहा मैं डाॅंस नहीं सीखूंगी। माॅं ने जब पापा को यह बात बताया । तब पापा ने मुझसे कहा - जमाने से डरोगी तो आगे कैसे बढ़ोगी ? जाओ डाॅंस क्लास जाओ। बाहर के शोर से हाथी प्रभावित नहीं होता है वह अपना रास्ता चलता जाता है। इसी सीख से मैंने नृत्य में विशारद किया।
सुबह जल्दी उठना और रात को जल्दी सोना उनका नियम था। हम सब भी उसे पालन किया करते थे। पापा सुबह पौने पाॅंच उठते थे।हम सब को भी उठाया करते थे। उनके कहे मुताबिक सुबह ही हम सब पढ़ा करते थे। क्योंकि सुबह की पढ़ाई हमेशा याद रहती है। उनके फ्लश खींचने की आवाज़ से मैं उठ जाया करती थी। पापा तो नहीं रहे पर उनके फ्लश खींचने की आवाज़ आज भी कानों में गूॅंजती है। मैं सेवानिवृत्त होकर आज भी सुबह उठती हूॅं और लिखने - पढ़ने का काम किया करती हूँ। मेरे दो बच्चे हैं। बेटा, बेटी को भी मैंने यही आदत डाली। आज दोनों अच्छे ओहदे पर हैं।
शाम को छह से आठ हमारे पढ़ने का समय हुआ करता था। रात का खाने का समय साढ़े आठ बजे था। भाई अगर शाम को देर से घर आया तो पापा से पिटाई भी पड़ती थी। हम सब माॅं की मदद किया करते थे। खाने के टेबल पर गप्पेबाजी पापा को पसंद नहीं थी। खाने के बाद हम सब कहानी किताबें पढ़ा करते थे। पापा नंदन, चम्पक, धर्मयुग, अखबार मंगवाया करते थे। ताकि बाहरी खबर मिल सके। उसी समय माॅं भी आकर हमसे दिनभरकी बातें करती और सुनती थी । मैंने भी उनकी राह पर चलकर अपने घर पर भी एक बुक सेल्फ बनवाया। जिसमें विभिन्न प्रकार की किताबें सजी हैं। जिसका आनन्द मेरे बच्चों ने उठाया। आज भी उन्हें पढ़ने की आदत है।
स्कूली जिंदगी में कभी किसी विषय में कम नम्बर आने पर डाॅंट की जगह प्रोत्साहन दिया करते थे और कहा करते थे, आगे इतना मेहनत करो कि नम्बर अपने आप ही तुम्हारा मान बढ़ा जाय। मैंने इस पर पूरी तरह अमल किया।
आश्चर्य ये कि मुझे खाना बनाना भी पापा ने सिखाया। माॅं के ऑपरेशन के समय मददगार लोगों के होते हुए भी उन्होंने मुझे पराठा सब्ज़ी बनाना सिखाया। ताकि घर में कार्य का संतुलन बना रहे। टेढ़े - मेंढ़े पराठे देख मेरी मौसी की आंखों खुशी के आंसू छलक आए। अपने भी माॅं की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी। सुबह फ्लश के आवाज़ से उठकर पापा को चाय नाश्ता देने की ड्युटी मेरी थी। बाकी दिनभर की दिनचर्या में माॅं को हाथ बटाने का समय निश्चित था। सब काम समय पर हो इसका ताकीद पापा रखा करते थे।
दादाजी - दादी के सारे काम समय पर हो जाए । ये हम सब की जिम्मेदारी थी। टेल्को क्लब में पिक्चर देखने भी एक दिन हम भाई- बहन जाता करते थे तो एक दिन माॅं । ताकि दादा - दादी को कोई दिक्कत न हो ।
बचपन में मुझे खेलने- कूदने में बड़ा मन लगता था। एक दिन झूला झूलते वक्त मैं पापा को देख, बहुत ऊपर से कूद गई । मुझे लगा, पापा मुझे डाॅंटेंगे पर, उन्होंने डाॅंटा नहीं । कहा - बहुत हिम्मतवाली हो ।
उनका कहना था कि किसी बात पर यदि हम सही हैं तो उसे सही साबित करनी चाहिए । किसी से डरना या झुकना नहीं चाहिए। तभी हम आगे बढ़ सकते हैं।
शुरु में मुझे खाना बनाने में मन नहीं लगता था। मुझे याद है एक दिन माॅं ने मुझे गोभी की सब्ज़ी बनाने को कहा । मैंने बेमन से गोभी में पत्ते और डंडी मिलाकर हरी - हरी सब्ज़ी बना दी । माॅं ने कहा - ये कैसी सब्ज़ी बना दी । पापा बहुत बिगड़ेंगे। मैं छत पर चली गई। पापा ऑफिस से आए, खाना खाया तो, पूछा सब्ज़ी किसने बनाई है? माॅं ने कहा - नीमा ने। पापा ने कहा बुलाओ उसे । माॅं ने मुझे सामने पेश किया । मैंने तो पहले हो रोना शुरु कर दिया। पापा ने कहा - अरे रोती क्यों हो ? सब्ज़ी तुमने बहुत अच्छी बनाई है। तुम्हें इनाम मिलेगा। इसी तरह ट्राई करती रहो । खाना ही नहीं किसी कार्य में प्रयासरत रहोगी तो सफलता निश्चित है और मैं पढ़ाई तथा डाॅंस के साथ - साथ घर के कामों में भी माहिर हो गई। आज भी मैं अपने परिवार को नये- नये डिशेज बना कर खिलाती हूँ। बच्चों को बहुत पसंद आती है। बचपन में नृत्य का अभ्यास का नतीजा ये रहा कि विभिन्न क्षेत्रों में बच्चों द्वारा नृत्य प्रोग्राम दिलवाया। साथ ही ४७ ( 47) की उम्र में अपने स्कूल जहाॅं से मैं पढ़ी थी, वहाॅं स्टूडेंट्स रीयूनियन में कत्थक नृत्य का सोलो प्रोग्राम दिया और ५६ (56) की उम्र में जिस स्कूल में मैं पढ़ाती थी, बाल दिवस में अपना नृत्य प्रस्तुत किया। जो बच्चों के लिए प्रेरणा दायक था कि अभ्यास सही रहे तो समय और उम्र आड़े नहीं आती। इसके पथप्रदर्शक पापा ही रहे।
मैंने अपने दादा दादी की बहुत सेवा की है। क्योंकि, पापा भी अपने माॅं- पापा की बहुत ख्याल रखते थे ।दादी जी के देहांत के समय मैं बी. ए. पास कर चुकी थी। फिर भी मुझे डर लगता था । माॅं ने मेरे साथ सोना शुरू कर दिया। दो- तीन बाद पापा ने मुझे समझाया कि इतना डरोगी तो आगे जिंदगी कैसे जीओगी। हर जगह माॅं तुम्हारे साथ नहीं जाऍंगी। क्या पता तुम्हें आगे जिम्मेदारी अकेले ही सम्भालनी पड़ जाये। वाकई में ऐसा ही हो गया। शादी मार्केटिंग मैनेजर से हुई। जिनके लम्बे - लम्बे टूर हुआ करते थे । नतीजन मुझे घर परिवार बाहर - भीतर सब अकेले ही सम्भालनी पड़ी। मैंने अच्छे से अपने स्कूल , बच्चे, परिवार में सामंजस्य बनाए रखा । ये मेरे पापा के मार्गदर्शक का ही परिणाम है।
एक सबसे बड़ी बात सिखाई कि कोई छोटा नहीं होता सबकी इज्जत करनी चाहिए। मुझे याद है कि माॅं गाॅंव से नौकर को ' आप 'कहा करतीं थीं। हम बच्चे भी उन्हें आदर दिया करते थे। अगर कोई भी उनसे ऊॅंची आवाज़ में बात किया तो उसे सजा मिलती थी और माफ़ी भी माॅंगनी पड़ती थी। मैंने अपनी जिंदगी में इसका भी इसका ध्यान रखा। अपने नौकर को पारिवारिक प्यार दिया और दूसरे का नौकर मेरे घर आता तो उसे गेस्ट ट्रीटमेन्ट दिया।
ज़िन्दगी में कभी भी , कहीं भी कठिनाई महसूस हुई । पापा की बातें कानों में गूंजने लगते थे और मैं उस परिस्थिति का सामना आसानी से कर जाती। पापा की सीख थी - --- ' 'कठिनाइयां तो जिंदगी का हिस्सा होती हैं। ये तो साथ- साथ चलती ही हैं उनसे घबराकर जिंदगी में हताश नहीं होना चाहिए। ' आज भी घर में कठिन परिस्थितियां चल रही हैं। पर मैंने उससे निपटते हुए अपना दिनचर्या जारी रखा है। पापा का कहना था - लिखने - पढ़ने से दिल को सुकून मिलता है और उसी पर अमल करते हुए आज मैं लेखन के क्षेत्र में आगे
बढ़ रही हूँ। वे खुद भी हमेशा क्लब - लाइब्रेरी से किताबें लाकर पढ़ा करते थे।
आज पापा नहीं हैं पर यादों के रूप में पापा मेरे मार्गदर्शक के रूप में चल रहे हैं और सदा जिंदगी भर चलेंगे इसलिए रास्ता समतल हो या पथरीला
कोई चिंता नहीं.....
