" पाॅंव की थिरकन"
" पाॅंव की थिरकन"
' थिरकन ' शब्द दिल की धड़कन बनाए रखने में सहायक है। जहाॅं तक 'पाॅंव की थिरकन ' का सवाल है तो वह तो पूरे शरीर तथा जीवन को संगठित रखने में कामयाब है।
बचपन से ही मुझे 'थिरकने' का बहुत शौक था। पापा ने नृत्य शिक्षक रख दिया। नृत्य सीखने लगी। स्टेज प्रोग्राम स्कूल तथा प्राइवेटली दोनों तरफ से देने लगी। आगे बढ़ती गई। बहुत सारे पुरस्कार प्राप्त करते हुए , नृत्य में 'विशारद 'की शिक्षा प्राप्त की।
स्कूल की पढ़ाई खत्म कर काॅलेज में दाखिला लिया। उधर भी मेरे पाॅंव की थिरकन रुकी नहीं। समय आगे बढ़ता गया। मेरी शादी हो गई। पाॅंव की थिरकन मन में समा गई। उसकी जगह हाथों ने ले ली। घर के काम -काज में व्यस्त रहने लगी। बेटे के होने के बाद मैंने अपने बेटे के पाॅंवों में
थिरकन लाने लगी। जब मैं पटना डी.ए. वी स्कूल में हिन्दी शिक्षिका के लिए टेस्ट देने गई। लिखित परीक्षा के बाद जब मैंने अपने नृत्य के सर्टीफिकेट दिखाया तो मुझे नृत्य की परीक्षा भी देनी पड़ी। बहुत दिनों से छूटे हुए अभ्यास के बाद भी मेरे पाॅंवों की थिरकन ने कमाल दिखाया और मुझे उसी पल सलेक्ट कर लिया गया। बेटी हुई। जब वह स्कूल जाने लगी तो उसके 'पाॅंव के थिरकन ' को तैराकी के रूप में कामयाबी मिली।
मैं गुवाहाटी, लखनऊ , चेन्नई सभी जगह 'स्कूल के बच्चों के पाॅंवों में थिरकन ' देने में कामयाब रही। पुणे आकर मैंने जब मैं स्कूल में हिन्दी शिक्षिका बनी। तो यहाॅं पहले से ही नृत्य शिक्षिका थी। तब मैंने यहाॅं बच्चों के पाॅंवों के थिरकन को थोड़ा धीमा किया। उनकी आवाज़ में थिरकन लाई और अपने हाथों में थिरकन लाई यानि ड्रामा लिखा तथा बच्चों द्वारा करवाया। मेरे जीवन की जो ' पाॅंव की थिरकन ' की कला थी उसकी पूर्ति मेरे शिक्षिका जीवन के साथ चलती चली गई।
मेरी खुशी का ठिकाना न रहा , जब ४७(47) की उम्र में मुझे अपने स्कूल (शिक्षा निकेतन, टेल्को, जमशेदपुर) में स्टूडेंट्स रीयूनियन में बुलाया गया और मेरे पाॅंवों को ' थिरकने 'का मौका दिया गया। अपना विद्यालय जहाॅं से मैं पढ़ी थी। उसके मंच पर, बिना किसी अभ्यास के, लता मंगेशकर दी के ' वन्दे मातरम् ' गाने पर मेरे 'पाॅंव ' थिरकते हुए फूले न समा रहे थे। मेरे विद्यालय के पुराने शिक्षक गण और विद्यार्थियों की तालियों से वातावरण गूॅंज उठा।
मैंने ५६ (56) की उम्र में 'बाल दिवस ' पर स्कूल में, बच्चों के प्रोत्साहन हेतु अपने पाॅंवो को मंच पर थिरकने का इशारा दिया और मेरे पाॅंव इस कदर थिरके कि मैं खुद भी हैरान रह गई। उम्र के इस ढलान पर तालियों की गड़गड़ाहट सुन दिल बाग-बाग हो उठा। बच्चों के सामने मैं मिसाल बन कर खड़ी थी। मन में लग्न और चाहत हो तो उम्र और समय आड़े नहीं आती। एक बात और ....
बचपन का अभ्यास मनुष्य को हमेशा सफल बनाता है।
ज़िन्दगी चलती रही। मैंने अपने 'पाॅंव की थिरकन ' को निजी जिंदगी में भी काफी इस्तेमाल किया यानी सुबह से रात तक पाॅंवो को चलाती रही। अपने परिवार तथा स्कूली जीवन को साथ-साथ चलाने में मेरे 'पाॅंव ' ने मेरा साथ दिया। मोच आने, हेयर क्रैक होने के बावजूद भी प्रेशर बैंडेज बाॅंध पैरों को चलाती रही।
'पाॅंव में थिरकन ' न रहे तो जिंदगी चलेगी कैसे? 'थिरकन' के बिना पाॅंव बेजान है। पर हाॅं , आजकल आर्टीफिशियल पाॅंव लगाकर पाॅंव में थिरकन देने की कोशिश जारी है। हजारों लोग आर्टीफिशियल पाॅंव द्वारा ही अपने जीवन रुपी गाड़ी खींच रहे हैं। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि हर इन्सान के 'पाॅंव के थिरकन ' के प्रति वह मेहरबान रहे।
' 'पाॅंव की थिरकन ' इन्सान की ' महत्वपूर्ण 'गति ' है जिसके बिना जिंदगी अधूरी है ....
