अपनापन- पाखी की वापसी
अपनापन- पाखी की वापसी
बालकनी में गमले के पीछे इक्ट्ठे तिनकों को देख मैं घबरा गई। कहीं घर न बना ले। मैंने उधर साफ - सफाई करवा दी। कभी-कभी वह कमरे के अन्दर घुस आती। ऐसे निडर होकर चलती जैसे उसका अपना घर हो। घर भी गंदा कर देती। बालकनी का तो कहना ही क्या? रोज धोना पड़ जाता था।
मैंने भी ठान रखी। उसे घर में घुसने न दूॅंगी। बालकनी का दरवाजा बंद रखती। बालकनी रोज धुलवा भी
देती। फिर भी वह चक्कर काटती रहती। कुछ दिन तक बालकनी शान्त दिखने लगा तो, मैं निश्चिंत हो गई कि, चलो अब घर साफ - सुथरा लगेगा।
पर, यह क्या वह शांत हुई क्या?
नहीं ......
कुछ दिनों बाद , मैंने देखा कि शू- रैक पर अंडे पड़े हैं। अब मैं कुछ नहीं कर सकती हैं। इस स्थिति में किसी की सेवा करना तो बनता था।
और प्यार , प्यार तो होना ही था। बस मैं लग गई उसकी सेवा- सुश्रुषा में। ऐसा करते हुए उससे अनजाना सा 'अपनापन ' हो गया।
रोज रखने लगी दाना - पानी। कबूतरी अंडे पर बैठी रहती। जब मैं जाती तो वह उड़ जाती। रात - दिन मुझे अंडे की चिंता सताने लगी। कहीं वह गिर कर टूट न जाए। रात में भी कभी भागी- भागी देखने आती ,अंडे तो ठीक हैं न। कुछ दिनों बाद एक बच्ची निकल आई। बहुत ही प्यारी सी। मैंने अपना दाना - पानी देना जारी रखा। धीरे - धीरे बच्ची बड़ी होने लगी। अब उसने उड़ना भी शुरू कर दिया। उसके उड़ने से खुशी तो हो रही थी मुझे ,पर साथ साथ बहुत चिंतित भी थी। कहीं वह छह माले से गिर न जाए। अब तो मैं सपने में भी देखने लगी कि वह गिर गई है और मेरी नींद टूट जाती।दौड़ कर उसी समय जाती
देखने। सब ठीक देख निश्चिंत हो जाती। धीरे- धीरे समय निकलता गया। मैंने उसका नाम ' पाखी ' रखा।
मैं जब पाखी बुलाती तो वह हिलने लगती। उसके हाव- भाव से लगने लगा कि वह भी मुझे पहचानने लगी है। दाना - पानी का कार्यक्रम चलता रहा। अब कुछ ज्यादा ही रखने लगी थी क्योंकि माॅं- बेटी दोनों खाया करती थी। अच्छे पकवान नमकीन या मीठा उन्हें पसंद नहीं आता था। वे उन्हें चख कर छोड़ देतीं। रोज का चावल के दाने ही स्वादिष्ट भोजन था उनके लिए।
समय निकला। अब वह ऊॅंची उड़ान भरने लगी थी। माॅं कबूतरी ने आना छोड़ दिया। मैं भी निश्चिंत हो गई कि अब वह गिर नहीं सकती।
एक दिन मुझे कुछ ' अपनेपन' की आहट सी महसूस हुई। मैंने देखा , पाखी के साथ माॅं भी थी। मैं बहुत दिनों बाद माॅं को देख खुश हुई। पर, वे दोनों कुछ उदास सी दिख रही थी। ध्यान से देखा तो पता चला कि माॅं कबूतरी के पैर में चोट आई है। मैंने उसकी मरहम पट्टी कर दी। दाना -पानी भी रख दी। दो दिन तक दोनों माॅं बेटी कहीं नहीं गईं।
मैंने भी उनका बहुत ख्याल रखा। मुझे लगा , कोई परिवार का व्यक्ति ही घायल हुआ है। गजब सा अपनेपन का भाव महसूस हो रहा था।
तीसरे दिन माॅं कबूतरी कहीं चली गई। पाखी आती - जाती रहती। मैं भी निश्चिंत रहकर बराबर उसे आते- जाते देखती रहती। खाने -पीने का तो ख्याल रखना तो मेरी धर्म, फर्ज बन गया था क्योंकि वे अब परिवार में शामिल हो गईं थीं।
एक दिन मैं रात में दाना- पानी
देने गई तो पाखी नहीं आई है। मुझे चिंता हुई ,फिर , मैंने सोचा कि बच्चों की बात याद आई कि मैं फ़ालतू में मैं चिंता करती हूॅं। ठीक ही होगी पाखी।
पर , यह क्या दूसरे, तीसरे दिन भी नहीं आई। लगभग दस- बारह दिन वह नहीं आई तो मेरा मन विचलित होने लगा। कहीं उसे कुछ हो न गया हो। फिर अपने मन को समझाया मेरे बच्चे भी नौकरी के सिलसिले में दूसरे शहर जाते हैं। लगता है , वह भी चली गई।
इसी उधेड़बुन में थी कि, बेटी का फोन आया। तुम्हारी पाखी कैसी है ?
मैंने बोला - पाखी की दूसरे शहर में नौकरी लग गई है। वह चली गई।
पाखी के जाने के बाद घर में दूसरी बार सूनापन छा गया। पहली बार जब बच्चे गए और दूसरी बार पाखी के जाने के बाद। लगा कोई अपना ' दिल का करीबी ' चला गया हो।
अब मुझे घर में मन ही नहीं लगता। हमेशा उसकी चिंता लगी रहती। ईश्वर से प्रार्थना करती। जहाॅं कहीं भी हो , बच्चों की तरह ,वह भी अपने जीवन में खुश और आबाद रहे।
एक दिन पतिदेव तबियत खराब थी। बच्चे पहुॅंच गए थे। हम सब अस्पताल निकल रहे थे तो देखा कि, पाखी भी पहुॅंच गई थी। मुझे आश्चर्य हुआ। पक्षी होकर भी उसे इस कठिन परिस्थिति का एहसास हो गया। ये 'अपनापन 'नहीं तो और क्या है? अब अक्सर ऐसा होने लगा कि शनिवार, रविवार को पाखी आती रहती। बच्चों के साथ - साथ हर छुट्टी में पाखी का भी इंतज़ार होता। भावानात्मक रूप से जड़ी गई है पाखी। अपने परिवार की सदस्य बन गई है पाखी।
एक दिन मैंने देखा सुबह-सुबह पाखी को देख पतिदेव से कहा , देखिए आज पाखी आई है। आज शनिवार, रविवार भी नहीं है। पतिदेव ने कहा - आज ईद की छुट्टी है ......
पाखी की वापसी हो गई है .....
'अपनेपन ' का सबूत उसने दे दिया है।
