Lokesh Gulyani

Abstract Drama

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Lokesh Gulyani

Abstract Drama

मेरे बाप का ब्रांड

मेरे बाप का ब्रांड

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आज मैं अपने बाप के ब्रांड पर आ गया। एक अलग सा ही नशा मुझ पर छा गया। वो कमरे में उड़ता धुआँ, शीशे से पिघलता आब, ग्लास में अपनी शक़ल इख़्तयार करता हुआ, उन शामों के कह-कहे एक दीवार से उड़ कर दूसरी में समाने लगे। परदे के पीछे की वो दुनियाँ जिसे वे पर्दों में ही रखना चाहते थे, मुझ पर वक़्त-बेवक्त्त नुमाया होती रही।


बात ब्रांड की नहीं है वो महंगा था के सस्ता था। बात मेरे बाप के ब्रांड की है और बाप मेरा ब्रांड था। आज एक अलग ही सुकून मिला। ऐसा लगा जैसे हम फिर मिल गए। आमने-सामने एक टेबल पर। जैसे उन्होंने झिझकते हुए अपने जवान होते ख़ून की आँखों में आँखें डाल उसे तोला और मन ही मन सोचा हो 'हाँ संभाल लेगा अब, मैं भी तो इसी की उम्र का था जब पहली बार'..... हाह!


उस कमरे में कशिश थी। कोई-कोई शाम उस कमरे में रोशनी कुछ कम हुआ करती थी। मैं समझ जाता था कि आज वही शाम है। मुझ पर काला जादू तारी हो जाता था। शरीर दूर रहता पर अंदर का सब कुछ उस पर्दे के पार जाने को मचलता रहता। कभी-कभी मैं कमरे में बर्फ़ देने की ज़िद्द कर बैठता तो मुझे बहला दिया जाता फिर एक उम्र के बाद मुझे बर्फ़ ख़ुद-ब-ख़ुद पहुंचाने को दी जाने लगी, समय ने बढ़त ली अब मैं कुछ देर वहां उनके साथ बैठने भी लगा। समझने की कोशिश करने लगा कि अपने रोज़मर्रा मिलने वाले दोस्तों के साथ भी, वो आज इतने ख़ुश कैसे है? क्या ये गिलास में पिघलती बर्फ़ उन्हें ख़ुशी दे रही है?


लम्बाई बढ़ी तो मेरे हाथ घर के अनजान कोनों तक जाने लगे। जिसमें मुझे मिलने लगी मेरे बाप की सहेजी हुई चीज़ें। एक समय के लिए मुझ से ही छिपाई हुई। मेरे हाथ उन नायाब शीशों को छूते हुए थरथराते। उन पर लिखा हुआ नाम मेरे ज़ेहन की दीवारों में गुदता चला जाता। उन नामों पर मेरी दोस्तों से बहस भी हो जाती की किस और के घर में ये ब्रांड हो ही नहीं सकता। हम सब हँसते, अरमान पालते, ऐसी ही शामें दोहराने के। फिर वो दिन भी आये जब हम उन शीशों के ढक्कन खोल कर अनुलोम-विलोम करने लगे और जल्द ही शीशियों से जो गीलापन उड़ने लगा उसे उतने ही गीलेपन से सफ़ाई से कैसे भरा जाए, ये खेल भी सीख लिया हमने।


हम कच्ची मूंछों में बड़े होते पक्के बदमाश थे। धीरे-धीरे घर में वो शामें घटने लगी। और फिर यकायक बिलकुल ही बंद हो गई। उस दिन मेरे बाप की अलमारी के ऊपर के आले में रखी शीशी ख़ूब रोई। मैं भी रोया। फिर बहुत वक़्त के बाद मैंने अपने आप को उस सौदागर के सामने पाया जो वो शीशियाँ बेचता था जिसमें समाई थी खुशियां, मेरी और मेरे बाप की। उसने मुझसे पूछा एक साधु की तरह कि मुझे क्या चाहिए और मेरी उँगली उसकी पीठ के पीछे की ओर उठ गई। उसके पसीने से भीगी पीठ के पीछे मेरे बाप का ब्रांड मुझे देख कर मुस्कुरा रहा था।



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