आख़िरी फ़ोन

आख़िरी फ़ोन

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"और फिर तुम्हें भी कोई न कोई मिल ही जायेगा।"

"पर तुम तो न मिलोगे।"

"मेरा खोना ही मेरा मिलना है, शैल।"

"मैं तुम्हें खोऊँ ही क्यों।"

"यही मुक़द्दर है। मुझे जाना होगा।"

"अगर यही मुक़द्दर है तो मुझे ये स्वीकार नहीं। मैं कुछ कर बैठूंगी समीर।"

"तुम कुछ नहीं करोगी, तुम्हें मेरी क़सम, अब रोओ मत। तुम्हें पता है न मैं तुम्हे रोते हुए नहीं देख सकता।"

"और अलग होते देख सकते हो ?"

"काश ! मैं तुम्हे अपनी मजबूरी समझा पाता।"

"गर ये प्यार ही है तो माँगना क्यों, जाओ समीर मैंने तुम्हें आज़ाद किया।"

"सच.....मतलब तुम मुझसे नाराज़ नहीं हो ?"

"अब नाराज़ भी कैसे हो सकती हूँ !"

"मुझे माफ़ कर देना, अलविदा।" शैल ने कुछ नहीं कहा, हल्की आह के साथ फ़ोन रख दिया। समीर ने फ़ोन रखा और उर्मि का नंबर डायल किया।

"हैलो उर्मि, तुमने क्या सोचा।"

"सोचना क्या है समीर, तुम जैसा प्यार करने वाला लड़का मुझे कहाँ मिलेगा।"

"सच !"

"हाँ सच, यकीन न हो तो मेरी सहेली से ही सुन लो।"

"क्या बेवफ़ा मुकद्दर ले कर आये हो समीर, असल तो खोया सो खोया, सूद भी खो बैठे। बेवफाई करने को मिली भी तो कौन मेरी ही पक्की सहेली, चचचचच !


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