मेरा महायुद्ध
मेरा महायुद्ध


वो मेरे खुद से चल रहे महायुद्ध का वो पड़ाव है, जिसके होने से महासंग्राम होते हैं और ना होने से वो अनदेखे युद्ध जो मुझे प्रत्यक्ष रूप से हराने में हमेशा से ही सक्षम रहे है।
वो मेरे लिए कुछ ना होकर भी ऐसा है जैसे किसी कविता में रस का होना।
अब रस ना रहे तो कविता कैसी ?
वो वीर रस की कविता में मेरे लिए श्रृंगार रस सा घुलता है।
अब बताओ?
कहां वीर रस और कहां श्रृंगार।
कोई मेल है इनका?
पर मेल तो हमारा भी नहीं ना, तभी तो ऐसे प्रश्न चिन्ह जैसी अवस्थाओं में एक अरसा गुज़ार दिया सिर्फ और सिर्फ यह निष्कर्ष निकालने में के हम दूर ही ठीक है।
कहने के लिए हम धरती और अम्बर जैसे ही है,
अब देखिए ना, एक ने तो सागर जितनी गहराइयों वाला सूफियाना सा इश्क़ कर लिया है और प्रेम का मतलब बंधन भले ही ना हो, पर जहां बंधन नहीं, इस कलयुग में वहां प्रेम मुश्किल से ही अमर हुआ है।
(अब यहां राधा कृष्ण के प्रेम की बात तो आप ना ही लाएं तो बेहतर है, दैविक और मनुष्य के प्रेम में अंतर होता है )
और एक को पसंद है तो सिर्फ खुलापन।
खुलापन ठीक वैसा ही जैसा आसमान में है, जहां बंदिशे महेज़ एक शब्द है जिसका कोई अर्थ ही नहीं।
पर बात तो ये है ना के इतना अलग होने के बाद भी अगर वो मुझसे अलग होने पर अश्कों के महासागर में डुबकियां लगाए तो बात कुछ और है।
बात चाहे कुछ भी हो, इतना तो साफ है के वो मेरा ना सही, पर "मेरा" वो हिस्सा है जो मुझसे दूर रहकर भी मेरे लिए मेरा ही रहता है।
अब चाहे वो लाख इनकार करे इस बात से पर उसके इनकार करने से कुछ सच झूठ में तो तब्दील नहीं हो जाते ना।
और ये वो युद्ध है जिसका अंत शायद लिखा ही नहीं गया है, लिखा गया है तो बस इसके हर दिन के साथ आते कुछ नए पड़ाव और चुनौतियां।
पर सच कहूं तो मै खुश हूं इन चुनौतियों से जो मुझे मुझसे प्रश्न करने पर विवश करती है के करोड़ों लोगो के होने के बाद भी बस उसका ना होना क्यों इतनी बड़ी हार है मेरे लिए के मै खुदसे ही संग्राम करने निकल जाती हूं।
वो मेरे लिए "कुछ नहीं" से मेरे "सब कुछ" कब बदल गया उसने मुझे पता तक नहीं लगने दिया और अब मै हैरान हूं उसके ना होने पर, या कहे उसके होने के बाद भी मेरा ना होने पर।
खैर, छोड़िए ये युद्ध तो काफ़ी बार कई लोगो ने लड़े है और शायद आप समझ भी गए है के ये युद्ध कोई युद्ध नहीं बल्कि प्रेम ही है, सिर्फ प्रेम।