मैं जीना चाहता हूँ
मैं जीना चाहता हूँ
नशामुक्ति केन्द्र के वार्ड नम्बर चार, बेड नम्बर तीन पर पड़ा हितेश पेट पकड़े ज़ोर ज़ोर से चिल्ला रहा था ,"माँ मुझे बचा लो ,मैं जीना चाहता हूँ " लाचार माँ आँसुओं को दबाए कभी उसके हाथ मलती, कभी पैर। ड्रग्स का आदि होने के कारण अब न मिलने पर वह भयानक दर्द सह रहा था।
पाँच साल के हितेश को छोड़कर पिता स्वर्ग सिधार गए थे। तब से अब तक वह माँ-पिता दोनों का फर्ज़ निभा रही थी। हितेश पढ़ने में अच्छा था सो अब कॉलेज में पढ़ रहा था। पर कुछ महीनों में ही उसके व्यवहार में अंतर देख माँ को चिन्ता होने लगी।
अचानक कपड़े धोते समय उसके हाथ एक पुड़िया लगी जिसमें सफेद पाऊडर था।
पहले कभी देखा न था सो जाकर सिलाई सैंटर की मैडम को दिखाया। बेचारी माँ को दुख न पहुँचे इसलिए कुछ न बताते हुए हितेश को शाम को घर लाने को कहा।
मिसेज शर्मा के समझाने पर हितेश ने सब बात बता दी और नशामुक्ति केन्द्र जाने को तैयार हो गया।
भोली माँ यह सोचे जा रही थी कि उस पुड़िया में क्या था जो उन्हें यहाँ आना पड़ा और बेटे की चीखें सुननी पड़ी। मैडम जी की बात पर विश्वास कर वह बेटे को समझाए जा रही थी "तू बहुत जीएगा मेरे लाल, तुझे मुझसे कोई छीन नहीं सकता।" माँ के रोने में बेटे की सिसकियाँ चल रही थी, "मुझे माफ़ कर दो माँ!मैं जीना चाहता हूँ.."
