Prabodh Govil

Abstract

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Prabodh Govil

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मैं और मेरी जिंदगी -3

मैं और मेरी जिंदगी -3

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हमारे विद्यालय की ख्याति देश भर में थी। यह एक आवासीय विद्यालय था। अपने साथ पढ़ने वाली छात्राओं के साथ कुछ दिन रह लेने के बाद हमें ये भी पता चलता था कि इतनी छोटी सी उम्र में अपने घर वालों को छोड़ कर इतनी दूर हॉस्टल में उनके चले आने का कारण क्या रहा होगा।

कई लड़कियां बताती थीं कि उनके शहर या राज्य में लड़कियों की शिक्षा के सुरक्षित प्रबंध नहीं हैं इसलिए वे यहां आती हैं। यहां ग्रामीण वातावरण, सादगी, सुरक्षा, मितव्ययता, केवल महिलाओं से नियंत्रित वातावरण और सम्पूर्ण शिक्षा की व्यवस्था एक ही परिसर में मिलने के कारण उनके घरवाले उन्हें यहां भेजना पसंद करते हैं।

मेरी कक्षा में देश के केंद्रीय मंत्री की पुत्री से लेकर हमारे मोहल्ले में सफ़ाई करने वाले जमादार की बिटिया तक एक साथ पढ़ती थीं।

ये अच्छा है, विचित्र है, या असुविधाजनक है, ये हम में से कोई नहीं जानता था।

हम सब यहां एक सी दुश्मनी और यारियां निभाते हुए बड़े हो रहे थे।

क्लास में किसी प्रखर मेधावी छात्रा के बारे में बाद में सुनने में आता कि इसके पिता इसे छठी कक्षा में प्रवेश के लिए लाए थे पर उसमें जगह न होने की सूचना विद्यालय द्वारा दिए जाने पर वे इसे पांचवीं कक्षा में ही प्रवेश दिला गए हैं। अलबत्ता उनकी प्राथमिकता ये थी कि बिटिया इस विद्यालय में पढ़े, चाहे उसका एक साल खराब हो जाए। पांचवीं कक्षा वो पहले भी पास कर चुकी होती।

इस परिवेश में पढ़ते हुए वार्षिक परीक्षा में सभी वर्गों को मिला कर मैं अपनी पूरी कक्षा में प्रथम आया।

यही नहीं, मेरे बाद दूसरे क्रमांक पर आने वाली छात्रा चंद्रकिरण या अन्य तेज़ छात्राओं- वीणा सिंह, सरिता आदि के अंक मुझसे बहुत कम थे।

मेरे शुभचिंतक और मित्र ये कह रहे थे कि मेरा विद्यालय में प्रथम आना महज कोई संयोग नहीं था।

मेरे शिक्षक और घरवाले बहुत खुश थे।

मुझे वो दिन भी याद है जब विद्यालय की सभी शिक्षिकाएँ मेरे माता पिता को बधाई देने इकट्ठी हो कर एक शाम हमारे घर भी आईं। मुझे याद है कि कुछ ही साल पहले हमारे विद्यालय में एक पुरुष शिक्षक भी आए थे,जिन्हें कुछ दिनों बाद ही विद्यालय का प्रधानाचार्य बनने का अवसर भी मिला।

ये हमारे साथ शैक्षणिक भ्रमण पर उदयपुर जाते समय भी साथ ही गए थे।

उदयपुर के नजदीक ऐतिहासिक हल्दी घाटी देखते हुए एक छात्रा को एक ऐसा पत्थर मिला जिस पर एक हल्की पर्त सोने की भी थी। बाद में इस बात की पुष्टि हुई कि वास्तव में वो सोना ही था, जो छात्रा को मिला। इसे हमारे विद्यालय के वार्षिक उत्सव के अवसर पर लगाई गई प्रदर्शनी में भी दर्शकों के देखने के लिए रखा गया था। मैं ये बात सबको गर्व से बताया करता था कि छात्रा ने पत्थर में सोने के होने की आशा की पुष्टि सबसे पहले मुझसे ही की थी।

शिक्षकों में महिलाओं की अधिकता होने के कारण हमारे स्टाफ में फेर बदल अपेक्षाकृत ज़्यादा ही हुआ करते थे।इसका एक कारण ये भी था कि अविवाहित शिक्षिकाओं के कुछ दिन बाद विवाह हो जाने, अथवा शिक्षिकाओं के पिता और पति आदि के स्थानांतरण होने के कारण उन्हें "अकारण" विद्यालय छोड़ कर जाना होता था।

विद्यालय में पर्याप्त संख्या विधवा हो चुकी, या तलाकशुदा और पति द्वारा छोड़ दी गई महिलाओं की भी थी जो अब वहां सेवा दे रही थीं और अपने परिवार का पालन पोषण कर रही थीं।

लोग कहते थे कि इस तरह की महिलाओं को चाहे और कहीं उपेक्षित या हेय दृष्टि से देखा जाता रहा हो पर वहां उन्हें पर्याप्त मान सम्मान देते हुए नियुक्त किया जाता था।

कुछ छात्राएं परिहास में ऐसा कहते हुए भी सुनी जाती थीं कि इस परिसर में हम दुनियां भर में पुरुषों के वर्चस्व और मनमानियों का बदला लेते हैं।

सचमुच सड़क पर चलते हुए हम लड़कों को ही नहीं, बल्कि वाहनों को भी एक ओर होकर, लड़कियों के लिए रास्ता छोड़ते हुए निकलना होता था।

इन्हीं दिनों मुझमें न जाने कैसे एक आदत विकसित हो गई कि मैं किसी की भी नकल उतारा करता था।

कॉलोनी में एक बंगाली प्रोफ़ेसर रहते थे जिनकी बेटी बच्चों को पढ़ाया करती थीं। वे बोलते समय कुछ अटकती थीं,और बाद में अपनी बात पर ज़ोर देने के लिए उसे बार बार दोहराती थीं।

मैं कभी कभी उनकी नकल किया करता था।

एक दिन मैंने देखा कि मेरी छोटी बहन उनके घर में बैठी बिस्कुट खा रही है,और उन्हें कुछ कह कर सुना रही है जिसे वो बड़े ध्यान से सुन रहीं हैं।

मुझे देखते ही वे बोलीं- यहां आओ, क्या तुम मेरी हंसी उड़ाते हो?

मैं एकदम से घबरा गया। बोला - नहीं जीजी...कभी नहीं।

तभी मेरी छोटी बहन बोली - झूठ बोल रहे हैं,कल तो आप हमको जीजी की नकल करके बता रहे थे।

मैं निरुत्तर हो गया। पर चोरी इस तरह खुले आम पकड़े जाने से नकल करने की मेरी आदत कुछ कम हो गई।

हमारे विद्यालय का वार्षिक उत्सव होने पर सभी विद्यार्थियों द्वारा बनाए गए चित्रों, अन्य कलात्मक वस्तुओं और चार्ट्स की प्रदर्शनी लगाई जाती थी।

अतिथियों के आते समय हम लोग अपने चित्रों के पास खड़े होकर उनके द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब भी देते थे। देश की कई बड़ी हस्तियां यहां उत्सव में आया करती थीं।

मुझे इस बात का गर्व हमेशा रहा कि देश के तत्कालीन उपराष्ट्रपति डॉ ज़ाकिर हुसैन ने, जो बाद में देश के राष्ट्रपति भी बने, मुझे इस प्रदर्शनी के दौरान एक बार मेरा चित्र देखने के बाद गोद में उठाया था।

देश के पहले प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को भी बिल्कुल नज़दीक से देखने का मौका भी मैंने पाया। हमारे विद्यालय की वो छात्राएं जो पानी में नाव चलाना सीखती थीं, उन्हें नाव में सैर के लिए लेकर गईं।

उन्नीस सौ पैंसठ में पाकिस्तान और बासठ में चाइना के साथ हुए युद्ध का प्रभाव भी हम बच्चों पर पड़ा था। युद्ध के दौरान कई बार घोषित होने वाले ब्लैकआउट में भी हम लोगों ने उत्साह से भाग लिया था। रात को मकानों की बत्तियां गुल की जाती थीं।

हमारे विद्यालय की कुछ छात्राएं बताती थीं कि उनके पिता या अन्य परिजन सेना में हैं जिन्हें इस समय हर समय ड्यूटी पर तैनात रहने और कोई छुट्टी न लेने के लिए कहा जाता है।

एक बार ये खबर भी फैली कि युद्ध लंबे समय तक चलने पर देश के हर परिवार को कम से कम एक पुरुष सदस्य को सेना में भेजने का आग्रह किया जाएगा।

इस बात पर अविश्वास करते हुए भी कभी कभी मैं ये सोच कर डर जाता था कि यदि ऐसा हुआ तो मेरे पिता को भी सेना में जाने के लिए कहा जाएगा,जो किसी भी दृष्टि से मुझे फ़ौजी नहीं दिखाई देते थे।

लड़ाई खत्म होने के बाद हम सभी ने युद्ध को लेकर तरह तरह के चित्र विद्यालय में बनाए जिन्हें विद्यालय की दीवारों पर फ़्रेम करवा कर लगाया गया। चित्रों की कीमत भी निर्धारित करके उन पर प्रदर्शित की गई और बताया गया कि चित्रों की बिक्री की आय युद्ध में घायल सैनिकों को दी जाने वाली राहत राशि में दान करने के लिए भेजी जाएगी।

मुझे ये देख कर बहुत अच्छा लगा कि वहां लगाए गए चित्रों में सर्वाधिक कीमत मेरे ही एक चित्र की रखी गई, जिसमें मैंने पहाड़ पर लड़ते हुए, घायल सैनिकों को दर्शाया था।

मेरे एक मित्र ने मेरा ध्यान इस बात पर दिलाया कि मैंने सैनिकों के पांव पहाड़ पर या तो बर्फ़ में धंसे हुए अथवा झाड़ियों में छिपे हुए ही दिखाए। ये मेरे अवचेतन में बसी इस धारणा की ही एक प्रकार से पुष्टि थी कि मैं स्वयं बचपन में जूते पहनना पसंद नहीं करता था। मुझे अक्सर चप्पल या विशेष अवसरों पर सेंडिल्स में ही देखा जाता था।

मैं जूते पहनना पसंद नहीं करता,इसका खामियाजा एक बार बचपन में मुझे भुगतना भी पड़ा। घर में होने वाली एक शादी से पूर्व मेरी मां बाज़ार से मेरे लिए नए जूते खरीद कर लाई थीं,किन्तु लाने के दूसरे ही दिन मेरे नए जूते घर में रिश्तेदारों की चहल पहल और भीड़भाड़ के बीच खो गए।

ये ज़रूर घर के किसी काम करने वाले ऐसे ही सदस्य का काम रहा होगा जो ये जानता या जानती हो कि मैं जूते नहीं पहनता, इसलिए उन्हें ज़्यादा ढूंढा नहीं जाएगा। उसने संभवतः मां के बाज़ार से जूते लाने के समय मुझे बेमन से उन्हें स्वीकार करते देख या भांप लिया था।

मेरे प्रथम आने पर घर के सभी लोग और टीचर्स खुश ज़रूर थे पर मैं जानता था कि मेरी इस सफ़लता में कुछ ऐसे कारण ज़रूर शामिल हैं जिन पर सभी का ध्यान नहीं गया है।

सबसे बड़ा कारण ये था कि मुझे चित्रकला और हिंदी में बहुत ही अच्छे, नब्बे प्रतिशत से भी अधिक अंक मिले थे। क्लास की अन्य होशियार छात्राओं को इन विषयों में चालीस से लेकर सत्तर फीसदी तक अंक ही मिले थे। जबकि उन छात्राओं को गणित, विज्ञान आदि विषयों में मेरे बराबर, या मुझसे भी अधिक नंबर मिले थे। मैंने मौका मिलते ही विद्यालय के ऑफिस में चुपचाप इस तथ्य की पड़ताल बहुत बारीकी से की थी।

किन्तु फ़िर भी इस बारे में मैंने कभी किसी से कुछ कहा नहीं। आखिर खुद ही अपनी उपलब्धि का मुलम्मा उतारना किसे अच्छा लगता है। बालक होते हुए भी इतना तो मैं भली भांति समझता था कि गलती से भी यदि ये बात एक बार मैंने कही तो दस बार दूसरे कहेंगे।

जिस शाम विद्यालय की सभी टीचर्स मेरे माता पिता को बधाई देने और मुंह मीठा करने मेरे घर आईं, उसी शाम से मेरे घर में ये ख्याल गूंजने लगा कि मुझे भविष्य में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करवाई जाए। यद्यपि अपने कैरियर के अनुसार विषय चुनने की प्रक्रिया नवीं कक्षा से आरंभ होनी थी, जिसमें अभी पूरे तीन साल बाक़ी थे।

किन्तु मेरे लिए ये शाम हमारे विद्यालय के स्टाफ द्वारा विदाई की शाम की तरह ही महत्वपूर्ण रही क्योंकि अब मुझे किसी दूसरे विद्यालय में, दूसरे शहर में पढ़ने जाना था। हमारा विद्यालय पूरी तरह केवल लड़कियों के लिए ही था और इसमें लड़कों के पढ़ने की व्यवस्था और अनुमति केवल पांचवीं कक्षा तक ही थी, और वह भी केवल स्टाफ के बच्चों के लिए ही।

वैसे उसी गांव में कुछ दूरी पर एक सरकारी स्कूल भी था,पर वह भी उन दिनों केवल प्राथमिक कक्षाओं तक ही सीमित था। इस लिए यह बिल्कुल निश्चित था कि आगे पढ़ने के लिए शहर से बाहर जाना होगा।

छुट्टियां आरंभ होने के कुछ ही दिनों बाद घर में ये चर्चा शुरू हो गई कि अब मैं आगे कहां पढूं?

माता पिता के परिचित और शुभचिंतक ये सलाह देते थे कि मुझे अंग्रेज़ी माध्यम के अच्छे पब्लिक स्कूल में ही भेजा जाए, चाहे वो कितनी भी दूर हो।

दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी थे जिनका कहना ये था कि कम से कम पंद्रह साल की उम्र तक बच्चों को माता पिता से दूर नहीं भेजा जाना चाहिए।

मेरे वर्तमान विद्यालय से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर एक सरकारी कस्बाई स्कूल था जो ग्यारहवीं कक्षा तक था। हमारे इलाक़े के अधिकांश बच्चे पढ़ने के लिए उसी में जाया करते थे। वहां जाने के लिए बस से जाना होता था। कुछ बच्चों ने सायकिलों की व्यवस्था भी कर रखी थी। यद्यपि दस किलोमीटर दूर सायकिलों से आना और जाना छोटे बच्चों के लिए मेहनत और जोखिम का काम था। खुद मेरा बड़ा भाई भी तीन साल से उसी स्कूल में पढ़ने जा रहा था।

मैं नहीं जानता कि तीन साल से वहां पढ़ रहे मेरे भाई को मुझे किसी अच्छे पब्लिक स्कूल में भेजने की लोगों की सलाह कैसी लगी होगी?

मेरा भाई पढ़ाई में एक साधारण विद्यार्थी था, पर वो मेरा बड़ा भाई तो था।

मुझे लगता था कि लोग भाई भाई के बीच मनमुटाव, स्पर्धा, झगड़े की दुहाई तो देते हैं, पर ये खाई कैसे पनपती है, इस बात से पूरी तरह लापरवाह होकर ऐसी सलाह आसानी से, बिना मांगे दे देते हैं।

लेकिन मेरे मातापिता ने लोगों की मुझे दूर भेजने की सलाह की कोई परवाह न करते हुए मुझे भी उसी सरकारी विद्यालय में भेजने का निर्णय लिया।

मैं मन ही मन इस बात से बहुत खुश हुआ कि मैं अपने घर और माता पिता से दूर नहीं जा रहा।

लेकिन वो विद्यालय भी मेरे लिए भारी बदलाव और नए अनुभवों वाली महत्वपूर्ण सबकशाला सिद्ध हुई।

छुट्टियां खत्म होते ही अपने बड़े भाई की देखरेख में मुझे इस सरकारी स्कूल में प्रवेश मिला जो लड़कों का स्कूल था। यद्यपि इस विद्यालय में भी कुछ इनी गिनी लड़कियां थीं, पर बहुत ही कम।

ये मेरे लिए नई हवा लगने के दिन थे।

सबसे बड़ी बात तो मेरे सामने ये आई कि ये सरकारी स्कूल था और मेरे शिक्षकों ने कहा कि इसमें पढ़ाई होगी नहीं, तुम्हें करनी पड़ेगी। मेरे पिता ने भी कहा कि केवल स्कूल के भरोसे नहीं रहना है, बल्कि अपनी तैयारी अपने स्तर पर ही करनी है। पिता ने कुछ शिक्षकों के नाम भी मुझे बताए कि मैं कम से कम अंग्रेज़ी, गणित और विज्ञान के लिए उनकी गाइडेंस लेता रहूं।

इस सारे परामर्श का असर ये हुआ कि एक दिन भावुक होकर मैं सभी के सामने कह बैठा- जब तक मेरा प्रवेश इंजीनियरिंग कॉलेज में नहीं हो जाता, मैं कभी कोई भी फ़िल्म नहीं देखूंगा।

उन दिनों फ़िल्म देखने का अर्थ था केवल सिनेमा घर में फ़िल्म देखना, क्योंकि फ़िल्म देखने का और कोई जरिया नहीं था।

पढ़ाई ने मेरे लिए कभी कोई तनाव उपस्थित नहीं किया क्योंकि मैं पढ़ने के लिए घर से दूर नहीं गया था, बल्कि घर में सबके साथ ही था।

एक बड़ी सुविधा मुझे मिली कि बड़े भाई के साथ साइकल से आने जाने की सहूलियत हो गई। स्कूल जाने के लिए सीमित समय पर बस भी उपलब्ध थी किन्तु हम अक्सर साइकल से ही जाते।

यहां एक अपराध बोध मुझे ये हुआ कि मैं साइकल चलाना नहीं जानता था, इसलिए भाई के साथ आराम से बैठ कर ही जाता था। मेरे साथ के दूसरे कई लड़के या तो साइकल चलाना जानते थे, या जल्दी ही सीख गए थे और अपने आप स्कूल जाते थे।

जिनके मेरी ही तरह बड़े भाई थे, वे भी कभी कभी अपने भाइयों को बैठा कर ले जाने का सहारा दे देते थे,किन्तु मैं पूरी तरह अपने भाई पर बोझ ही बना रहा। मैं बहुत समय तक साइकल चलाना नहीं सीख पाया।

उस पर जब टेस्ट या परीक्षाओं में मेरे अंक और डिवीजन मेरे भाई की तुलना में अच्छे आते तो भाई को मेरा उदाहरण दिया जाता था। निश्चित ही भाई को ये जले पर नमक छिड़कने जैसा महसूस होता होगा, पर उसने कभी कुछ कहा नहीं।

मैं भी इस ओर से निश्चिंत होकर इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगा कि अपने छोटे भाई का बोझ उठाना मेरे बड़े भाई का कर्तव्य है।

पढ़ाई में अच्छा होना मेरे लिए एक बचाव बन गया था। मेरा कोई दोस्त या भाई के दोस्त भी मुझे कभी टोकते नहीं थे बल्कि मेरा पक्ष ही लेते थे। मैं इस नए स्कूल में भी लोकप्रिय हो गया था।

शायद नामी गर्ल्स स्कूल का टॉपर होने का प्रभाव हो, मुझे इस नए स्कूल में अध्यापकों और छात्रों से बहुत मान मिलने लगा। ये कस्बाई मानसिकता के लड़कों का साधारण सा विद्यालय था, जहां कई लड़के भी शरारती होते थे, और कई अध्यापक भी छात्रों पर ध्यान न देने वाले। बात बात पर लड़कों की पिटाई होती थी, होमवर्क न करके लाने पर, कक्षा में शोर मचाने पर, आपस में झगड़ा होने पर... अध्यापकों द्वारा लड़कों को पीट दिया जाना मामूली बात थी। लड़के भी आसानी से मारपीट सह जाने वाले, हंसी मज़ाक में सब स्वीकार कर लेने वाले होते थे।

किन्तु यहां भी मुझे अच्छी तरह याद है कि मुझे न तो कभी अध्यापक ने मारा और न ही किसी ने कभी डांटा।

कुछ तो पिछले स्कूल में सीखे अनुशासन का असर रहा और कुछ शायद मेरा वहां के अन्य लड़कों की तुलना में सीधा सादा होना।

एक बार अंग्रेज़ी के अध्यापक दरवाज़े के पास खड़े होकर हाथ में एक लकड़ी का स्केल लेकर सब लड़कों से होमवर्क की कॉपी इकट्ठी करते जा रहे थे, और जो काम पूरा न करके लाया हो, उसे मारते भी जा रहे थे।

संयोग से उस दिन और लड़कों की तरह ही लापरवाही बरतने के कारण मैं भी अपना होमवर्क करके नहीं लाया था। मैं उनके सामने से ये कहता हुआ निकला- सर, नहीं किया। वे चौंके, और ज़ोर से उन्होंने फ़िर पूछा, क्या? मैंने धीरे से कहा- सर, होमवर्क नहीं किया।

उन्होंने बिना कुछ बोले स्केल मेज़ पर फ़ेंक दिया और मुझे अपनी जगह बैठने का इशारा किया। मेरे साथ और लड़के भी हैरान थे। पर अध्यापक बोले, सब बैठ जाओ, आगे से कर के लाना।

उस दिन कक्षा में मेरे प्रति अध्यापक का व्यवहार लड़कों में दिन भर चर्चा का विषय बना रहा।

मुझे भी बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई। उस दिन के बाद कभी ऐसा नहीं हुआ कि मैंने काम पूरा न किया हो। अगर वे उस दिन और लड़कों की तरह मेरे हाथ पर भी डंडे से मारते तो शायद मेरा डर निकल जाता और मैं भी दूसरे लड़कों जैसा बन जाता।

लेकिन टीचर की मेरे कारण बाक़ी सबको भी मिली माफ़ी ने व्यवहार शास्त्र के सारे समीकरण ही बदल दिए।

लड़के उस दिन से मेरा और भी सम्मान करने लगे।

जहां अपने पिछले विद्यालय में मैंने कभी किसी के मुंह से कोई निरादर करने वाला, सम्मान न देने वाला, अपशब्द नहीं सुना था, यहां लड़के आपस में गाली गलौच भी करते देखे जाते थे। लड़कों के मुंह से अध्यापकों तक के लिए ऐसे ऐसे शब्द सुनने को मिलते थे, जिनके मैं अर्थ भी नहीं जानता था किन्तु धीरे धीरे ये समझने लगा था कि ये वस्तुतः गाली है।

ऐसे शब्द बोलने से दूसरे लड़के हंसते थे। धीरे धीरे इनके अर्थ भी मैं समझने लगा।

एक दिन हम सब कक्षा में बैठे थे कि अध्यापक अाए। वे आकर बोले- देखो बच्चो, अब तुम्हारी दशहरे की छुट्टी होने वाली है। इसके बाद तुम्हारा टेस्ट होगा। टेस्ट के लिए जितना कोर्स पढ़ाना है वो मैंने पूरा करा ही दिया है। छुट्टी में तुम रिवीजन कर ही लोगे। आज मौसम भी अच्छा है, और ये आख़िरी पीरियड है... तो अब तुम बताओ, कि तुम सब जाना चाहते हो या मैं पढ़ाऊं?

छात्रों को और क्या चाहिए था, नेकी और पूछ पूछ! शोर मच गया, और लड़के बैग उठा उठा कर जाने की तैयारी करने लगे।

तभी एक शरारती सा लड़का बोल पड़ा- नहीं सर,आप तो पढ़ाओ...

तभी एक और लड़के की आवाज़ आई- साले, हमें तो जाने दे... तुझे पढ़ना है तो जाकर सर के लंड पर लटक जा...

सब हंस पड़े।

अध्यापक सिर खुजाने लगे और क्रोध से तमतमा गए, पर बोले कुछ नहीं।

यही हाल मेरा था... मुझे लगा, ये कौन सा शब्द है जिसे सुन कर लड़के हंसे और टीचर क्रोधित...?


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