मैल
मैल
शहर में साहित्य का भव्य व विराट आयोजन हो रहा था।निमंत्रण पाकर मैं अपने एक दिलअजीज दोस्त को बुलाने गया।वह आने को कतराए। बहाना बनाते हुए कहा-माफ़ करना ! कपड़े मैले हैं इसलिए मैं नहीं जा सकता।
यार ! तुम भी ऐसी दकियानूसी बात करते हो, बुद्धिजीवी होकर ? कपड़े मैले हैं तो क्या हुआ ? मन मैला नहीं होना चाहिये, बस। क्या समझे।
वह तो ठीक है प्यारे !पर तुम तो जानते ही हो कि...फलाँ की उपस्थिति में मेरा वहाँ जाना मुमकिन नहीं है। भला, तुमसे की छिपाना। कपड़े मैले होना तो एक बहाना है।
और हाँ सुनो ! आजकल वैसे भी कपड़े देखे जाते हैं। मन काला (मैला) हो तो उसे कौन जानता है ?
आखिर मैं फटे-पुराने, मैले-कुचैले लिबास पहने कार्यक्रम की ओर बढ़ गया, यह सोचते हुए कि अब जो होगा देखा जाएगा।