मानो या ना मानो
मानो या ना मानो
"मुंबई से गोरखपुर जाने वाले सभी यात्री गेट नंबर 86 की ओर बोर्डिंग के लिए प्रस्थान करे।” घोषणा हो चुकी थी, कुछ ऊंघते हुए, कुछ हांफते हुए, कुछ खुश कुछ बेमन से अपनी अपनी सीटों से उठ कर लाइन में खड़े हो गए।
सफ़र को खत्म कर मंज़िल तक पहुंचने की जल्दी सबको होती है, फिर वहाँ पहुँचते ही कहीं और पहुंचने की छटपटाहट। बस अलग अलग सफरनामा लिए लोग उसे हिकारत भरी नज़रों से देख रहे थे।
वो तकरीबन तेईस साल का नौजवान मैली सी जिंस, बिना प्रेस की शर्ट और पाँवों मे ना चप्पल ना जुते। पीठ पर एक बैग और हाथ मे पानी की बोतल.. उसके चेहरे पर मिश्रित भाव थे खुशी, गम, उत्साह, बेचैनी और भी कई। प्रतीक्षा करने की जगह वो जहां बैठा लोग एक सीट छोड़ कर बैठे। उससे आती पसीने की गंध ने सब को बेचैन कर रखा था।
कुछ लोगों को भुनभुनाते सुना, "बस टिकट सस्ती होने का सब लोग फायदा उठा रहे हैं आजकल.. कोई भी चला आता है भई अब तो।" पर शायद उसे ना कुछ सुनाई दे रहा था, ना फर्क़ पढ़ रहा था.. भाव वही थे चेहरे पर। बोर्डिंग शुरू थी, तभी एक युवक ने उससे जान पहचान की हिम्मत जुटाई।
"कहाँ से हो भईया?"
"जी गोरखपुर”, कांपती हुई दबी सी आवाज़ में जवाब दिया उसने।
"अरे वो तो सबको पता है, गोरखपुर की फ्लाइट से दुबई थोड़े ना जाओगे।” युवक के दोस्त हंसने लगे।
"अरे मतलब कौन गाँव से?"
"भईया! हाटा जाएंगे।"
"अच्छा! ये बताओ चप्पल जूता कुछ काहे ना पहने हो?"
"हम अपने बाबुजी के ठीक होने का भगवान से मन्नत मांगे हैं भईया, तो पन्द्रह दिन से नहीं पहने।"
"मुंबई रह कर कहाँ ये सब मानते हो भाई!"
"भईया बाबुजी बहुत मुश्किल से मुंबई भेजे थे कमाने, उनके लिए इतनी मुश्किल हम ना सहे भला?"
"ठीक है, तो अब कैसे हैं तुम्हारे बाबुजी?"
"बाबुजी तो कल रात चल बसे भईया.. हम उनके इकलौते बेटे हैं.. हमारे हाथों मुखाग्नि मिल जाए बस यही सोच जहाज पकड़े हैं। एक दीदी रहती है मुंबई, उन्होंने अंगुठी बेच कर टिकट करायी.. बोली पैसा ना सोचो फिर बाबुजी को देख ना पाओगे, सोचा ना था ऐसे चढ़ेंगे पहली बार जहाज में।"
अब सन्नाटा सवाल वाली नज़रों में था, कोई नज़र मिलाना ना पाया उससे फिर। लिफाफे का मजमून लिफाफे से बाहर आ गया था।
मानो या ना मानो पर सच है हम आज भी असलियत जाने बिना दिखावटी बातों पर यकीन करते हैं।