लॉकडाउन में अवसर
लॉकडाउन में अवसर
बात बहुत पुरानी कहाँ है? अभी पिछले बरस ही तो पूरी दुनिया ने नये वर्ष का स्वागत हर वर्ष की तरह धूमधाम से किया था। तब किसे पता था पूरी दुनिया को बन्दी बनाने एक अज्ञात दुश्मन आक्रमण कर चुका है। सब लोग तो जश्न मनाने में मशगूल थे। अर्चना भी उन लोगों में से एक थी। वह और उसका परिवार तो कुछ ज्यादा ही प्रसन्न थे। कारण था कि नये वर्ष के आगमन के अगले ही माह उसके पुत्र का विवाह भी तो था। तैयारी पिछले कई माह से जोर शोर से चल रही थी। हर कार्य को खूबसूरती के साथ सम्पन्न करना वैसे भी अर्चना की आदत में था। छोटी से छोटी रस्म अदायगी भी किस प्रकार अधिक खूबसूरती के साथ हो सकती है बस हर पल इसी में दिमाग लगा रहता था। बेटी दामाद और उनकी छोटी सी बिटिया तो उपस्थित थे ही, और मेहमानों का आगमन भी प्रारंभ हो गया। कोरोना के तीन केस केरल तक पहुँच चुके थे, परंतु किसी को ऐसा लगता ही नहीं था कि ये महामारी इस कदर बरबादी लाने वाली साबित होगी। दिल्ली में एक भी केस नहीं था और विवाह धूमधाम से सम्पन्न हो गया। तब तक किसी तरह की कोई पाबन्दी थी ही नहीं कि कोई विघ्न पड़ता। ईश्वर की कृपा से सब स्वस्थ रहे और घर को लौट गये। अगले ही माह मार्च में कोरोना ने पूरे देश में पाँव पसारना प्रारंभ कर दिया था। लॉकडाउन नामक शब्द पहली बार सुनने में आया। पुत्र का विवाह कोरोना से पहले घर का आखिरी बड़ा समारोह था जहाँ दूर पास के सभी रिश्तेदार आपस में मिल लिये। उसके बाद तो ऐसा सन्नाटा पसरा सबके जीवन में जिसकी पहले किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। वही हाल अर्चना का था। बेटी दामाद वापस अमेरिका लौट गये। पुत्र भी अमेरिका में नौकरी करता था वह भी चला गया। पुत्रवधू का वीजा का काम पूरा नहीं हुआ था और अब लॉकडाउन की वजह से हो भी नहीं सकता था अतः वह अपनी नौकरी पर वापस चली गई। अब घर में अर्चना और उसके पति ही थे। इतने दिन की रौनक के बाद सबकुछ पहले जैसा हो गया था, जैसे कोई समारोह हुआ ही न हो। विवाह पश्चात भी पुत्र व पुत्रवधू अलग अलग देश में थे। लॉकडाउन बढ़ता ही जा रहा था। पूरी दुनिया अदृश्य दुश्मन की गिरफ्त में थी। दिल दहलाने वाले समाचार पूरी दुनिया से सुनाई देते थे।
ऐसे में वह दुश्मन अर्चना के घर में भी प्रवेश कर गया। बाद में तो इसने लगभग हर रिश्तेदार व बहुत से पड़ोसियों को प्रभावित किया परन्तु उस समय अपनी पूरी जान पहचान में यह प्रथम केस था। ऐसा नहीं था कि उन लोगों ने सावधानी बरतने में कोई कसर छोड़ी, बल्कि कारण यह था कि अर्चना के डॉक्टर पति नित्य ही कार्य स्थल पर जाया करते थे। घर में एक दूसरे का ध्यान रखने के लिए बस वह दोनों ही थे। एक दूसरे की हिम्मत बढ़ाते बीमारी से जूझते महीना निकल गया। बच्चे सुबह शाम हाल पूछने के अलावा इतनी दूर बैठ कर कुछ नहीं कर सकते थे। बीमारी ठीक हो गई। धीरे धीरे कमजोरी भी जा रही थी। पति फिर नौकरी पर जाने लगे।
अर्चना को घर में कैद रहते हुए करीब पाँच महीने हो चुके थे। वैसे तो वह सोच से सकारात्मक ही थी परन्तु इस एकाकीपन और बीमारी ने सोच पर भी नकारात्मक प्रभाव डालना प्रारंभ कर दिया था। एक तसल्ली थी कि किसी तरह बहू बेटे के पास जाने में सफल हो गयी थी। परन्तु उन्हें उनकी गृहस्थी में प्रसन्न देखने की इच्छा जोर मारती। दूसरी ओर बेटी की नन्ही बिटिया के साथ खेलने, उस पर ममता लुटाने के लिये उसके पास जाने की इच्छा प्रबल होती जा रही थी। परन्तु चाहने से ही सब कुछ होने लगे यह तो सम्भव ही नहीं है न?
कभी कभी बेचैनी बढ़ती तो उसे लगता कि वह अवसाद ग्रस्त तो नहीं होती जा रही? ऐसे कब तक चलेगा। वह इतनी आसानी से हार मानने वालों में से तो कभी भी नहीं रही। तो अब क्यों? कुछ परिस्थितियों पर अवश्य ही हमारा कोई वश नहीं होता, परन्तु हार मानने से बेहतर रास्ता तलाशना होता है। कल्पना शक्ति सदा से अच्छी थी उसकी और शब्दों पर पकड़ भी सही थी, बस फिर एक दिन कागज कलम हाथ में लेकर भावनाओं को पन्ने पर उकेर दिया। ऐसा लगा कि इतना भी बुरा नहीं लिखा है। अपनी रचना देख कर जो प्रसन्नता होती है उसे सिर्फ कोई रचनाकार ही अनुभव कर सकता है। पति को दिखाया तो उन्होंने हौसला अफजाई की। हिम्मत बढ़ी तो कुछ और लिख डाला। कुछ अच्छे मित्रों द्वारा भी सराहना मिली। धीरे धीरे कलम गति पकड़ती जा रही थी। कहते हैं न जहाँ चाह वहाँ राह! गलत नहीं कहते। यदि हौसले बुलंद हों तो राह भी खुल जाती है और मंजिल भी मिल जाती है। समय कितना भी कठिन हो अवसर उसी में से खोजना पड़ता है। हाथ पर हाथ धर कर बैठने से कुछ भी हासिल नहीं होता। अभी तक बच्चों के पास नहीं जा पायी है वह। परन्तु अब मायूसियों का जीवन में स्थान नहीं है।
यह सब सोच कर मुस्करा दी वह।
