लोक व्यवहार और नेग रिवाज

लोक व्यवहार और नेग रिवाज

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कितने आश्‍चर्य की बात है कि इंसान अपना व्यवहार खुद चुनकर नहीं करता।उसका व्यवहार दूसरों के व्यवहार पर निर्भर होता है।जैसे ‘उसने मेरे साथ गलत व्यवहार किया इसलिए मैंने भी उसे भला-बुरा कहा। इसका अर्थ है कि सामनेवाला जैसा चाहे, वैसा व्यवहार हमसे निकलवा सकता है। यह दिखाता है कि हम बँधे हुए हैं। इसी तरह विवाह -शादी पर हम लोक-व्यवहार के साथ नेग- रिवाज का भी पालन करते है । लेकिन कभी -कभी इसमें अति हो जाती है जो रिश्तों को प्रभावित करती है। 


रूपाली अंदर ही अंदर टूट रही थी और सोच में डूबी थी कि क्यों हर रस्म पर मेरे मायके से लायी हुए चीजों का नाम क्यों आ रहा है और क्यों हर रस्म और नेग के नाम पर मेरे पापा के यहाँ से लाई हुई चीज ही मायने रख रही है, सोच में डूबी हुई रूपाली को सासु माँ ने फिर से टोक दिया ये कहकर की पूजा करना है तुम्हें रीना भगवान को आज चढ़ावा तुम अपने पास से ही चढ़ाना, रूपाली को अब और भी बुरा लग रहा था कि भगवान को कुछ समर्पित करने में मुझे कोई तकलीफ़ नहीं पर मैं अब इस घर का हिस्सा हूँ, मैं चढ़ावा दूँ या मेरे पति या ससुराल वाले क्या फर्क पड़ता है। रूपाली अब तक इतना समझ चुकी थी कि नेग और रस्म के नाम पर उसके परिवार वालो से मनचाहा सामान लिया जा रहा था। शादी को 6 महीने गुजर चुके थे रूपाली ये सब सहते सहते परेशान हो गयी थी उसे उसके घर से कोई भी फरमाइश बहुत तकलीफ़ देती थी। एक सुबह ऐसी आयी जब सूरज शायद कहीं और से निकला था ,रूपाली की तबियत थोड़ी खराब थी उसके ब्लड रिपोर्ट्स आने थे जैसे ही उसने ऑनलाइन रिपोर्ट्स देखी समझ गयी कि इस घर में एक नन्हा मेहमान आने वाला है, खुशी से अपने पति को जगाया और बताया दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं था। 


रूपाली के पति ने उसका हाथ थमा और दोनों रूपाली की सास को ये खुशख़बरी देने गए जैसे ही उन्होंने ये खुशख़बरी सुनी खुशी तो कम दिखाई पर तपाक से कहा "रूपाली के मायके फ़ोन लगाओ हमारे यहां रस्म है जैसे ही खुशख़बरी मिलती है" आगे वो कुछ कह पाती ....रूपाली के पति ने पहले ही कह दिया "जैसे ही खुशख़बरी मिलती है लड़की के मायके ससुराल से मिठाई भेजी जाती है।" 

रूपाली की सास ने गुस्से में कहा ..."ये क्या कह रहे हो तुम।" रूपाली की पति ने उन्हें समझाया कि "क्या गलत कहा मैंने रूपाली के घरवालों ने हमे हीरे जैसी अपनी लड़की दी है माँ इससे ज्यादा और क्या देंगे वो । हर बार रस्म और त्यौहार के नाम पर उसके घर से सामान लेने में आपको जरा भी शर्मिंदगी महसूस नही होती क्या माँ।"


"मैं मानता हूं पहले ये नियम और रस्म थे पर आज का जमाना कुछ और है और हम सब खुद दहेज के विरोधी बनते फिरते हैं और हर त्योहार पर रस्म के नाम पर छोटा छोटा दहेज लेते रहते हैं। माँ मेरी भी छोटी बहन है उसकी भी शादी होगी क्या आप चाहती हो ऐसा हमारे साथ भी होता रहे। हमे दूसरों से वही व्यवहार करना चाहिये जो हमें अपने साथ चाहिये। "माँ शर्मिन्दा हो आँखें झुकाये बैठी रही । 



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