लंगोटिया गुरु

लंगोटिया गुरु

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पंजाब में एक बड़े पद पर नौकरी करने वाले एक बड़े अफ़सर को एक बार सरकारी काम से दो महीने के लिए दक्षिण भारत में रहना पड़ा।

उनका परिवार हिमाचल प्रदेश में रहता था जहां वो अपनी व्यस्तता के चलते दो- तीन महीने में एक बार जा पाते थे। वो अपने घर- परिवार को याद करते हुए घर जाने की तैयारी में ही थे, कि एकाएक सरकारी आदेश आने से उन्हें दौरे पर निकल जाना पड़ा। घूमते हुए उन्हें लगभग डेढ़ महीना बीत गया।

वे होटल में ठहरे हुए थे। एक शाम वो खाना खाने से पहले नज़दीक के एक मंदिर में चले गए। मंदिर बेहद खूबसूरत और विशाल था।

वहां उन्होंने देखा, मंदिर में प्रवेश करने से पहले सभी पुरुषों को अपने पहने हुए वस्त्र उतार कर मंदिर द्वारा दिया गया एक पीला वस्त्र कमर पर लुंगी की तरह धारण करना पड़ता था।


मंदिर के प्रवेश द्वार के पास एक कक्ष में कुछ युवक आगंतुकों के कपड़े उतरवा कर अलमारियों में रखवा लेते थे, और अपने हाथ से बच्चों की तरह पीला वस्त्र दर्शनार्थियों की कमर के गिर्द लपेट कर लुंगी की तरह बांध देते थे। कमीज़,कुर्ता, टी शर्ट, बनियान आदि पहन कर जाने की मनाही थी, और कपड़ा लपेट कर पैंट या पायजामा भी उतार कर टांग लिया जाता था। इस तरह केवल अंडरवियर पर वस्त्र लपेटा जाता था।

सभी दर्शनार्थी इसी वेशभूषा में भीतर दर्शन हेतु जाते थे। महिलाएं वहां नहीं जाती थीं।


अधिकारी महोदय अपने घर से तीन चार महीने से निकले हुए थे और उनका मिलन अपनी धर्मपत्नी से लंबे समय से नहीं हुआ था। शरीर का तापमान बढ़ा हुआ था और आँखें अजनबी शहर में आकर कुछ चंचल हो उठी थीं। दर्शनों के लिए जाते समय संयोग से जिस युवा होते बालक ने उनके वस्त्र उतरवा कर रखवाए और अपने हाथों से उन्हें पीला वस्त्र धारण करवाया उसकी मनमोहक छवि ने उनके अंतर को कुछ झकझोर सा दिया।


वे दर्शन के बाद होटल पहुंच कर रात भर कुछ बेचैन रहे। रात भर उनके ख्यालों में वही गोरा सुदर्शन नवयुवक आता रहा। उसके चमकते घने काले बाल, लाल तिलक से सज्जित उजला माथा और उन्हें वस्त्र पहनाती पतली अंगुलियों का स्पर्श उनकी रात को बेवजह और लम्बा बनाते रहे।

आख़िर उनके भीतर एक मंत्र चालित आवेग सा आया और वे सुबह जल्दी उठ कर एक बार फिर उसी मंदिर के दर्शनार्थ चल पड़े। मंदिर का देव मानो पूरी शक्ति से उन्हें अपनी ओर खींच रहा था।

सुबह- सुबह का समय था। दर्शनार्थियों और पर्यटकों की आवाजाही से चहल- पहल शुरू हो चुकी थी।

उन्हें न जाने क्या सूझा, वे जल्दी से नहा कर कुर्ता- पायजामा पहन कर मंदिर की ओर चल पड़े। कुछ तो मौसम की गर्मी, और कुछ बदन की, वो महीन कुर्ता- पायजामा बदन पर डाल कर चल दिए। उन्होंने भीतरी वस्त्र, बनियान- अंडरवियर भी तन पर डालने की जहमत नहीं उठाई।

मंदिर के प्रवेश द्वार पर पहुंच कर उन्होंने एक बार भीतर झांका। उनकी निगाहें उसी युवक को ढूंढ रही थीं जो पिछली शाम उन्हें मिला था।

युवक वहीं था किन्तु उसके पास तीन चार दर्शनार्थियों की कतार लगी थी। उन्होंने कुछ प्रतीक्षा की, और चतुराई से ऐसे ही समय भीतर दाखिल हुए जब युवक लगभग ख़ाली था। वे उसकी ओर बढ़े।


दिन भर में हज़ारों दर्शनार्थियों को दर्शन कराते उन युवकों को कहां ध्यान था कि कौन पहली बार आ रहा है, कौन पहले भी आया है। वो सभी तो तत्परता से मंदिर के सेवा कार्य में लगे थे, और हर आगंतुक को देख कर आत्मीयता से उसकी मदद करने बढ़ते थे।

उसी शाम वाले युवक ने दोनों हाथ में पीला वस्त्र फ़ैला कर पकड़ा और उनके कुर्ता उतार कर रखने की प्रतीक्षा करने लगा। उन्होंने बिजली की सी फुर्ती से कुर्ता उतारा और युवक के सामने किसी छोटे बच्चे की तरह खड़े हो गए।

एक कोने में खुली अलमारी की आड़ में खड़े युवक ने उनकी कमर पर पीले वस्त्र का घेरा डाला और उनकी ओर देखते हुए उनके पायजामे के खुलने का इंतजार करने लगा।

दर्शन को आए अधिकारी महाशय ने कुछ कंपकंपाते हाथ से धीरे से बंधन खोल दिया। लड़का तुरंत भांप गया कि इस धीरे- धीरे नीचे आते वस्त्र के नीचे और कुछ नहीं है। किन्तु वो युवक धर्म और आध्यात्म के रास्ते पर चल रहा बटुक था, कोई बाजारू शोहदा नहीं।

उसने अपना धैर्य नहीं खोया, वो क्रोधित भी नहीं हुआ और न ही उत्तेजित। आख़िर वो भी चढ़ती उम्र का युवा था। सामने निपट खुले तन को देख कर उसकी कोई भी भावना जाग सकती थी।

उसने शांति से कहा- एक मिनट रुकिए ! और पलट कर अलमारी के कोने से एक लाल रंग की पतली सी लंगोट उठाई और घुटनों के बल बैठ कर उन दर्शनार्थी महोदय की जांघों पर अपने हाथ से बांधने लगा।


लंगोट कस देने के बाद उसे बांधते हुए युवक बोला- ये ईश्वर के सम्मान के लिए नहीं है, वो तो सब जानता है, ये अपने संयम के लिए है ताकि उससे मिलते समय आप अपने मन को एकाग्र कर के स्थिरचित्त रह सकें। युवक ने मुस्कुराते हुए लंगोट के ऊपर पीला वस्त्र लपेट दिया।


उन्हें न जाने क्या सूझा, उन्होंने तत्काल झुक कर युवक के पैर छू लिए।

दर्शन करने के बाद जब वो अपने कपड़े लेने वापस आए तो उन्होंने उस युवक का नाम और पता ले लिया, और वर्षों तक गुरु पूर्णिमा के दिन उसे शुभकामनाएं भेजते रहे।

युवक ने भी उनके लौटाने पर वह लाल वस्त्र उनसे वापस न लेकर उसे उन्हें ही भेंट कर दिया ताकि उनके मन में गुरु की स्मृति हमेशा बनी रहे।


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