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Rahila Asif

Abstract

4.4  

Rahila Asif

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लिफाफा सावन

लिफाफा सावन

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उसने एटीएम से निकलकर लगभग भागते हुए दूसरी बस पकड़ी।

"तुम भी लेट हो आज?" सीट पर खिसकते हुए रमा ने विनीता से पूछा।

"कुछ मत पूछ...पिछले माह की वेतन अब आयी है...और उसपर एटीएम की लंबी लाइन...किराए तक के पैसे नहीं थे आज।"

"रक्षाबंधन पर मायके जा रही हो क्या?"

"कैसी बात करती हो...? अभी तीन दिनों का आकस्मिक अवकाश लेना पड़ेगा। दो दिन तो आने जाने में बर्बाद हो जाएंगे। ऐसे खम्बा छूकर आने का क्या फायदा। आज राखी पोस्ट कर दूँगी बस..."

"हाँ सही कह रही हो,मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी।"

 अभी बस गाँव की सड़क की ओर मुड़ी ही थी, कि धमाके से साथ रुक गयी।

"सब नीचे उतर आईये, बस पंचर हो गयी है।"

कन्डेक्टर चिल्ला कर बोला।

"लो कोढ़ पर खाज...वैसे ही देर हो गयी थी, अब ये नई मुसीबत।" वह झुंझला पड़ी।

बस थोड़ा टाइम लगेगा दीदी! जब तक आप लोग हुना छाँव में बैठ जाईये। जहाँ गांव की मोड़िये झूला झूल रही हैं।"कंडक्टर अपनत्व से कहा।

दोनों उस दिशा में चल दीं।

वहाँ कुछ विवाहित, कुछ कुँवारी लड़कियाँ सावन के गीतों में मग्न, झूलों पर पेंड लगा रही थीं। विनीता के मन में शायद हूक उठी।

"यार..., सावन का सही आनंद तो ये लोग ले रहीं हैं। एक हम हैं गृहस्थी और जॉब की चक्की में ऐसे पिस रहे हैं कि कब सुबह से शाम हो जाती है पता नहीं चलता। नहीं तो कभी इसी रक्षाबंधन पर कितने उल्लास, कितनी उमंग से भरे हुए होते थे।"

उसने ठंडी उसांस छोड़ते हुए कहा।

"कभी तो लगता है हमारी पुरानी संस्कृति की सौंधी खुशबू यदि कहीं ज़िंदा है इन गाँव खेडों की गलियों में..."


तभी साईकिल की लगातार बजती घण्टी ने उन दोनों का ध्यान आकर्षित किया। एक मोहक मुस्कान बिखेरता मनिहारी सावन पर अपनी सोलह श्रृंगार की दुकान सजाय; उसी ओर चला आ रहा था। सारी लड़कियाँ झूलना छोड़, उस ओर दौड़ पड़ी।

बिंदी,चूड़ी,गिलट की मोटी-मोटी पायलें,मुंदरी परांदे,लाली,काजल क्या नहीं था।

"बापरे...!ये तो पूरा का पूरा मीना बाजार सजाए घूम रहा है।" उसने हंसकर कौतूहलवश आँखे चौड़ी करते हुए कहा। लड़कियाँ चहक-चहक कर मोलभाव कर रही थीं। कुछ ही देर में चंद रुपयों में उन्होंने सोलह श्रृंगार खरीद लिया। 

विनीता का हाथ अनायास अपनी कई गुना मंहगी अकेली हीरे की पतली सी अंगूठी पर फिर गया।

"रमा, एक जीवन ये है बिना ब्रांडेड सात रंगों से रंगा। और एक मेरा तुम्हारा...!इतने समान में तो हजारों लुटा देते और इसके बाद भी ऐसी खुशी,ऐसा उल्लास ना देखने को मिलता।"

"ज्यादा इमोशनल मत हो यार...! इनकी और अपनी लाइफ स्टाइल में जमीन आसमान का फर्क है। हम इनसे कई मामलों में बेहतर है।"

उसकी इस बात पर विनीता ने उसे भेदती नजरों से देखा।

"यदि हम बेहतर हैं तो ये तीज त्यौहार की खुशी,ये दमकते चेहरे, ये मंगल गीत...कहाँ हैं ये सब ?"

"छोड़ यार ऐसी बातें...इन सब के बदले में जो हमारे पास है इनके पास नहीं है डियर! इन सब बिना तो हम जी ही रहे हैं, लेकिन उसके बिना अब हम नहीं रह सकते।"

रमा ने विनीता के फूले हुए पर्स पर हाथ मारते हुए कहा।

"...!"

उसने चौंक के पर्स को देखा।

"आ जाओ दीदी!टायर बदल गया ।"कंडक्टर ने आवाज़ दी

फिर बिना कुछ कहे विनीता ने अपने फूले हुए पर्स को बगल में दबाया और मुड़ कर चल दी।"


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