बहुत बड़ी भूल
बहुत बड़ी भूल
"नहीं उस्ताद इसकी आँखें नहीं...आँखों में गजब की मासूमियत है। लोग इन्हें देखकर ज्यादा पसीजेगें...!"
"पट्ठे , बोल तो तू सही रहा है... तो ठीक है फिर कल आरा ले आ... इसे भी जल्दी धंधे पर लगाते हैं।"
काने उस्ताद की कुटिल मुस्कान और बात का आशय बेशक नन्हा राजू ना समझ पाया हो, लेकिन वहाँ मौजूद सारे बच्चे सहम गये।
रात बहुत हो चुकी थी । उस सीलन भरे दड़बेनुमा मकान में दिनभर के थके मासूम कभी के बेसुध हो सो चुके थे। लेकिन काने उस्ताद की बात का मतलब मुन्नी से जानने के बाद राजू की आँख से पानी नहीं रुक रहा था।
"चुप हो जा ...अब रोने से क्या होने वाला है।" पास लेटे लँगड़े छोटू ने छत ताकते हुए कहा।
"मुझे पापा की मार के डर से घर नहीं छोड़ना था। मैंने बहुत बड़ी भूल की..।"
" इसी मार के डर से मैं भी घर से भागा था। लेकिन यहाँ आकर समझ आया वो उनका प्यार था, फिक्र थी। डर क्या होता है ये तो यहाँ आकर पता चला ..." कहते हुए उसका गला रुँध गया, सहसा उसका हाथ कुछ महीने पहले काटे गए पैर पर चला गया।