लघुकथा "पूंजी"

लघुकथा "पूंजी"

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"देख लिया न तुम्हारे लाड़ प्यार का नतीजा, मौका होते हुए भी इसे कोचिंग इंस्टीटूट नहीं भेजा, लो अब भुगतो।"

 बेटे के दसवीं के मार्क्स देखते हुए पति मुझ पर गुस्सा हो रहे थे।

बेटा एक तरफ सिर झुकाए बैठा था क्योंकि उसे भी आशानुकूल परिणाम नहीं मिला था। 

"जितने मार्क्स लाया है वे अच्छे ही हैं, जाओ बेटा तुम दीदी के रूम में जाओ।" कहते हुए मैंने उसे दूसरे कमरे में भेज दिया।

उसके जाने के बाद मैंने पति की ओर देखते हुए कहा, "कंप्यूटर इसका फ़ेवरिट सब्जेक्ट है और उसमें उसे प्रोग्रामिंग करने का जुनून था जिसे दबाना मैंने उचित नहीं समझा। आप जानते हैं कि हम लोगों ने दो महीने तक कोचिंग संस्थान की फीस भी भरी रखी कि यह कोचिंग चला जाए लेकिन वह नहीं माना, उसके बाद यदि हम जबरदस्ती करते तब या तो बेटे का विश्वास खोते या उसका जुनून।" 

"अब इसके मार्क्स कम आए हैं लेकिन यह कभी भी हमें यह नहीं कह पायेगा कि मुझे आपने मौका नहीं दिया या हमेशा खुद को ही मुझ पर थोपा है।"

 "हो सकता है अब यह  पढ़ाई को गंभीरता से लेगा अन्यथा हमारी बात मनवाने में अब हमें भी आसानी रहेगी क्योंकि इसको अपने निर्णय का परिणाम पता है।"

"अब हो सकता है बेटे को अपना लक्ष्य हासिल करने में एक साल ज्यादा लग सकता है लेकिन जो विश्वास की पूंजी हमने पाई है वह अक्षुण्ण रहेगी।"

अब पतिदेव भी मुझसे सहमत थे।


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