लघुकथा- "पाप-पुण्य"
लघुकथा- "पाप-पुण्य"


”हाय रे मेरी किस्मत,भगवान जाने कौन से बुरे कर्मो का फल है जो ऐसी बहू मिली”, सास ने फिर बहू के पीठ पीछे अपनी बहिन से ताना मारा। तभी बहू का कमरे में चाय और नाश्ते के साथ आगमन हुआ। सास और मौसिया सास चौंक के चुप हो गईं। बहू नाश्ते की प्लेट लागते हुए बोली, सच कह रही थी मम्मीजी ये सब पुराने पाप-पुण्यों का हिसाब होता है, किस को कौन कैसा मिले। मैं और मेरे मायके वाले तो अपनी किस्मत सराहते नहीं रुकते कि भगवान जाने कौन से सद्कर्म किये हमने कि ऐसा ससुराल मिला है। मेरी माँ तो यहाँ तक कहती है कि पिछले जन्म में मोती नहीं हीरे लुट
ाये होंगे जो ऐसी माँ से बढ़ के सास मिली, मुस्कान के साथ अपनी बात कह बहू फिर किचन को बढ़ ली। उसके बाद से पर सास का दिमाग तो ये सोच सोच के ख़राब है कि क्या बहू ने उनपे कटाक्ष किया । उसकी बात सुनके कि, हम पापी है और बड़े इसके मायके वाले पुण्य-आत्माएं ठहरे या ये जताया के कितना बड़ा दिल है बहू का के अपनी बुराई पे भी आपा खोये बिना मेरी बातों का जवाब दे गई। बहू सच में खुद को भाग्यशाली समझती है और इस घर को, गृहस्थी को ख़ुशी से संभाल रही है, सास को माँ का दर्ज़ा दे रही, ये बात शायद सास होने के नाते उनकी सोच से भी परे थी।