लापता
लापता


बदहवास सा घूम रहा था वो। इधर उधर भटकता हुआ रास्ते पर जो भी मिला उससे गिड़गिड़ाते हुए अपने हाथ में एक तस्वीर लेकर उसका पता पूछता है। लोग एक नजर डालकर सिर हिलाते हुए निकल जाते हैं लेकिन कोई भी उसके साथ सहानुभूति भरा एक शब्द नही बोलता। तीन चार घंटे तक भटकने के बाद वह पुलिस से मदद लेने के लिए चल पड़ा।
पुलिस के पास पहुंच कर उसने विश्वास की सांस ली। उसे विश्वास था कि पुलिस उसकी मदद जरूर करेगी और वह उससे फिर मिल पाएगा।
अब शुरू होता है पूछताछ का सिलसिला। वह कौन है?, कहाँ से आया है?, किसको ढूंढ रहा है?
“नाम क्या है तुम्हारा?”
“जी एकनाथ।”
“किसे ढूंढ रहे हो?”
“जी अपनी बेटी को।”
“कैसे खो गई वह।”
“जी उसे झूले पर खेलना पसंद था। वह मुझसे पार्क ले जाने के लिए जिद किया करती थी लेकिन मेरे पास समय नहीं था उसकी जिद पूरी करने का। फिर आज जब मैं घर लौटा तो देखा, वह घर पर मिली ही नहीं। मैं उसे हर जगह ढूंढ चुका हूँ। सड़कों की खाक छान चुका हूँ।”
पुलिस अधिकारी ने उसकी बेटी को ढूंढने के लिए जैसे ही तस्वीर मांगी, वैसे ही उसके हाथ कांप गए। बेटी के लापता हो जाने के बाद उसकी तस्वीर ही तो उसके लौट आने की उम्मीद जगा रही थी लेकिन उसे ढूंढने के लिए उसकी तस्वीर ही एक रास्ता था। उसने कांपते हुए हाथों से वह तस्वीर पुलिस को दी और इस उम्मीद के साथ घर लौट आया कि एक दिन उसकी लापता बेटी अपने घर लौट कर आंगन में लगे झूले पर खेलेगी।
उसने अपने जीवन के दस साल इसी उम्मीद में जिये है कि कभी तो उसकी लापता बेटी उसके पास होगी और उसकी यह उम्मीद अभी भी जिंदा है।