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क्रोध

क्रोध

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क्रोध!
क्रोध!
आक्रोश!
मेरे दिल और 
मेरी आत्मा में 
अंदर तक विद्यमान 
कभी आवेग कम 
तो कभी प्रचंड 
कभी रहती मैं शांत सी 
तो कभी निहायत उद्दंड 
सब कर्मो का आधार ये 
सब दर्दों का प्रकार ये 
उद्वेग 
जो कारण उग्र होने का 
आवेश 
जो कारण 
उष्ण होने का 
आक्रोश 
करता है अलग 
आवेश 
बनाता हैं अवाक्
क्रोध 
जो घर किए है 
भीतर 

क्रोध 
जो भीतर छिपा है 
हमेशा के लिए 
रोम रोम में 
असहाय 
विकराल रूप में 
मुझ में भी 
तो तुझ में भी 
विवशता उसके हाथ में 
खेलने की 
कभी रुलाता है 
तो कभी विध्वंसता 
की तरफ खीचता सा 
कभी पापी 
कभी पागल 
खून से भीगी बारिश 
आँसुओ की रिमझिम सा 
कभी सकारात्मक 
तो कभी नकारात्मक 
अंत में हमेशा रहा हैं खाली हाथ ...
यह क्रोध 
आवेश 
उद्वेग 
आक्रोश 
खून की बारिश 
 
आँसुओ की बाढ़ 
कोई कुछ न कर पाया 
आज भी है तुम्हारे मेरे भीतर 

बेटियाँ आज भी क़त्ल हो रही हैं 
पूरे ज़ोरो शोरो से....
और हम सिर्फ गुस्से में हैं
 
नारे लगाते हुए
 
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के...


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