कोरोना — प्रकृति और मानव का संवाद
कोरोना — प्रकृति और मानव का संवाद
क्या खूब है ये शाम भी अदभुत भी है वीरान भी।।
सन सन बहती ये हवा कईयों के मन की है दवा।।
हुंकार भरकर श्रृष्टि कहती।
मानव चल, दे अब और जीवों को जीवन नवा।।
सूनी हैं ये तंग गलियां सन्न हैं ये सब मीनारें।
उठ खड़ी ये रूह है देख ये महफ़िल नजारें।
कल कल शुद्ध शीतल बह रही है नीर की ये छीर धारा।
पल पल सोच के मैं हंस उठा, क्या अब मनुष्य हारा।।
अब तुम ही देखो न ये मंज़र सारा।।
अब कहां गए वो वीर जो दागते थे बातूनी तीर
दृंड संकल्प था जिनका की मिटा देंगे ये धरा
आज संकट में है उनकी ये जीवन अक्षरा।।
देख सुन ये मैदान है बस मांगते प्रस्थान हैं।।
क्या गुम गया तेरा ज्ञान है।
क्या लुट गया तेरा ध्यान है।
बस शेष जो बचा वो तेरा अभिमान है।।
सून ये आकाश है, तीक्ष्ण ये प्रकाश है।
धरा पर बिछती लाश है, जीव तेरा ये नाश है।।
मुझको तुझपर धिक्कार है बहुत किए तूने प्रहार है ।
देखो अब कैसे खड़ा लाचार है।।
सह लिए अत्याचार वो निर्बल पर तीखे वार वो।
घुट घुट कर पी लिए प्रबल प्रहार वो।
तू करता था आधुनिक वार जो।।
ये तेरा मेरा द्वंद है, जिसमें तेरा विध्वंश है।
काल रचित ये जाल है, स्वयं मेरा ये माया जाल है।
बहुत किया तूने जतन, अब आरंभ तेरा ये पतन।।
अब देख मैं हूं काल सी
कराल काली विकराल सी
देख...... देख न
क्या खूब है ये शाम भी अदभुत भी है वीरान भी।।
