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Sheetal Raghav

Tragedy Others

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Sheetal Raghav

Tragedy Others

कोरोना दंश

कोरोना दंश

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आज धीमी धीमी हवा जो शायद अपने थकने का एहसास बता रही है कि वह कितनी थकी और मायूस है। अपने थके कदमों से 31 दिसंबर का दुख बयां कर रही है।

तुम्हारे, हमारे घर आने से कितना व्यापक दुख हमारे जीवन में फैल गया है। हर मन में अशांती और हर जन और डर का जैसे माहौल गमगीन हो गया है

शाम का वक्त मंदिरों की घंटियों की आवाज के बीच में कोरोना महामारी का आगाज पूरे शोर के साथ फैल गया। सब भागे अपने अपने घर में जैसे कोई चोर मन में घुस गया है

हर कोई दुख में अपने अपनों की सलामती की दुआ को भगवान तक भेज रहा था। हवा रुक गई थी। चारों तरफ सिर्फ सन्नाटा कायम था।

पक्षी भी जैसे इस थकी हुई हवा को अपने चारों तरफ महसूस कर पा रहे थे। डाल पर सुन्न होकर बैठे पक्षी जैसे किसी अनहोनी होने की शंका का संकेत दे रहे थे।


मेरे घर के सामने वाले खेत के किसान थके कदमों से हल्की हल्की हवा के बीच से डरे शहर में धूल भरे पैरों से हाथ और पैरों में सिर्फ निराशा लिए घर की तरफ बढ़ रहे थे। यह सब कितना भयानक और तकलीफ दाई था? एक तरफ जैसे सूरज चमकना बंद कर रहा था। दूसरी ओर मन में शोर बढ़ रहा था।

वहीं दूसरी तरफ सूचना पटलों पर और समाचार में शहर बंद करफ़्यू और न जाने कितने प्रकार की दुखद घटनाओं का समावेश था।

पक्षियों का कलरव भी शांत सन्नाटा फैला हुआ था। रात हुई तब उल्लू घर खरखुश्टों की आवाज में रुदन साफ साफ दिखाई दे रहा था।


आज लग रहा था जैसे दीयों की टिमटिमाती रोशनी हमें सुखद एहसास नहीं बल्कि डरा रही हो। रिश्तों की जो प्यार भरी आती थी, छुनछुन की आवाज कोरोना से अब वह भी नहीं आती है पास ! कभी रिश्तों की खनकने की आवाज आती थी। आस पास ,आज लगता है कोरोना के डर से वह भी हो गई उदास ! कितना कुछ हमसे छीन लिया, हर जगह सिर्फ बस दुख और दर्द ही दिया।

आज उल्लू और खरखुश्टों से शांति को कोई भंग नहीं कर रहा था। कोई अशांति नहीं थी। उनके आसपास बस था तो, एक सन्नाटा। जो बोझिल सांसो और मन के भावों को टटोल रहा था।

खेत में बंधे बैलों की जोड़ी एक तक एक दूसरे की तरह खामोश देख रही थी। क्या हुआ जो मालिक हमें दुलारे बिना थके थके बोझिल कदमों से हमें देखे बिना चला गया। बैलों के गले की घंटी के स्वर मंद और बंद थे। हवा कितनी जटिल लग रही थी। हे प्रभु आज यह सन्नाटा दिल को खल रहा था। जैसे यह कठिनाई का दौर हर इंसान की खुशियों को छल और निगल रहा था।

बच्चे डरे सहमे से में घर के आंगन तक भी नहीं जा पा रहे थे। मां की गोदी में बैठे बैठे रो और चिल्ला रहे थे। सब कुछ कितना भयानक सा, होता जा रहा था।


दिल का सन्नाटा भी तो दिल को ही खा रहा था। अपने अपनों की जुदाई से मन घबरा रहा था पर लाचार हो आदमी कुछ भी तो नहीं कर पा रहा था। अब तो करोना का दंश बढ़ता ही जा रहा था। अपना अपनों से बिछड़ कर रो और चिल्ला रहा था। ना दवाइयों का इंतजाम ना भूख का ही कर पा रहा था। जो था इंसान के पास बस दुख में गवाही जा रहा था। मौत पर किसी का जैसे कोई बस ना रह गया था जो था उसके पास बस छूटता था जा रहा था। हे प्रभु कितना भयानक दृश्य है, दिखलाया । सब ने है मन से दया धर्म को भुलाया । 


पैसों के लिए लोग अंधे हो रहे थे। गिरकर इंसानियत की नजरों से बस पैसा पैसा करने में लगे थे। कोई ऑक्सीजन की सप्लाई रोक रहा था तो कोई दुगने तिगुने या उससे भी ज्यादा भाव पर इंजेक्शन बेच रहा था। प्रभु तूने कैसी माया है दिखलाई किसी को भी पलट कर इंसानियत ना नजर आई। कभी बूढ़ा तो कहीं जवान जा रहा था। कोई किसी की भी बाहर निकल कर मदद नहीं कर पा रहा था।

वाह रे मालिक तेरा कैसा इंसाफ है आज इंसान इस दुर्गति का जैसे खुद ही तो जिम्मेदार है। कितनों कितनों के अपनों को ले गई महामारी नाम करोना पर कुछ भी ना करने से इसका कुछ नहीं होना ।

जैसे अब सिर्फ सपना है। कितना व्यापक और विकराल रूप था हर जगह बस थी त्राहि त्राहि। दिल सूना, मन भी है सूना, गाँवों का हर पनघट सूना ।

जंगल सुनसान, पगडंडी या सुनसान खेत खलियान और किसान का मन भी सुनसान । हर घर के बाहर जैसे बन गया मन श्मशान।

बोझिल मन भी ,बोझिल तन भी ,जानवरों के गले तक की घंटियां भी जैसे टनों बोझील। जंगलों से आती थी जो पक्षियों की आवाजें आज तो, महामारी ने उसे भी कर दिया सूना।


सब जा रहे थे। मैं सिर्फ देख पा रही थी। मदद के लिए तो क्या खुल कर मुस्कुरा भी नहीं पा रही थी। छूत की बीमारी जैसे मुस्कुराने पर भी आ जाएगी।

मुंह पर लगा मास्क भी अब तो मुंह चिढ़ा रहा था। खुलकर बात करने और हंसने पर भी महामारी का डर प्रतिबंध लगा रहा था।

अब यह दर्द नहीं सहा जा रहा था। मन बार-बार अपनों के हित से जुड़ी समस्याओं से घबरा रहा था।

कल जब मैं ना रही तो इन सबका ध्यान कौन धरेगा, कहीं नहीं रही। मैं तो मेरे दुख से मेरा परिवार तो नहीं थकेगा।

सुन्न अब हाथ की हथेली हो रही है। लगता है हर तरफ अब बस मानवता रो रही है और सो रही है।

बैल बुद्धि कुछ लोग जश्न मना रहे थे। उसके बाद वह अपनी ही जीवन लीला समाप्त करने का जैसे हवन करा रहे थे।


अस्पताल भरे पड़े थे। मरीजों से लोग दवा - दारू का इंतजाम तक नहीं कर पा रहे थे। हमारे पास की शर्माइन शर्मा जी को बचाने के अथक प्रयास में लगी थी। बच्चे उनकी सलामती के लिए हवन पूजा करा रहे थे। अब तो लगता है यही जिंदगानी है, इसी में लगता है पूरी जिंदगी बितानी है।

जब कभी दुनिया से मैं चली जाऊं तो उंगली मेरी तस्वीर की तरफ करके दिखा देना करोना का तांडव का मुझे भी दर्द था । यह कहानी तुम जरूर उनको भी सुना देना।।



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