KAVY KUSUM SAHITYA

Drama

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KAVY KUSUM SAHITYA

Drama

कलयुग और रावण

कलयुग और रावण

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जग में अंधेरा, मन में अंधेरा अंधेरे का साम्राज्य।

राम विजय के विजय पर्व कि खासियत खास।         

लक्षण जैसा भाई कि मर्यादा का मान।

रावण छल, प्रपंच,द्वेष दम्भ , धर्म विभीषण भ्राता कि विजय।       

हार युग पंडित ,विद्वान रावण अहंकार ,स्वाभिमान का संघार।

रावण दहन अहंकार ,अभिमान के ग्यान का नाश।         

त्रेता से पीढ़ी दर पीढ़ी रावण मरता जलता।           

फिर भी जग में युग मानवता के मन में जगता नहीं जलता नहीं सत्य सत्यार्थ प्रकाश।

रावण का जलना विकृत, अन्याय, अत्याचार, द्वेष, दंभ घृणा के भस्म से उठता।      

हर वर्ष मर्यादा मानवता मूल्यों का प्रकाश फिर भी जग में जग के मन में अंधेरा का राज्य।

रावण भी मरते -मरते जलते- जलते ऊब चुका है थक चुका है करता खोखले मर्यादा के राम का परिहास।

रावण हर वर्ष मरता जलता नहीं जलता मरता भय भ्रष्टाचार का साम्राज्य।             

कहाँ गयी वो मर्यादा मानवता जो आनी थी मेरे मरने जलने से।   

मैंने तो बस एक जानकी का हरण किया अब हर दिन जानकी मांग रही हिफाज़त जान इज़्ज़त प्राण कि।

युगों युगों से जलते मरते रावण कि गूँज रही अट्टहास।     

करती युग से ही सवाल मैं अत्याचारी, अन्याई, अहंकारी, अभिमानी दिया चुनौती अपने युग को अपने मूल्यों उद्देश्यों में

ब्रह्मांड का सत्य सारथी मर्यादा पुरुषार्थ ने युद्ध किया मुझसे युग परिवर्तन प्रकाश के सन्दर्भ में।

रावण जलते मरते कहता मेरे मरने से अहंकार, अभिमान, घृणा, क्रोध, का नाश।       

मेरे जलते प्रकाश से जग में अंधेरे का नाश करो।            

तब मेरा जलना मरना युग धर्म मानवता का संवर्धन संरक्षण होगा पथ युग का होगा प्रकाशित।

मर्यादा का राम युग राष्ट्र में होगा प्रतिस्थापित।

भय रहित रहो, विशुद्ध सात्विक सत्य रहो मर्यादा के मूल्यों के उल्लास के विजय पर्व का युग अमूल्य रहो।

मेरा एक भाई था कुल विध्वंस भ्राता द्रोही।             

अब आज हर कुल परिवार में, हैं द्रोही विध्वंस भाई।        

खुद के स्वार्थ में कुछ भी असंभव को संभव कर अन्याय, पाप को मर्म राम का धर्म राम का कहते नहीं थकते।        

[मै प्रतीक अधर्म का मुझमे भी अच्छाई कुछ।            

राम पूर्ण धर्म का प्रतिनिधि आदि अनादि अनंत प्रतिबिंब आत्म भाव।                   

देखो एक ओर हम खड़े दूजाअंश सूर्य बंश हर सुबह युग के अंधेरे को मिटाता फिर भी अंधेरा आता।    

मेरी नाभि का अमृत मुझे अमर नहीं कर पाया।           

फिर भी युग में पाप पूंज के अंधेरे कि किरणों में एक उजाला राम।  

स्वय भगवान् सर्व शक्ति मान सूर्याअँश हर प्रातः का नव जीवन संदेस जीवन उद्देश्य फिर भी राम सिर्फ एक प्रतीक।   

नव ग्रह दीगपाल हमारे कदमाे और सेवा में देवो का राजा इंद्र मेरे पाव पखारे मेरे कदमों से अवनी डोले!

शिव शक्ति कि भक्ति में मैंने अपने ही दस बार सिस चढ़ाये।

मेरी बीस भुजाएं मेरे पराक्रम कि परिभाषा।              

मैंने शिव आसन आवास को कैलास पर्वत को उठाया।  

कुबेर का पुष्पक मैंने साहस शक्ति से पाया, सोने कि लंका मेरी फिर भी सुख चैन कभी ना भाया।    

मुझे मारने के लिए ब्रह्मांड सत्य के सत्य ब्रह्म ने स्वयं लिया मर्म मर्यादा का मनुज अवतार ll    

दसों दिशाओं भुवन लोक में मेरी तूती बोले।              

भुवन भास्कर, चांद और सप्तर्षि मंडल मेरे इक्षा और इशारे।    

ऋषियों के रक्त कर कलश से जग शेषनाग के फन कि अवनी के हृदय भाव में स्थापित कर ख़ुद कि चुनौती के आधार का किया निर्माण।

मुझे मारने की खातिर तापसी वेश उदासी वन वन भटका।  

पत्नी वियोग में साधारण मानव सा रोया।           

अविनाशी ईश्वर पत्नी कि मृगमरीचीका माया में खोया संग भाई बैरागी चौदह वर्ष नहीं सोया।

एक लख पूत सवा लख पौत्र उत्तम कुल पुलस्त का मैं नाती।   

विषेसर्वा पुत्र मय दानव का जमता ऋषि दानव के सयुक्त रक्त श्रेष्ठ ताकतवर कुल परिवार।

मुझे मारने में नहीं सक्षम अकेला मर्यादा पुरुषोत्तम का अवतार।

चौदह वर्ष रहा जागा लक्षण शेषाअवतार, बानर, रिछ, कि मित्रता कि भी बड़ी दरकार।  

अपने युग जीवन में बना रहा चुनौती रचडाले कितने ही इतिहास।               

युद्ध अनेकों विजय गाथा कि गाथा का संसार शस्त्र, शास्त्र के कर डाले कितने अविस्कार।    

रामेश्वर तट पर शिवा बना गवाह टूटी सागर कि मर्यादा का स्वाभिमान।            

नदिया सागर पर्वत प्रकृति ब्राह्मण के दर दर भटका स्वयं पर ब्रह्म ब्रह्मांड।

युद्ध भूमि में भाई कि खातिर करता रहा विलाप।    

हनुमान सा स्वामी भक्त जामवंत सा हमराज।    

सम्पति कि गिद्ध दृष्टि जटायु का भक्ति भाव,।           

लाखों ऋषियों के श्राप का मेरे कंधो पे भार।          

कितने यत्न प्रयत्न असंभव के संभव से मेरे समक्ष युद्ध भूमि मुझे मारने पहुचें श्री राम।    

रावण के मरने जलने का उमंग उल्लाश में विजय पर्व मनाते हो।

ना राम कि मातृ पितृ कि भक्ति ना साहस शक्ति मर्यादा फिर मेरा राम से मारा जाना जलना क्यों विश्वास आस्था।         

पौरुष, पुरुषार्थ पराक्रम से मैं लड़ा कितनी बार छकाया और थाकाया हरा और मरा भी कितने ही इतिहास बनाए।

छुद्र स्वार्थ में, खुद के सुख के विश्वास में कितने रक्त बहाते।   

अबला नारी कि चीत्कार से सुर संगीत सजाते तुम।         

मैंने तो जानकी को ना देखा ना उसने मुझकॊ देखा।       

तुम क्या जानो मेरे मरने जलने कि मेरी वेदना का मतलब तुम अंधे सावन के तुमको अपने मतलब के मानव दानव।     

ना तुममे रावण जैसा पराक्रम ना शस्त्र शास्त्र का ग्यान सिर्फ अहंकार।               

भ्रम में रावण का मरना जलना तेरा विजय उल्लास ना हो रावण तुम ना मर्यादा के तुम राम।     

भाई भाई लूट रहा बहना को भाई लूट रहा।                

माँ को बेटा लूट रहा हर रिश्ते को रिश्ता लूट रहा।            

ना कोई शर्म लाज़ है ना कोई अनैतिकता कि सीमा ना राम कि मर्यादा तुम ना रावण कि गरिमा।

आते मेरे मरने जलने पर विजय पर्व उल्लास किस बात का।    

मैं तो त्रेता में मरा जला तब से अब तक जलते मरते युगों युगों से दुर्दशा राम कि देख रहा हूँ।

बेबस, लाचार मैं एक बार मरा जला तब से राम पल पल घूँट घूँट कर अपनो से अपमानित।    

अमर्यादित होकर सूर्य वंश के सूर्याअँश के सूर्योदय के अंधेरे में भटक रहा।

छोड़ाे व्यर्थ मेरे मरने के उल्लास का विजय पर्व।           

एक बार सिर्फ एक बार मेरे जलते आग से खुद में छुपे बसे रावण को मारों।               

मेरे जलने के प्रकाश से खुद के अंधकार को त्यागों।        

तब मरना जलना रावण का विजय पर्व युग के अंधेरे का उजियारा।                       


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