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Subhadeep Chattapadhay

Abstract

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Subhadeep Chattapadhay

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ख़त

ख़त

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रोज़ दफ़्तर में देह थकाने के बाद शरीर व मन में नींद इस कदर समा जाती है कि टांग, हाथ, रीढ़ में, हिलने तक की ताक़त न बचती है । फिर भी मज़दूर हूँ मजदूरी से मुंह न फेर सकता हूँ । कई बार ख़्याल आया, आज भी आ रहा है, छोड़ के निकल जाऊं पर घर की हालत भी तो सीधी नहीं है और इस वक्त इस से ज्यादा विरक्ति मुझे इस बात से है कि अभी घर तक चलना होगा, खाना बनाना होगा,और वगैरह वगैरह काम । ये बातें मुझे हर बार खाने से मुड़ने को मजबूर करते है, नित यही होता है, भूख और नींद के द्वंद्व में नींद जीत जाती है, परंतु नींद की पराकाष्ठा सिर्फ एक व्यक्तिगत जीत दिला सकती है, पारिवारिक स्तर पे भूख हर सुबह जीत जाता है । ख़ैर अब इन बेकार ख़्यालो में देह थका के लाभ नहीं । मैने दफ़्तर की चाबी गार्ड को थमा के, अपने मार्ग पर निकल पड़ा । आज भी दफ़्तर से निकलता हुआ मैं ही आखिरी बंदा हूँ इस पूरे मार्ग में, हां!, वर्मा चौक से बाएं मुड़के थोड़ा आगे पहुंचने पर एक छोटा बाज़ार खुला रहता है, फिलहाल 10:30 बज रहे है, ये बाज़ार और आधा घंटा तक खुला रहेगा फिर ये भी इस रात की तरह चुप हो जाएगा । अपनी नींद में डूबी आँखों से इन्हें रोज़ देखता हूँ । अपने रोज़ के काम के अंतिम आधे घंटो में भी इतना जीवित रहके कोई कैसे काम कर सकता हैं? मैं तो दिन के शुरू से ही मृत होता हूँ, नपुंसक की तरह दफ़्तर में इधर से उधर अफसरों के टेबल पर डोलता हूँ एकदम मूक बन, मोहल्ले में भी चुप हर चीज़ से, इतना चुप कि उनको अब लगने लगा होगा की मैं यहां रहता ही नहीं हूँ । मेरा अस्तित्व एक चुप्पी में गुम गया है, मेरे होठों में सिलाई चढ़ी हुई है, मज़बूरी की, या उससे भी बुरी डर की सबसे और कोई है जो सिलाई के अंदर से खूब चीखता है पर सिलाई टूटती नहीं सिर्फ कुछ खरोंच दे जाती है । 

इस मोड़ से घर तक का रास्ता प्रायः खाली रहता है, परंतु यही वो जगह है जहां मैंने अपने नपुंसक होने का दर्जा पाया । कुछ दिनों से यहाँ बड़ी गाड़ियों में जवान जवान लड़कियों को भर ले जाया जा रहा था, फिर एक दो बार खाली गाड़ियां भी देखी मैंने, ये भरी गाड़ियों का जाना और खाली गाड़ियों का आना लगा रहा । और उनका मुझे और मेरा उन्हें देखना लगा रहा । 

कई बार देखने के बाद खुद में समा न पाया, पर ज़ुबान तो चुप्पी में गुम थी, तो बड़ा सुंदर, सटीक, काफी दिनों बाद कागज़ पे लेख लिखा, और दे दिया छपवाने, मंगरू के हाथों में कल चिट्ठी दे के कहा था मैंने, इसे पत्रिका वालों तक पहुंचा देना ।, प्रकाशन की ख़बर आई नहीं थी, और मंगरू भी आज आया नहीं था काम पे । 

15 मिनट बाद मेरे हाथ मेरे घर के ताले पर थे, मज़े की बात ये है कि मैंने इस ताले की चाबी काफ़ी दिनों पहले ही भुला दी थी, अब बस झूठ-मूठ का ये ताला लगाए रखता हूँ, इसे ज़ोर से हिलाने पर यह खुद ही खुल जाता है । आस - पड़ोस वालों का इसपर कभी ध्यान न गया, क्या मालूम उन्हें पता भी है या नहीं कि यहां एक इंसान भी रहता है ।

वैसे भी, एक बिस्तर, 3 बल्ब और एक टेबल के अलावा यहां ताला लगाने लायक कोई चीज़ है भी नहीं । घर घुसते ही टेबल पर एक लिफाफा रखा हुआ था 

To - रंजन गुप्ता 

From - मंगल

   बिहार 

भाई का पत्र है, अभी पढ़ने का मन नहीं कल देखूंगा ।

यह कह के बिस्तर पर लेट गया । आधे घंटे बाद थक थक! थक थक ! दरवाज़े पर दस्तक हुई, खोलने जाना ही पड़ा, दरवाज़ा खोला तो सामने चार लड़के खड़े थे जिन्हें मैं जानता नहीं था, पर उनके पीछे खड़ी उनकी गाड़ियों को मैं जानता था ।

ये शायद प्रकाशन की ख़बर देने आए है ।



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