Mahavir Uttranchali

Classics

4.2  

Mahavir Uttranchali

Classics

खण्डित

खण्डित

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सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति-समन्विते।

भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते॥

पीछे पृष्टभूमि पर कर्कश आवाज़ में "दुर्गा सप्तशती" का गूंजता श्लोक। बीच-बीच में मेघों से उत्प्पन दामनी की कड़कड़ाती आवाज़ें। असंख्य स्त्रियों के रोने-विलाप करने के स्वर। आगे मंच पर दृष्टिगोचर होती साक्षात् माँ काली! चेहरे पर क्रोध से व्याप्त विशाल लाल नेत्र लिए, बिखरे केशों में, क्षत-विक्षप्त लाशों पर नृत्य करती! चारों भुजाओं में दाई ओर ऊपरी भुजा पर अपना रक्त रञ्जित खड़ग थामे; वहीं दाई ओर निचली भुजा पर नए प्राण को पकड़ने को आतुर। बाईं ओर की ऊपरी भुजा पर कटा हुआ नर मुण्ड केशों से पकड़ा; नीचे बाईं ओर की निचली भुजा पर रक्त पीने वाला खप्पर। गले में कटे नर मुण्डों की झूलती माला। रावण को उस माला में इंद्रजीत, अक्षय कुमार, खर-दूषण, कुम्भकरण और हाल ही में मारे गए अपने अन्य प्रियजनों के सिर दिखने लगे। उन्हीं सिर विहीन शवों के धड़ों पर नाचती साक्षात् माँ काली। उसने ध्यान से देखा तो माँ काली की जगह उसे देवी सीता के दर्शन होने लगे। जो उसकी दुर्दशा पर हंस रही है। अब रावण को देवी के हाथों में अपना ही कटा हुआ सिर दिखने लगा।


"नहीं....." तेज स्वर में चिल्लाते लंकेश ने भय से अपनी आँखें खोल दी।


खुद को थोड़ा स्थिर करने पर लंकेश ने पाया—रात्रि का द्वितीय प्रहर अभी शेष था। उसकी भार्या महारानी देवी मंदोदरी उसके चरणों के पास बैठी रो रही थी। कई दिनों से लगातार जागने के उपरान्त आज कुछ क्षणों के लिए रावण की आँखे लगीं थीं। यकायक उसे यह भयानक स्वप्न दिखाई देने लगा तो अर्धनिंद्रा की अवस्था में जाग पड़ा। उसको अपना वैभव धूमिल होता जान पड़ा। खण्डहर होती लंका दीख पड़ने लगी। सब कुछ छिन्न-भिन्न! खण्डित!! उसके त्रिलोक विजयी होने का अभिमान चूर-चूर होता दिखाई देने लगा। अंत में अपनी पत्नी से क्षमा मांगते हुए वह बोला, "तुम ठीक कहती थी देवी मन्दोदरी कि सीता साक्षात् माँ काली का रूप है। मद में चूर मैं इस सत्य को समझ न सका। मैंने लंका के उत्तराधिकारी इंदरजीत को भी खो दिया।"


पुत्रशोक में डूबे दोनों पति-पत्नी किस अबोध बालक की तरह बिलख-बिलख कर रोने लगे।


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