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Mahavir Uttranchali

Others

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Mahavir Uttranchali

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संघर्ष

संघर्ष

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“शुक्र है तुम्हें होश आ गया!” ज्वर से बेसुध पड़े युवा कृष्णा को थोड़ा होश में आता देख, बूढ़े मनोहर काका ने जैसे रब का शुक्रिया करते हुए कहा।


“आज क्योंकर मेरी तिमारदारी करने को आये हैं, उस दिन तो लड़ झगड़ कर तुमने सारे रिश्ते ही ख़त्म कर दिए थे।” कृष्णा के हृदय में पुरानी मुलाकातों की कड़वी यादें तैर गईं।


दोनों एक ही गाँव के थे। एक साथ ही शहर में मजदूरी करने आये थे। मनोहर का लड़का ‘मोहन’ आज जीवित होता तो कृष्णा की उम्र का ही होता। मनोहर की पत्नी ‘लक्ष्मी’ भी उस अभागे पुत्र को जन्म देते ही चल बसी थी। खुशदिल और ज़िंदादिल मनोहर का धीरे-धीरे सब चीज़ों से मोहभंग हो गया था। वह अन्तर्मुखी जीवन जी रहा था, लेकिन पेट ख़ाली रहने से तो नहीं भरता।


“काका, गाँव में रहेंगे तो हम भी एक दिन भूख से मर जायेंगे। अच्छा है जब तक हाथ-पाँव चल रहे हैं। कुछ मेहनत-मजदूरी की जाये। हम दोनों ही पढ़े-लिखे तो हैं नहीं पर शहर में मजदूरी करके अपना पेट तो भर ही लेंगे।” कृष्णा ने शहर जाने से पहले बूढ़े मनोहर को समझाया था उस रात। माँ-बाप की मौत के बाद कृष्णा भी अकेला हो गया था, अतः गांव में रुकने का कोई कारण नहीं था।


अगली सुबह दोनों जने रोजी-रोटी के जुगाड़ में शहर को आ गए। जहाँ दोनों को मजदूरी मिलती वहीँ अगल-बगल में पुटपाथ में ही उन्होंने एक झोंपड़ी बना ली थी। शुरू में तो दोनों में अच्छी पटी मगर धीरे-धीरे दोनों के बीच अनबन हो गई। कच्ची दारू पीने के बाद दोनों में एक दिन खाने-कमाने को लेकर अच्छी खासी बहस हो गई। अगल-बगल की और झोपड़ियों के मजदूर व उनके बीवी-बच्चे इस लड़ाई और कौतुहल को देखने मज़मा लगाकर इकट्ठा हो गए।


“साले तू क्या कमाता है? तेरे से बूढ़ा हूँ मगर मेरे बाजुओं में तुझसे ज़ियादा मेहनत करने की ताकत है।” मनोहर ने अपनी भुजाओं की मछलियों को सहलाते हुए कहा।


“काका, ये तू नहीं थैली की कच्ची शराब बोल रही है।” कृष्णा ने कहा।


“पीता हूँ तो अपने पैसे की तेरे बाप के पैसों की तो नहीं पीता!” मनोहर फ़ैल गया।


“काका! मरे हुए बाप पे न जा।” कृष्णा क्रोधित हो उठा।


“क्या कर लेगा तू?” मनोहर नशे में झूमता हुआ कृष्णा के आगे मुंह करके खड़ा हो गया। एक-दो बुज़ुर्ग हाथ के इशारे से कृष्णा को शांत रहने के लिए कह रहे थे।


“अगर तू बाप की उम्र का नहीं होता तो मैं तेरा मुंह तोड़ देता।” लगभग घुसा दिखाते हुए कृष्णा बोला।


“ठीक है तू अपना रहना-ठिकाना कहीं और कर ले।” कहते हुए नशे की अधिकता में मनोहर वहीँ सड़क पर लेट गया और वहीँ ऊँघने लगा।

इस घटना के बाद कृष्णा ने खुद के रहने के लिए चार झोपड़े छोड़कर, एक दूसरा झोपड़ा बना लिया। दोनों एक दूसरे को तो देखते तो ज़रूर थे, मगर बातचीत दुआ-सलाम बंद थी। मनोहर को अपने कहे और किये पर काफ़ी अफ़सोस था, मगर किया क्या जा सकता था? तीर तरकश से छूट चुका था। हर घाव भर जाता है, मगर वाणी का प्रहार बड़ा निर्मम होता है। चाहकर भी व्यक्ति भूल नहीं पाता, जब भी वह कुछ दोस्ती करने की सोचे, ज़हर बुझे शब्द कानों में गूंजने लगते थे।


इस घटना को छह महीने बीत गए थे। काम की साइट पर पिछले तीन-चार दिनों से कृष्णा नहीं दिखाई पड़ रहा था। उधर शाम को अपने झोपड़े से आते-जाते भी कृष्णा दिखाई नहीं देता था। अतः मनोहर उसकी खोज-ख़बर लेने को बैचेन हो उठा। उसने कृष्णा के साथ काम करने वाले मजदूर बंसी से पूछा।


“का रे बंसी, कहाँ हो आजकल?” मनोहर ने बात कहने के लिए भूमिका बाँधी।


“राम-राम काका, हम तो यहींये रहत बा, आप ही अपनी धुन मा रहत हो!” बंसी ने सुरति तम्बाकू रगड़ते हुए कहा और क़रीब आकर मनोहर को भी अपनी ताज़ा बनाई खैनी खाने का न्योता दिया।


“आजकल कृष्णा नहीं दिखाई पड़ रहा है।” चुटकीभर खैनी ऊँगली से उठाते हुए मनोहर ने बंसी से पूछा।


“आपको पता नहीं चाचा, उसे आज बुखार आये चार दिन हो गए हैं।” बंसी ने कहा, “कुछ खा-पी नहीं रहा है, बेहोश हो जा रहा है।”


“तो मुझे पहले क्यों नहीं बताया?” मनोहर ने तड़पते हुए कहा, “तुझे तो पता है हम एक ही गाँव के हैं।”


“कृष्णा ने मुझे क़सम दी थी कि आपको कुछ न बताऊँ!” बंसी ने ऐसा कहा तो मनोहर का हृदय अपराध बोध की भावना से भर उठा। बंसी भी उस घटना के बारे में जानता था, मगर ख़ामोश रहा।


“क्या बात कर रहे हो?” मनोहर ने खुद पर नियन्त्रण करते हुए कहा, “वो तो नसमझ है, कम-से-कम तुम्हें तो बताना चाहिए था।”


“अच्छा काका मैं चलूँ, काफ़ी काम बचा हुआ है।” कहकर बंसी चला गया।


बंसी के जाने के बाद मनोहर अपने अतीत में खो गया। उसे अपने मृत पुत्र ‘मोहन’ की याद हो आई। जिसकी मौत तेज बुखार में दिमाग़ की नस फटने से हो गई थी। उस रोज़ मनोहर बेबस खड़ा कभी डाक्टर को देखता तो कभी अपने मृत पुत्र को। ‘नहीं मैं कृष्णा को नहीं मरने दूँगा।’ मनोहर ने उसी वक़्त मन-ही-मन प्रण किया, चाहे कृष्णा के ताने सुनने पड़ें। मैं उसका इलाज़ करवाऊंगा और उससे अपने बुरे बर्ताव की क्षमा भी मांग लूंगा। इतना सोचकर मनोहर काम ने अपना काम साथी मजदुर के हवाले कर दिया, “आज का बाक़ी काम तुम देख लेना लक्ष्मण, मुझे कुछ ज़रूरी काम याद आ गया है।”


“खाना खाकर जाते!” लक्ष्मण ने फावड़ा ज़मीन पर रखते हुए कहा।


“कोई नहीं मैं घर जाकर खा लूंगा।” मनोहर तेज़ कदमों से अपने लक्ष्य की तरफ चल दिया।


अपने सभी पूर्वाग्रह तोड़कर मनोहर, अविलम्ब डाक्टर मिश्रा को लेकर कृष्णा की झुग्गी में चला आया। चटाई पर अर्धमूर्छित अवस्था में पड़ा हुआ था। तेज़ बुखार से उत्पन्न कमज़ोरी के कारण वह कुछ भी देख, सुन या कह पाने की स्तिथि में नहीं था। बीमारी और बढ़ी हुई दाड़ी ने चार दिनों में ही कृष्णा को काफ़ी कमज़ोर और लाचार बना दिया था। डाक्टर मिश्रा ने कृष्णा का पूरा मुआयना करके ज़रूरी दवाई एक पर्ची पे लिख दीं। फ़िलहाल एक इंजेक्शन और कुछ हिदायत करके डाक्टर मिश्रा चले गए। ये कहकर “मरीज़ को कल सुबह तक बुखार उतर जायेगा और तुम इसके सर पर ठण्डे पानी की पट्टी बदलते रहो।”


“जी।” और बूढ़ा मनोहर पूरी रात ठण्डे पानी की पट्टियाँ बदलता रहा। सुबह के नौ बज रहे थे तब कहीं कृष्णा को होश आया। उसे लगा की उसने ‘मोहन’ की सेवा की है। कृष्णा के रूप में उसने मोहन को फिर से मरने से बचा लिया है। होश में आते ही कृष्णा पुरानी घटना की याद करके मनोहर पर बरस पड़ा, “चले जाओ।”


“मैं उस दिन के किये पर लज्जित हूँ। उस दिन से मैंने शराब पीना भी छोड़ दिया था।” हाथ जोड़कर माफ़ी मांगते हुए मनोहर बोला।


“मुझे तुम्हारा अहसान नहीं चाहिए। मुझे बुखार से मर जाने देते।” कृष्णा ने लगभग रो देने के स्वर में कहा, “वैसे भी एक मजदूर का जीना भी क्या जीना? क्या मरना?”


“तुम्हारा और मेरा संघर्ष एक जैसा ही है कृष्णा। तुम्हें मेहनत करता देख, मुझे भी इस वृद्ध अवस्था में जीने का हौंसला मिलता है।” कहते हुए बूढ़े मनोहर ने कपड़ा भिगो कर पुनः कृष्णा के माथे पर रख दिया।


“काका…!” काफ़ी कमज़ोर स्वर में कृष्णा ने अति कृतघ्न भाव से कहा। चार दिनों के इस बुखार ने उसे बुरी तरह तोड़ दिया था। उसे पहली बार परदेस में किसी अपने के होने का अहसास हुआ।


“अच्छा ये बुखार की दवा की बाक़ी खुराक चार-चार घंटे में ले लेना। दूध और ब्रेड मेज़ पर रखें हैं। पड़ोस की विमला चाची को मैंने बोल दिया है कि वह बीच-बीच में आकर तुम्हें देखती रहे। तुम्हारी ख़ैर-ख़बर लेती रहे।” खड़ा होते हुए मनोहर ने कहा, “अच्छा मैं चलता हूँ, आज की धियाड़ी बनाने। समय से नहीं पहुंचा तो ज़ालिम ठेकेदार पूरी धियाड़ी नहीं देगा।”


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