खिलौनें
खिलौनें
बच्चों के लिए हर बार नए नए खिलौने घर में आते रहे थे।कभी नानाजी तो कभी दादाजी, तो कभी मौसी या बुआ। हर बार तरह तरह के रंगबिरंगी खिलौने।बच्चों के बड़े होते माँ वह सारे खिलौने एक एक करते हुए घर के कोने में सहेज कर रख दिए थे।
बच्चे बड़े हो गए थे।हर बार फ़ोन पर वादे करते थे। "अगले साल आ रहे है हम लोग।जल्दी से स्टार्ट कर ले नए घर का कंस्ट्रक्शन।" बस पापा तो जुट गए जी जान से नए घर के लिए।मिलने लगे कभी आर्किटेक्ट से तो कभी किसी इंजीनियर से।आये दिन घर में बातें होने लगी, नए घर में यहाँ ये होगा, वहाँ वो होगा वग़ैरा वगैरा।बच्चों ने अमेरिका से ही नए घर की रट लगा रखी थी।
नया घर बहुत जल्दी तैयार हुआ और बच्चों के आने से पहले सामान भी शिफ्ट हो गया।
बच्चे आये, जैसे पूरा घर ही भर गया हो। पापा बड़े ही चाव से बेटे की प्यारी सी गुड़िया जैसी बेटी को गोद में लेकर घूम घूम कर घर दिखाने लगे।मम्मी बड़े ही रश्क से बेटे की खुशी देखने लगी।
अचानक एक कमरे के सामने रुकते हुए बेटे ने पूछा,"माँ, यहाँ क्या है?"
"यह स्टोर रूम है और देखती हुँ, यहाँ तुम किस किस को पहचान पाते हो?" स्टोर रूम का दरवाजा खोल कर माँ बड़े ही जतन से रखे हुए खिलौने दिखाने लगी।बेटे ने झट से पापा की गोद से बेटी को लिया औऱ जोर जोर से बोलने लगा, "अरे, इसे दूर करो इन पुराने खिलौने से। बड़े ही पुराने और बदरंग से है।कितनी धूल जमी होगी इनपर।चलो,जल्दी चलो यहाँ से।"
माँ के आंखों के सामने उन खिलौने के साथ खेलते हुए बेटे का सारा बचपन कौंध गया।नए घर में लाते हुए वह उन यादों में हमेशा खोयी सी रहती थी और उनको खिलौनौ में बेटे को छूने का एहसास होता था।
बेटे की अपनी गुड़िया जैसी बेटी को लेकर 'चलो चलो' में छिपे सर्द लहजे ने माँ को जैसे काठ मार गया हो।माँ जैसे बूत बन गयी।बिल्कुल वहाँ रखे खिलौने की तरह ....