Priyanka Gupta

Abstract Inspirational

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Priyanka Gupta

Abstract Inspirational

ख़्वाहिश day-5

ख़्वाहिश day-5

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"अगर समय पर नहीं आओगी तो तुम्हारी सैलरी में से पैसे काट लूँगा। ",मैं जैसे ही हाँफती -दौड़ती दुकान पर पहुँची, दुकान के मालिक ने मुझे देखते ही कहा। 

"जी सर, आगे से समय पर आऊँगी। ",इतना कहकर, मैं अपना काम करने लग गयी थी। आज कुछ नया माल आया था। बहुत सारी साड़ियों के गट्ठर मेरे सामने पड़े हुए थे ;आज मुझे सब साड़ियों को करीने से लगाना था। 

मैं, नीतांशी साड़ियों की दुकान पर काम करती हूँ।मुझ नीतांशी को साड़ी की इस दुकान पर काम करते हुए लगभग 2 साल होने को आये हैं।मुझे लगता है,साड़ियां सिर्फ साड़ी मात्र नहीं होती हैं; बल्कि कहानियाँ होती हैं ;भारत की संस्कृति की,कला के पारखी लोगों की,विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी कला और हुनर को ज़िंदा रखने वाले लोगों की। मैं नीतांशी यहाँ बिकने वाली, इन सभी साड़ियों से एक लगाव सा महसूस करती हूँ। कभी -कभी मेरा भी बहुत मन होता है कि मैं इनमें से कोई साड़ी खरीद लूँ, लेकिन इनकी कीमत देखकर मन मसोस कर रह जाती हूँ।

जब मैं मैसूर सिल्क की साड़ी पर हाथ फेरती हूँ तो ऐसा लगता है मानो चन्दन की खुशबू से मेरा तन और मन दोनों सरोबार हो गए हैं। मन करता है कि यह साड़ी नागिन सी मुझ से लिपट जाए और फिर कभी मुझसे अलग न हो।

बालचुरी साड़ी के आँचल को जब मैं अपने कंधे पर डालती हूँ तो ऐसे लगता है मानो रामायण और महाभारत के पात्रों वैदेही और पांचाली से साक्षात बात कर रही हूँ। पैठनी साड़ी को तो देखते ही मेरा मन मयूर नाच उठता है ;मानो साड़ी पर कढ़े हुए अन्य मयूरों को अपने पास बुला रहा हो।

इतने दिनों से यहाँ पर काम करते हुए, मैंने अपने मन को कैसे नियंत्रित कर रखा है ;यह मैं ही जानती हूँ। मैं सभी साड़ियों को करीने से लगाती जा रही थी। कुछ ही देर में मैंने अपना काम ख़त्म कर लिया था। 

"अरे वाह, तुमने तो सब साड़ियाँ अच्छे से लगा दी। बस समय पर आ जाया करो ;काम तो बहुत ही दक्षता से करती हो। ",मेरे बॉस ने मुस्कुराकर कहा। 

"जी सर। ",मैंने कहा। 

आज एक मेहंदी रंग की गारा साड़ी ने मुझे अपने मोहपाश में जकड़ लिया था। बड़ी मुश्किल से में उसे रैक में रख पायी थी ;मेरे हाथों से वह गारा साड़ी छूट ही नहीं रही थी। मैं वह साड़ी अपने लिए खरीदना चाहती थी। 

जब बॉस मेरी इतनी तारीफ कर रहे थे तो मैंने सोचा कि क्यों न बॉस से आज इस साड़ी पर थोड़ा डिस्काउंट मांग लिया जाए। अगर दे देंगे तो सही है ;नहीं तो मैं मेरे हाल पर तो हूँ ही।

मैंने बॉस को कहा, " सर, आज की साड़ियों में एक मेहँदी कलर की गारा साड़ी भी थी ;वह साड़ी मैं खरीदना चाहती हूँ। ६ महीनों में पैसे इकठ्ठे करके आपको दे दूँगी। हो सके तो इस पर डिस्काउंट भी दे दीजिये। "

बॉस ने मुझे ऊपर से नीचे तक देखा और फिर कहा, " डिस्काउंट तो नहीं मिलेगा। लेकिन 6 महीने तक यह साड़ी किसी और ग्राहक को नहीं बेचूँगा। "

"ठीक है, आप मेरे वेतन से हर माह कुछ पैसे काट लेना और बाकी पैसे मैं 6 माह बाद दे दूँगी। ", मैंने बॉस से इसरार करते हुए कहा। 

"ठीक है ;लेकिन 6 महीने का मतलब 6 महीने। ",बॉस ने कहा और अपना काम करने लग गए।

इधर मैंने भी ठान लिया था कि इस बार दीवाली पर लक्ष्मी पूजा तो यही मेहन्दी रंग की गारा साड़ी पहनकर करूंगी। पहली बार मैंने अपने लिए कोई अपनी औकात से बढ़कर चीज़ पाने की ख़्वाहिश पाल ली थी। वैसे भी हम निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों की जरूरतों के सामने ख्वाहिशें रोज़ दम तोड़ा करती हैं। जरूरतों के इतने पैर पसरे रहते हैं कि ख्वाहिशों के लिए जगह ही नहीं बचती। जरूरतों की रेज़गारी सम्हालते -सम्हालते ख्वाहिशें हाथों से फिसलती रहती हैं।

अपनी ख्वाहिश को पूरा करने के लिए मैंने आज ही से प्रयास भी शुरु कर दिए थे। वह कहते हैं न,

"काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।

पल में प्रलय होगी बहुरि करेगो कब ?"

रोज़ दुकान से घर जाने के लिए शेयरिंग ऑटो करती थी ;लेकिन आज वह भी नहीं किया। दुकान से घर तक मैं पैदल ही गयी ताकि कुछ पैसे बचा सकूं। रोज़ घर आते -आते थक जाने वाली मैं, आज इतना पैदल चलने के बाद भी एक अलग ही ऊर्जा का अनुभव कर रही थी। ख़्वाहिशें और सपने हममें एक नयी ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। 

कपड़े बदलकर, सीधे मम्मी के पास किचन में चली गयी थी। मम्मी सब्जी चढ़ाकर, आटा मल रही थी।

"क्या बनाया है ?",कढ़ाही पर से प्लेट हटाते हुए,कलछी कढ़ाही में डालते हुए मैंने पूछा। 

"आलू -बैंगन। ",मम्मी ने कहा। 

"आज तो तू अपने आप ही किचेन में आ गयी। रोज़ तो इतनी आवाज़ें देनी पड़ती थीं। क्या हुआ ?",मम्मी ने कहा। 

"कुछ नहीं मम्मी। आज थकान महसूस नहीं हो रही थी। ",मैंने कहा। 

प्रतिदिन की तरह आज रात भी रात का खाना खाकर मैं छत पर घूमने चली गयी थी। पड़ौस की छत पर निम्मी पहले से ही आयी हुई थी।

अरे, मैं तो अपनी कहानी सुनाते -सुनाते आपको निम्मी के बारे में बताना ही भूल गयी। निम्मी और मैं बचपन की सहेलियाँ हैं। हम दोनों एक दूसरे के हमराज़ हैं। जब तक दिन भर की सारी बातें एक -दूसरे को न बता दें, तब तक हमें चैन नहीं मिलता। अब मैं अपनी गारा साड़ी की ख़्वाहिश भला निम्मी को क्यों नहीं बताती। निम्मी बस्ती के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती थी। उसके घर की हालात भी मेरे जैसे ही थी।

उसने कहा, " तुझे कुछ ट्यूशन दिलवा दूँगी तो तू जल्द ही पैसे इकट्ठे कर लेगी। मेरी सहेली की ख़्वाहिश जरूर पूरी होगी। लेकिन तू इतने घंटे काम कर पाएगी। "

निम्मी ने मेरी ख़्वाहिश का मज़ाक नहीं उड़ाया, बल्कि उसने उसे पूरा करने के रास्ते सुझाये। यही तो अच्छे दोस्त की पहचान होती है। वह आपके सपने को, अपना सपना समझने लगता है।

"बिल्कुल करूंगी, करना ही पड़ेगा। अपनी ख़्वाहिश को पूरा करने के लिए दिन -रात तो एक करने ही पड़ेंगे। पहली बार अपने लिए कोई सपना देखा है, ख़्वाहिश की है। ",मैंने कहा।

मैं अपनी बात पर कायम भी रही ;अपने सपने को पूरा करने के लिए मैंने दिन-रात एक कर दिए थे।गारा साड़ी खरीदने के लिए मैंने जहाँ पर भी पैसे बचा सकती थी, पैसे बचाये। दुकान जाने से पहले और आने के बाद मैंने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया था। घर आते -आते मेरे शरीर का पोर -पोर दुखता था, लेकिन गारा साड़ी की याद आते ही मैं, मेरा सारा दर्द काफूर हो जाता था। अब मुझे समझ आ रहा था कि अगर हम किसी को शिद्दत से चाहे तो पूरी कायनात उसे कैसे दिलाने लग जाती है। कायनात आपसे उतनी मेहनत करवाती है, आपसे वैसे काम करवाती है ;जो आपको असंभव लगते हैं।

शायद भगवान् भी मेरे साथ था, दीवाली से कुछ दिन पहले ही मैंने साड़ी खरीदने लायक पैसे एकत्रित कर लिए थे। दुकान पर भी अच्छे पैसे जमा हो गए थे।

आज छत पर निम्मी ने मुझे देखते ही कहा, " लगता है साड़ी खरीदने लायक पैसे जमा कर लिए है तुने। "

"हाँ, कल साड़ी खरीद कर ले आऊँगी। दिवाली पर पहनने के लिए साड़ी के साथ का ब्लाउज, पेटीकोट, मैचिंग ज्वेलरी आदि भी तो लेने होंगे। ",मैं अपनी रौ में बोलती जा रही थी।

तब ही मैंने अचानक से पूछा, " लेकिन तुझे कैसे पता चला। "

" तेरी दोस्त ऐसे ही थोड़े न हूँ।। इतने दिनों बाद तेरे चेहरे की रौनक देखते ही बन रही है।तेरे चेहरे की चमक के आगे यह पूनम का चाँद भी फीका लग रहा है। ",निम्मी ने कहा।

"तेरी वजह से ही तो आज मेरे और मेरे सपने के बीच में बस एक रात की दूरी रह गयी है। ", मैंने निम्मी के गले लगते हुए कहा।

" चल हट, तुने दिन -रात मेहनत की थी। मैंने क्या किया ?",निम्मी ने अपनी गर्दन झटकते हुए कहा।

"कल तू भी शाम को दुकान पर आ जाना,दोनों साथ में साड़ी लेकर लौटेंगे। ", ऐसा कहकर मैं और निम्मी कल मिलने के वादे के साथ लौट गए थे।

रोज़ रात तो बिस्तर पर पड़ते ही मुझे नींद आ जाती थी। लेकिन आज जैसे नींद मुझसे रूठ गयी थी;अब नींद की ज़रुरत ख्वाब देखने के लिए थी ही नहीं। कल मेरा ख़्वाब पूरा हो जाएगा, कल मेरी गारा साड़ी मेरे हाथ में होगी। मुझे लग रहा था कि आज रात कुछ लम्बी हो गयी है।

मैं मेहन्दी रंग की गारा साड़ी पहनकर तैयार हो गयी थी। माँ ने मुझे नज़र का टीका लगाया। मैं फटाफट निम्मी के घर गयी ताकि उससे पूछ सकूं मैं कैसी लग रही हूँ। अभी निम्मी के घर के गेट पर ही थी कि माँ ने मुझे आवाज़ लगा दी, " नीतांशी, नीतांशी। "

माँ की आवाज़ से, मैं जाग गयी थी। " ओह्ह तो मैं सपना देख रही थी। ",मैं मन ही मन बुदबुदाई।

मैं फटाफट उठकर बैठ गयी। अपने रोज़मर्रा के काम तेज़ी से निपटाने लगी। मेरे पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे, मैं अपने सपने अपनी गारा साड़ी से कुछ ही दूर थी। मैं दुकान जाने की तैयारी ही कर रही थी कि निम्मी की मम्मी भागते -भागते आयी। वह रो रही थी और उन्होंने बताया कि, "निम्मी घर से बाहर ट्यूशन पढ़ाने के लिए निकल ही रही थी कि न जाने कहाँ से एक जलता हुआ राकेट उसके कपड़ों में आकर लगा। अभी -अभी उसके भैया उसे हॉस्पिटल लेकर गए हैं और मैं भी वही जा रही हूँ। "

"मैं भी आपके साथ चलती हूँ। ", मैं अपनी अब तक की बचत लेकर आंटी के साथ हॉस्पिटल चली गयी। बीमारी गरीबी लाती है और गरीब लोगों के लिए तो बीमारी कंगाली में आटा गीला जैसे हालात को जन्म दे देती है। मेरा सोचना बिल्कुल सही था। निम्मी के इलाज में , निम्मी और उसके घरवालों की पूरी बचत लग चुकी थी। अभी भी हॉस्पिटल के खर्चे पूरे नहीं हो पा रह थे।

उन्हें कहीं से मदद नहीं मिल रही थी, वह निम्मी को किसी और सस्ते हॉस्पिटल में शिफ्ट करने का प्लान करने लगे। मुझे निम्मी और गारा साड़ी में से किसी एक को चुनना था। मेरे लिए यह चुनाव मुश्किल नहीं था। मैंने अपनी ख़्वाहिश गारा साड़ी भुला दिया था। साड़ी खरीदने के लिए इकट्ठे किये गए पैसे भी दुकान से हॉस्पिटल में लाकर जमा करा दिए।

प्रतिदिन नियम से दुकान से आने के बाद मैं निम्मी से मिलने हॉस्पिटल जाती। कई बार रात को वहीँ रुक जाती। निम्मी ने एक -दो बार गारा साड़ी के लिए पूछा,लेकिन मैं टाल गयी। तब निम्मी ने कहा भी कि, "मैडम, दीवाली के दिन ही पहनकर आएँगी। तब तो देख ही लूंगी। "

दीवाली की शाम मैं निम्मी के पास पहुंची, निम्मी ने मुझे देखते ही पूछा, "तेरी गारा साड़ी कहाँ है ?"

"नहीं खरीदी यार ", मैंने जवाब दिया।

"पर क्यों ?", निम्मी ने अपनी आँखें फैलाते हुए कहा।

"यार, अपनी बस्ती में कोई उस साड़ी की कीमत कहाँ समझता? जो लोग वैसी साड़ियां पहनते हैं, उनके बीच हमारा आना -जाना कहाँ होता है। ज़िन्दगी में आगे बढ़ने के सपने देखना अच्छा है, लेकिन अपनी औकात से बढ़कर चीज़ों के सपने देखने का कझे २ महीने बाद आये मेरे जन्मदिन पर चल गया था।

निम्मी ने अपने पापा द्वारा तोहफे में दी गयी सोने की घड़ी को बेच दिया था। उस घड़ी को बेचकर मिले रुपयों से, मुझे मेरा सपना, गारा साड़ी ख़रीदकर जन्मदिन के उपहार के रूप में लाकर दी। यह घड़ी निम्मी के पास उसके पापा की आखिरी निशानी थी, फिर भी उसने मेरे लिए बेच दिया। निम्मी ने मुझे यह सब नहीं बताया था, लेकिन उसके हाथ में वह सोने की घड़ी न देखकर मैं अपने आप ही समझ गयी थी। 


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