Swati Jain

Abstract Tragedy Others

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Swati Jain

Abstract Tragedy Others

कहानी- तो....तू नहीं !!

कहानी- तो....तू नहीं !!

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चकर चकर, चाईं चाईं, ऊं आं आं...उमस, भीड़, हल्ला, बदबू, धक्का मुक्की.....आज कुछ भी असहनीय नहीं लग रहा!सरकारी अस्पताल के संकरे पीक से सुसज्जित गलियारे में प्रसूति विभाग के बाह्यारोगी परीक्षण कक्ष के बाहर , सौ की भीड़ का हिस्सा बने हुए, घर की बर्तन झाड़ू वाली टाइप की औघड़ औरतों में कौतूहल और नारी सुलभ ईष्र्या का पात्र बने हुए और अपनी सास के' बहुओं हेतु सीमित बजट' के मद्देनजर यहां मुफ्त जांच करवाने की परेड में शामिल, शर्मिंदगी छुपाते हुए, कुछ भी असहनीय नहीं लग रहा!"निष्ठा पांडे"आठ से नौ, नौ से दस, दस से ग्यारह, बारह और साढ़े बारह; अब जाकर अपना नाम सुनने मिला है, पर ये इंतज़ार इतना भी बुरा और बड़ा नहीं, जितना शादी के बाद एक से दो, दो से चार, चार से आठ, और आठ से दस सालों तक एक किलकारी सुनने में लगा!अंदर जाते ही लगता है अगर धरती पर कहीं नर्क है तो यहीं है! छोटा सा स्टोर रूम टाइप कमरा, बिजली शायद गुल, कंजूसी से खुले रोशनदान से आती बीमार रोशनी, पसीने व दवाईयों की मिलीजुली नाक फाड़ू गंध,एक छोटी सी टेबिल जिसके पीछे मोर्चा संभाले कोई नई सी छोकरी नुमा डॉक्टर, बगल में एक विशालकाय श्वेत वस्त्र धारी झल्लाती चिल्लाती सहायक नर्स जो कभी गर्मी तो कभी गरीबों को समान रूप से कोसती! एक हिलती डुलती चूं चां करती शायद परीक्षण टेबिल, खूब सारे कागज़, रजिस्टर, दवाईयां और इधर मुंह बाये, आंखें मिचमिचाती मैं!' ऐ बाई! जल्दी बैठ और बता क्या परेशानी है? कित्ते महिना हैं?कौन सा बच्चा है?....इस बुढ़ापे में भी चैन नहीं इनको....और वो दमदमी माई सी नर्स उस नाजुक सी डॉक्टर नुमा लड़की को अपने मोटे गद्देदार पंजों से लगभग दबाते हुए मुझपर अपने खप्पर जैसे दांत निपोरने लगती है। बड़ी शर्म आई पर सच्ची बुरा नहीं लगा, क्योंकि मुझे पता है कि मेरे पहले ही वाक्य से इनका लहज़ा लचीला हो जाने वाला है। 'शादी के दस साल बाद पहली बार तीन महिनों से नहीं हुई, जानना था कि.....?' और लो हो गया जादू!! दोनों मुझसे बेहतर महिला नागरिक कुछ झेंपी सी लगीं, फिर गीली महीन सी आवाज़ में एक ज्यादा बेहतर ने कम बेहतर वाली से कहा,'इसे शीशी दे दो, पेशाब की जांच कर लेते हैं' और इस तरह शासकीय शौचालयों के भी साक्षात दर्शन लाभ करके मैंने वो ' अमृत ' की शीशी उन्हें सधन्यवाद सौंप दी, जिसमें से कुछ बहुत अच्छा निकलने वाला था, इतना अच्छा कि मेरे पूरे जीवन का समीकरण ही बदल जाए...इतना अच्छा कि मेरी मां इतने सालों बाद मुझे मायके बुलाए और अपनी मुंहजोर सहेलियों में फिर चहचहाए...इतना अच्छा कि मेरी सास घर के बजट में संशोधन करने पर उतारू हो जाए और मेरी रोटियों पर भी घी लग जाए....इतना अच्छा कि....' बधाई हो! तुम्हारे पेट में बच्चा है!', कहीं इलाज विलाज लिया क्या?' कौन सी तारीख़ पर महीना आया? पहले सही थे ?इतनी देर से क्यूं आईं? वो घड़ी पर नजर टिकाए मुझ पर यंत्रवत सवाल दाग रही है पर अब मुझे उसकी बेहतरी और अपनी अवहेलना से डर नहीं लग रहा है, मैं खुद की उपलब्धि से आत्मविभोर सी हूं।

कुछ उल्टा सीधा, अनगढ़ सा उत्तर देकर छुट्टी पाती हूं, या तो वो जल्दी में है या ऐसे उत्तरों की अभ्यस्त है बस कुछ मेरे पर्चे पर गूदे ही जा रही है।' ये एक एक गोली सुबह शाम, संपूर्ण आहार , आराम, साफ सफाई... खून पेशाब की जांचें हैं, जरूरी हैं,और सोनोग्राफी ताकि गर्भावस्था है और सब ठीक है सुनिश्चित कर सकें,ठीक है?....चलो नेक्स्ट!'मैं लगभग दौड़ते हुए बाहर आई, रिक्शा किया, घर पहुंची और मुंह खोला नहीं कि लो... एक और जादू! श्रीमती वृंदा रानी पांडे, उर्फ मेरी सास, अपने भारी भरकम शरीर को लगभग ठुमकाते हुए, दही शक्कर सबके और हां मेरे मुंह में भी ठूंसती पूरे आंगन में सरसरा रहीं हैं और अचानक फन फैलाती हुई लपकीं और लगभग धमकाने के अंदाज़ में फुंफकारीं: "सोनोग्राफी कराने कहा हैं तो काहे नहीं कराई? अरे पता तो चले लड़का है या ये सालों की बंजर धरती कुछ बेशरम की झाड़ी ही उगाने वाली है"और लो धप्प!!एक और परीक्षा!मैंने खुद को समेटा और पहली बार ये दुस्साहस किया'" अम्मा! अगर लड़का नहीं तो? " तो .. तू नहीं!!"इक तरफा फैसला और सभा बर्खास्त! मेरे पति की मूंछों ही मूंछों में छुपी दंभ भरी मुस्कुराहट गायब, मेरे अंदर की हिलोरें गायब,और ये क्या ... हमेशा मूक सहानुभूति देने वाले श्री मान दयानंद पांडे उर्फ मेरे ससुर भी गायब!! और अब मैं भी गायब!रिक्शा,सड़क, गलियारे, कतारें फांदकर, अपनी सोनोग्राफी की रिपोर्ट अपनी अंकसूची से भी ज्यादा रहस्यमयी दस्तावेज की तरह भींचकर, एक पूरी रात की कई सदियां पार करके उसी छोटी सी मेज़ के पार,खप्पर जैसे दांतो वाली के रहम पर!"आज मैडम छुट्टी पर हैं, ला रिपोर्ट।"फिर एकदम लदर फदर उठी और मुझे घसीटती हुई कहीं ले जा रही है, मैं डरते डरते बस इतना ख़ुद को कहते हुए सुन रही हूं," लडका है कि लड़की???" और लो धप्प!! मैं किसी और ही उम्र दराज बेहतर महिला नागरिक कथित तौर पर विभागाध्यक्ष के दरबार में हाज़िर,खप्पर वाली कुछ आधी हिंदी आधी अंग्रेज़ी में मेरी प्राणप्रिय रिपोर्ट कोअपनी खुरदुरी उंगलियों से कुरेद कुरेद कर मुझे कुछ गरिया सी रही है और जज साहिबा को मेरे लड़का लड़की जानने की उत्सुकता व विवशता के गुनाह को नमक मिर्च लगाकर मेरे विपक्ष में दलीलें दी जा रही है और लो!...एक और एक तरफा फैसला!मुझे नारी विरोधी, दकियानूसी, समाज में गलत बातों को बढ़ावा देने वाली.... आदि इत्यादि...पर मेरा मन ढीठ सा वहीं अटका," लड़का है या लड़की?!!"और ये प्रश्न इतना स्वाभाविक व ज्वलंत था कि मुंह से फिर लपक गया और अब तो जैसे सभा में आग ही लग गई!!!वो वरिष्ठ सभ्य बेहतर महिला भी अपने चिकित्सा जगत के तमाम विनम्र कायदों को भूलकर मुझ पर बरसने लगीं-"बेवकूफ औरत!, तुझे शादी के इतने सालों के बाद बच्चा आया, गनीमत थी पर तुझे लड़का लड़की की पड़ी है, अरे कुछ भी होता, कम से कम संतान सुख तो होता। अब देख तेरे कुविचारों की सजा...बच्चे में अनुवांशिक विकृति है..anaencephaly..सर नहीं बना, गिराना पड़ेगा...उम्रदराज महिलाओं की गर्भावस्था में ज्यादा कौमन है शायद इसीलिए... भर्ती हो जाओ! और धप्प!' अरे कोई संभालो, शायद सदमा लगा है, खाली पेट होगी, बी पी देखो जल्दी... नाटक तो नहीं कर रही?......सांय सांय,भांय भांय के बीच में मेरे सुन्न दिलो दिमाग में बस एक ही सायरन!" तो... तू नहीं!!!"


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