कौआ और मेरा छोटा काला बैग”
कौआ और मेरा छोटा काला बैग”
15 नवंबर, शनिवार — शाम के ठीक 4:10 बजे।
मैं अपने बेटे को क्लास छोड़ने गई थी।
वो अंदर चला गया, तो मैंने सोचा—
“थोड़ा वक्त खुद के साथ बिताती हूँ…
ज़रा किसी बेंच पर शांति से बैठती हूँ।”
मैं बमुश्किल दो पल ही बैठी थी,
अपनी ही दुनिया में थोड़ी खोई-सी,
कि तभी अचानक, पता नहीं कहाँ से,
एक काला-सा कौआ हल्की-सी फुर्र के साथ आया
और सीधे मेरे छोटे, काले बैग के ऊपर जा बैठा,
जो मेरी पीठ से चिपका हुआ था।
न बैग खुला था, न उसमें कुछ दिखता था।
अंदर बस एक मनकों की माला चुपचाप रखी थी।
फिर भी वो कौआ ऐसे बैठ गया
जैसे उसने खास तौर पर मुझे ही चुना हो।
मैं रुकी—थोड़ी हैरान, थोड़ी मुस्कुराने वाली।
पर कौआ तो जैसे पूरी दुनिया भूलकर
आराम मोड में था—
मानो कह रहा हो:
“सुकून से बैठी हो…
मैं भी थोड़ी देर यहीं आराम कर लेता हूँ।”
मैं आगे बढ़ी,
वो उड़कर थोड़ा आगे गया…
फिर वापस मेरे आसपास ही मंडराने लगा।
उसी पल लगा—
कभी-कभी ज़िंदगी हमेँ
एकदम अचानक,
एक छोटा-सा, प्यारा-सा ठहराव दे देती है…
बिल्कुल इस कौए की तरह।
बस एक साधारण-सा पल,
जिसमें एक अनकही-सी गर्माहट थी,
और एक कोमल सा संदेश:
“प्रकृति तुम्हें देखती है…
चाहे तुम्हें लगे कि तुम अकेली हो।”
