काश
काश
रहमत अली कब्रिस्तान की तरफ बढ़ रहे थे। आज उनके बेटे फुरकान की बरसी थी।
राह में चलते हुए उन्हें नन्हें फुरकान की याद आ गई। जब वह उसे लेकर मस्जिद जाते थे तो राह में मिलने वाले भिखारियों को पैसे देते थे। एक दिन फुरकान ने पूँछा,
"अब्बा आप मस्जिद जाते हुए इन लोगों को पैसे क्यों देते हैं ?"
"क्योंकी वो गरीब और जरूरतमंद हैं। ऐसे लोगों की मदद करना फ़र्ज़ होता है। इसे ज़कात कहते हैं।"
"तो फिर मैं भी करूँगा ज़कात।"
"तुम बच्चे हो। जब बड़े हो जाओगे, कमाने लगोगे तब तुम पर यह फर्ज़ लाज़िम होगा।"
फुरकान बड़ा हुआ तो दूसरों की खिदमत को ही ज़िंदगी का उद्देश्य बना लिया। उसका एक एनजीओ था। जिसके जरिए वह बेघर बेसहारों की मदद करता था।
अपने काम में वह इस कदर डूबा रहता था कि खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती थी। उस दिन भी वह बिना नाश्ता किए घर से निकल रहा था। रहमत अली ने टोका,
"ये क्या बात है ? बिना खाए चल दिए। चुपचाप बैठ कर नाश्ता करो।"
"अब्बा बहुत देर हो रही है। एक मीटिंग है। मैं बाहर खा लूँगा।"
"ऐसा क्या काम कि सेहत का खयाल भी नहीं रख पाओ।"
फुरकान ने अपनी अम्मी की तरफ देखा। उन्होंने भी रहमत अली का साथ दिया। फुरकान बिना बहस किए नाश्ता करने बैठ गया।
फुरकान के जाने के कुछ समय बाद ही उसके एक्सीडेंट की खबर आई। जब रहमत अली अपनी पत्नी के साथ अस्पताल पहुँचे तो उन्हें फुरकान की मौत की खबर मिली।
रहमत अली को अब अफसोस होता है कि अगर उस दिन उन्होंने फुरकान को रोका ना होता तो शायद वह घड़ी टल गई होती। फुरकान आज भी उनके साथ होता।
रहमत अली ने फुरकान की कब्र पर दुआ पढ़ी। लौटते समय राह में बैठे बेघर लोगों को पैसे बांटे।