काफिर बँटवारा
काफिर बँटवारा




ना उनके चेहरे पर मुस्लमान लिखा था, ना मेरे चेहरे पर हिंदू। वे मुझे भाई जान कहते थे और मैं उन्हें अपनी जान कहता था। उन्होंने कहा भाई रामदित्ता बँटवारा हो गया है-- हिंदुस्तान और पाकिस्तान--। मैंने कहा-- तुम्हारा दिल-जान मुझ में धड़कता है और मेरा तुम में--। उसने कहा- भाईजान दिलों का नहीं, मुल्कों का हुआ है बँटवारा----। दोनों के बीच में एक खींची हुई और तनी हुई लकीर खिंच गई हैं। बँटवारा हमारे-तुम्हारे बीच में नहीं --- बँटवारा तो सता, सिंहासन और सर्व-सर्वा के अहम् का हुआ हैं। भाईजान हम तो अब केवल इस बँटवारे की चक्की की चकरघिन्नी में पिसेंगे। अब सरहदें बनेगी। रामदित्ता, अब्दुल और हमीद तीनों एक-दूसरे की बाँहों में बाँहें डाले, चारों तरफ दृष्टि घुमाते हैं। हमीद और अब्दुल के बीच वाला घर रामदित्ता का था। हमीद कहता है, अगर बँटवारा हो गया तो-- क्या मुझे और अब्दुल को रामदिते के घर में आने के लिए सरहद की लक्ष्मण रेखा पार करनी होगी। तभी सरसों के खेतों से खिलखिलाते पीले फूलों की झूम कर आती बहारें, उन्हें बचपन की गलियों में ले जाती हैं। इकट्ठे पाठशाला जाना, इन्हीं खेतों के अगल-बगल खेलना, खुले मैदान में अखरोट के कंचों से खेलते-खेलते पता ही नहीं-- कौन हिंदू है और कौन मुसलमान--। होली दिवाली और ईद के साँझे चूल्हों की राख, अब आँखों में धूल झोंकने लगी थी। तभी मारो-मारो, काटो-काटो दँगाइयों का जत्था- पता ही नहीं कब तीनों के बाहों के मिलन को विछोह में बदल चुका था।
रामदित्ता के घर का बुरा हाल था । आँगन में दोनों बेटों, माँ-बाप, भाई-भाभी की रक्तरंजित लाश पड़ी थी। बहन शीला और लाजो का कहीं कोई अता-पता नहीं था। तहखाने में छिपी बैठी पत्नी निहाली प्रसव वेदना से कराह रही थी। बाहर मौत की नंगी तलवारें लश्कारे मार रही थी। इस खौफजदा मंजर को देखकर सभी ने रामदित्ता को निहाली को छोड़कर भाग जाने की सलाह दी। कम-से-कम खुद की जान तो बचाओ-- आधे से ज्यादा परिवार तो वैसे ही बँटवारे की भेंट चढ़ चुका है। रामदित्ता सूनी आँखों से खौफजदा मंजर को चुपचाप निहार रहा था-- यह काफिर बँटवारा--- पूरे परिवार को लील गया--- अब क्या इन्हें कफ़न भी मुहैया नहीं होने देगा---? पागलों की भाँति जोर-जोर से दहाड़ने लगा-- शामे हट्टी खोल--हट्टी--- कफन दा इंतजाम कर।
तभी अब्दुल और हमीद ने उसे सहारा दिया तथा दर्द से कराहती निहाली को झोपड़ीनुमा कमरे में ले आए। उनके परिवार की मदद से उसके बेटे ने एक पल के लिए जहान में आँखें तो खोली-- लेकिन अगला पल कितना अँधकारमय होने वाला है, किसी को भी अंदाजा नहीं था। बाहर दगांईए दरवाजा पीट रहे थे और गाली दे-देकर, जिन्हें अंदर छुपा रखा है- बाहर निकालो। स्थिति हमीद भाईजान ने सँभाली, मेरी बीवी अंदर प्रसव वेदना से कराह रही है और आप लोग---। दगांइए विश्वास करने को तैयार नहीं थे। वे दरवाजा तोड़ने को उतारू हो गए। वे आपस में पता नहीं क्या कह रहे थे--? उनकी आँखों में खून साफ दिखाई दे रहा था। उनकी चीखती-चिल्लाती आवाजों में, दर्द से निकलती चीत्कारें भी दफन हो रही थी। और कोई चारा ना देखकर कर अब्दुल ने निहाली को छोड़कर, उसे यहाँ से भाग जाने की सलाह दी। लेकिन आखिरी बार बेटे को गोदी में झुलाते हुए उसकी ममता ने उसे अकेले भागने नहीं दिया।
ममता के जोश में वह एकदम से चिल्ला उठा, यह तो मेरे घर का चिराग राम का भेजा दूत रामप्रकाश है, चलो उठो निहाली हिम्मत करो। घंटा पूर्व असहनीय प्रसव वेदना से अधमरी निहाली के पैरों में पता नहीं कहाँ से आत्मविश्वास की शक्ति आ गई कि वह रामप्रकाश को सीने से चिपकाएं अब्दुल और हमीद की मदद से रामदित्ता के साथ, उनके पिछले दरवाजे से भाग गई। रास्ते भर मौत, नंगी तलवारों में नाचती रही। निहाली खून से लथपथ आँखों के आगे आई मौत से रहम की भीख माँगती रही।
कहने को तो वह मुस्लिम थे, लेकिन बँटवारे की खींची हुई लकीर और राजनीति से परे, वह हमारे लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं थे। साए की तरह साथ साथ चिपके रहे। गाड़ी में तिल भर भी पाँव रखने की जगह नहीं थी, लेकिन उन्होंने हम तीनों को धकेल कर उस गाड़ी में ठूस दिया। बेहोश निहाली और जिंदगी की दुआएं माँगते रामदित्ता ने तब चैन की साँस ली, जब गाड़ी अटारी स्टेशन पर हिंदुस्तान जिंदाबाद के नारों के बीच में पहुँची।
शरणार्थी शिविरों में पनाह दी गई, जहाँ अपनो को ढूँढती पथराई आँखों में ज्यादातर आँखें पथराई ही रह गई। मौत और आबरू के नंगे खेल में कोई हमेशा के लिए लापता हो गया, कई कलियाँ मसल दी गई, कोई अपनो से कभी मिल नहीं पाया और कोई-कोई भाग्यशाली वर्षों के बिछोड़े के पश्चात अचानक किसी गली के मोड़ पर मिल गया।
रोज बेमौत मरता रामदित्ता इतने वर्षों के उपरांत भी बँटवारे के खौफजदा मंजर को भुला नहीं पाया। अपने इकलौते बेटे रामप्रकाश के बेटे मोहन के सिर पर हाथ फेरते हुए, उसे बड़े प्यार से अपने सीने के साथ लगाते हुए, पुत्तर मुद्दत बीत गई, कई गुनाहों की साक्षी सरहद तो चुपचाप और बेकसूर खड़ी है। मैं भी मजबूरीवश अपना शरीर यहाँ ले आया, लेकिन अपना बेशकीमती दिल तो वहीं छोड़ आया था। इस दिल का यह सरहद तो क्या-- ऐसी कई सरहदें भी बँटवारा नहीं कर सकती है। तभी रामदित्ता अतीत के पन्नों से वर्तमान में लौटते हुए, भला हो अब्दुल और हमीद का जिनकी बदौलत मेरा वंश चल गया। तभी दर्द से कराहते हुए ओए ! अब्दुल्ला और हमीदिया मैं आ रहा हूँ और चैन से आँखें मूँद लेता है।