कालिदास की शकुन्तला की स्कैनिंग
कालिदास की शकुन्तला की स्कैनिंग
प्रोफेसर साहब कक्षा में विद्यार्थियों को पढ़ा रहे हैं -
'कामपीड़ा का प्रदर्शन करते हुऐ दुष्यंत स्वयं से कहता है -
"अनिशमपि मकरकेतुर्मनसो रुजमावहन्नभिमतो मे ।
यदि मदिरायतनयनां तामधिकृत्य प्रहरतीति ॥'' (आभिज्ञान शाकुंतलः ३/४)
- अर्थात् हे कामदेव ! यदि तुम मदभरी बड़ी-बड़ी आँखों वाली उस शकुंतला के कारण बार-बार
मेरा जी दुखाते हो तो ठीक ही करते हो।'
"और शकुंतला की आँखें बिलकुल आप जैसी हैं"- कक्षा की एक सुंदर छात्रा की ओर हाथ
उठाकर प्रोफेसर साहब ने कहा।
"क्या नाम है आपका?"
"मेरा सर?.....मोहिनी ।"
"मोहिनी !..... मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ मोहिनीजी कि कालिदास के समक्ष अवश्य
ही आप जैसी कोई सुंदर लड़की रही होगी जब वे शकुंतला की सुंदरता का वर्णन अपने नाटक में करते
हैं- ख़ास तौर से उसकी आँखों का। आप लोग चौंकें नहीं। ऐसा कहने का मेरा आशय इसलिए भी है
कि शकुंतला की जिन आँखों का वर्णन कालिदास ने किया है, वे बिलकुल मोहिनीजी की आँखों के
समान हैं।
यूँ तो शकुंतला को कालिदास ने भी प्रत्यक्ष नहीं देखा था, पर इससे क्या? कालिदास तो
महाकवि हैं।.....शकुंतला की आँखें जल राशि की हैं..... यानी बड़ी-बड़ी़..... गहरी.....चंचल..... जल में
तैरती हुई- जिन्हें देखकर दुष्यंत स्वयं को अचानक ही भूल गऐ । यदि मेरा अनुमान सत्य हो, तो मैं
अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ मोहिनीजी, कि आपकी राशि वृश्चिक होनी चाहिए।''
"यस सर"- अकबकाते हुऐ मोहिनी ने कहा।
और, 'फिर उसके बाद चराग़ों में रोशनी न रही'- की तर्ज पर व्याख्यान गुल हो गया, यानी
उसने प्रोफेसर साहब को छोड़ दिया। किंचित अब वह मोहिनी की आँखों की गहराई में आत्मालाप कर
रहे थे। वह अपने विभागीय कक्ष में आ गऐ - यंत्रवत्। सामने न होकर भी मोहिनी की आँखों ने जैसे
उन पर नियंत्रण कर लिया था। मोहिनी कक्षा में थी, पर वह अपनी आखें खो चुकी थी और बिलकुल
खाली थी।
वह प्रोफेसर! गोरा, मंझोला, अधेड़, छप्पन पार- लगभग दर्शनीय- प्रोफेसरी वैभव के
काव्यशास्त्रीय प्रतिरूप जैसा। प्रसिद्ध, शानदार, अग्रेजों द्वारा निर्मित- पूर्व के आक्सफोर्ड की तरह
ब्रिटिश उपनिवेश की भव्यता का स्मृति-शेष- वह विश्वविद्यालय! विश्वविद्यालय का
वह विभाग! विशाल, उर्वर, हरा-भरा, भाषा-संस्कृति-साहित्य का- जिसका अध्यक्ष है वह प्रोफेसर -
यानी हमारा कथानायक !
इतना कुछ है तो जाहिर है कुछ और भी होगा। होगा क्या बल्कि हैं- कहानियां-किस्से-
लगातार घटते हुऐ - अतीत-वर्तमान-भविष्य में- काल के आर और पार- स्वप्नों से यथार्थ में आते हुऐ
और उनका इतिहास बनाते हुऐ ।
भाषा-संस्कृति-साहित्य का इतना प्रसिद्ध प्रोफेसर- ऊपर से विदेश में भी अपने ज्ञान का
झंडा गाड़ आया है। हिंदी, संस्कृत का रीतिसिद्ध और अग्रेजी का अवसरसिद्ध विद्वान। रीति,
नीति और अनीति से आधिक प्रीति में उसकी दृढ़ आस्था और श्रद्धा। उमर छप्पन की, पर दिल अभी
भी नौजवानी की गलियों में भटकता हुआ। मुंह ऐसा कि खोले तो लोग सुनें। सधी, अभ्यस्त और
अनुभवी ज़बान- जिससे उसने कितने सीने चाक किए होंगे, कितने दिल छले होंगे- कहना मुश्किल
है। शास्त्रीय अदाओं और नाज़-नखरों में वह पहले ही निष्णात था। विदेश पलट होने के बाद पाश्चात्य
लटकों-झटकों से भी लैस हो गया है ।
तो ! किस्से में हैं- विश्वविद्यालय, विद्यार्थी और प्रोफेसर !
प्रोफेसर साहब अपने विषय के आधिकारिक और शास्त्रीय विद्वान के रूप में ख्यात हैं- पर हैं
वस्तुतः वे नारी मनोविज्ञान के उद्भट ज्ञाता- नारीवादी, नारी-प्रशंसक, नारी-सेवक, नारी-भक्त।
शायद उनकी पी-एच. डी. नारी अनुकूलन-विज्ञान या 'पटाओ-शास्त्र' पर रही होगी, जिसका लाभ वह
जीवन भर छात्राओं और महिलाओं की विशेष सेवा करके उठाते रहे। प्रत्यक्षतः वे भले ही अपरिचय
की सीमा में हों पर उनकी मनोभूमि दलितों और स्त्रियों के प्रसिद्ध और स्वनामधन्य संपादकाचार्य
से कहीं न कहीं मिलती अवश्य है। वह बात दीगर है कि संपादकाचार्य की तरह अपने संबंधों के
स्वीकार के प्रति वह ईमानदार कभी नहीं रहे- इसकी हिम्मत तो खैर बहुत दूर की बात है। कहें तो
नारी-संबंधों के स्वीकार के क्षेत्र में वे दोनों 'विरुद्धों का सामंजस्य' हैं।
बात शुरू हुई थी- विश्वविद्यालय, विभाग और प्रोफेसर से। वैसे इन पर 'भाई' लोग बहुत
लिख चुके हैं और नाम कमा चुके हैं। ये 'भाई' मुंबईवाले वो ख़तरनाक भाई नहीं हैं- ये साहित्य के
भाई हैं- इनसे पंगा लेना अपुन के लिए हैवी टेंशन पैदा कर देगा। मेरा उद्देश्य यह सब नहीं।
विश्वविद्यालयों की राजनीति और शोध छात्रों- विशेषकर छात्राओं- की शोषणनुमा सेवा और
सेवानुमा शोषण पर भी कई पुराने-नए अखाड़ेबाज़ और लठैतनुमा लेखक अपने हाथ आज़मा चुके हैं-
कुछ तो एकदम ताजे-ताजे। रही बात बी. ए. और एम. ए. के विद्यार्थियों पर लिखने की- गुरु और
चेला लेखकों ने अंदर-बाहर कुछ नहीं छोड़ा। स्थिति कमोबेश हर जगह समान है।
विश्वविद्यालय का कोई विभाग हो- सबमें गुरु-शिष्याओं के मधुर संबंधों की सुनी-अनसुनी
कौतुकपूर्ण लीलाभूमियों की कँपकँपाहट महसूस की जा सकती है। कुछ बेचारे गुरु अभी भी
मध्ययुगीन उपादानों पर आरूढ़ हैं- पर इस क्षेत्र में अधिकांश प्रोफेसरों और आचार्यों का समकालीन
चरित्र उत्तर आधुनिक है - ठीक हमारे कथानायक के समान।
हमारे प्रोफेसर वाकई बड़े अच्छे इंसान हैं। प्रोफेसरों की दुनिया में लेखक, विचारक और
विद्वान के रूप में स्वयं को प्रतिष्ठित करने की पूरी कोशिश करते हैं, और लेखकों, विचारकों,
विद्वानों के लिए तो वे प्रोफेसर की नौकरी कर ही रहे हैं। लेकिन उनकी एक निजी दुनिया भी है
- विविध रंगों वाली। यह कहानी अमूमन उनकी इसी रंगीन दुनिया की है। एक रुतबा - आदर्श गुरु के
रूप में, तो दूसरा अभिनय - आदर्श पड़ोसी के रूप में। तो फिलहाल प्रस्तुत हैं प्रोफेसर साहब के दो
नितांत रोचक किस्से।
मंगलाचरण
पहले किस्से का मंगलाचरण प्रोफेसर के विभाग ज्वाइन करने के साथ हुआ। वह इस विभाग
के इकलौते प्रोफेसर बनकर अपेक्षाकृत छोटे शहर के विश्वविद्यालय से आए थे। चूंकि, इकलौते थे
लिहाजा विभाग के अध्यक्ष-पद पर सिर्फ़ उनका ही पट्टा था। वैसे उनके लिए इस पद की उम्र
आउटडेटेड होने से लगभग चार वर्ष पीछे थी। चुनांचे उनके पास सिर्फ़ चार वर्ष का समय था, जिसे
वह पूरी आज़ादखयाली और मोहब्बत से जीने की हसरत और हौसला रखते थे- वह भी निर्द्वंद्व
होकर। और वह एम. ए. के विद्यार्थियों को पढ़ाने लगे।
पढ़ाते वे ठीक थे- सो कक्षाऐं भरी रहतीं। विद्यार्थी उनके व्याख्यानों में परीक्षोपयोगी
संसाधनों की भरपूर संभावनाऐं तलाशते हुऐ ज्ञानार्जन करते और प्रोफेसर युवा पीढ़ी में अपनी जवान
हसरतों को पूरा कर सकने वाले चेहरों की स्कैनिंग करते। उनका प्रिय विषय था कालिदास का
'अभिज्ञान शाकुंतल' और उसमें उनका आदर्श थी शकुंतला। लगभग प्रतिदिन कक्षा में वह शकुंतला
की स्कैनिंग करने लगते- उनकी नज़रें कैमरे का लेंस बन जातीं, कक्षा की लड़कियां संभावित
शकुंतला। कुछ ही दिनों में दोनों ओर प्रबल संभावनाऐं प्रकट होने लगीं। नए विश्वविद्यालय के नए
अनुभव प्रोफेसर के जीवन में नए रंग भरने लगे - वही 'नव गति नव लय ताल छंद नव' वाले अदाज़
में।
इन्हीं दिनों किस्से की हूर का प्रवेश रंगमंच पर हुआ। एम. ए. द्वितीय वर्ष की छात्रा मोहिनी,
देखने में ठीक-ठाक, कहें तो लगभग सुंदर- गजगामिनीनुमा- जल से भरी हुई वृश्चिक राशि की आँखें
उसके चेहरे की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि- जैसा कि प्रोफेसर ऊपर कह चुके हैं। खाता पीता शरीर।
उमंगों से भरी हुई लड़की। प्रोफेसर को लगा वह खेली-खाई है- मौके की तलाश में- टपक पड़ने को
बेताब।
यह तय करते ही कि वह उनकी शकुंतला बनने की योग्यता रखती है, उन्होंने ऊपर लिखा
कामपीड़ा वाला श्लोक कक्षा में झाड़ दिया और मोहिनी की आँखों को शकुंतला की आँखें घोषित कर
दिया। मोहिनी को भी कक्षा में व्याख्यान देते नए प्रोफेसर दिखे- उसमें रुचि लेते हुऐ - खोजी प्रवृत्ति
के। और कुछ ही दिनों में वह उनकी सबसे महत्वपूर्ण खोज साबित हुई। और फिर एक दिन उन्होंने
कक्षा में यह श्लोक सुनाया-
"अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कररुहै
रनाविद्धं रत्नं मधु नवमनास्वादितरसं ।
न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः॥" (अभिज्ञान शाकुंतलः २/१०)
अखण्डं पुण्यानां फलमिव च तद्रूपमनघं
- 'अर्थात् उसका रूप वैसा ही पवित्र है, जैसे बिना सूँघा हुआ फूल, नखों से अछूते पत्ते, बिना
बिंधा हुआ रत्न, बिना चखा हुआ नया मधु और बिना भोगा हुआ पुण्यों का फल। परंतु यह नहीं
मालूम कि इस रूप को भोगने के लिए ब्रह्मा ने किसे चुना है।'
वैसे तो यह श्लोक कालिदास का है और इसमें की गई प्रशंसा शकुंतला की। पर, कक्षा में
प्रोफेसर के सुनाने का अंदाज़ किसी से छिपा न था। छात्रों को यही लगा कि सर शकुंतला के नाम पर
मोहिनी की ही प्रशंसा कर रहे हैं। और मोहिनी! वह तो शकुंतला बन चुकी थी। लिहाजा उसने प्रोफेसर
पर 'मोहिनी' डाल दी। वह ऐसे किसी सम्मोहन के लिए पहले ही बेताब थे- यानी 'मोहिनी' डलवाने
को।
पहले-पहल सिलसिला प्रारंभ हुआ कक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों से। कक्षाएं बड़ी होती हैं इस
विश्वविद्यालय की। अमूमन नब्बे-सौ की संख्या तो एक कक्षा में रहती ही है- लगभग बीस-पच्चीस
कुमार, साठ-पैंसठ कुमारियाँ तथा आठ-दस विवाहित- एक आध विधवा-विधुर।
प्रोफेसर अक्सर नाट्यशास्त्र और साहित्यशास्त्र पढ़ाते-पढ़ाते कालिदास के नाटक अभिज्ञान
शाकुंतल के दुष्यंत और शकुंतला के प्रथम मिलन का प्रसंग जीवंत कर देते। विद्यार्थी चमत्कृत
होते, व्याख्यान का आस्वाद लेते और उसमें डूब जाते। प्रोफेसर रति और श्रृंगार की चर्चा करते और
साधारणीकरण की व्याख्या करते-करते सौंदर्यबोध तक उतरते और अततः मोहिनी की आँखों की
गहराई में मुस्कुराते हुऐ खो जाते। बड़ी प्रामाणिकता के साथ वह कक्षा में सिद्ध करते कि शकुंतला
की आँखें बड़ी सुंदर हैं- कालिदास की शकुंतला। विद्यार्थियों को सुनाई देता- मोहिनी की आँखें बड़ी
सुंदर हैं। उनके व्याख्यान का ओर न छोर- भानुमती का पिटारा हो जाता, पर छात्रों को इसमें
निस्संदेह बड़ा रस मिलता।
प्रोफेसर की दैनिक व्याख्या से उन्हें विश्वास हो गया- मानो एक-दो महीने पूर्व ही कालिदास ने
शकुंतला नाटक उनके सामने बैठकर रचा है और शकुंतला की जिस सुंदरता का चित्र उन्होंने खींचा है-
विशेषतः आँखों का- वह प्रत्यक्षतः मोहिनी की आँखों की प्रेरणा से ही संभव हुआ है, जिसके कि
चश्मदीद गवाह प्रोफेसर साहब रहे हैं। सबसे बड़ी विशेषता यह कि उनका यह वर्णन बड़ा निस्संग
होता। वह अभिनय पटु नट की भाँति झट से पल में तोला, पल में माशा हो जाते। छात्र उन्हें 'प्रोफेसर
रंगीला' कहने लगे- यह वही दिन थे, जब जैकी श्राफ, आमिर ख़ान और उर्मिला मातोंडकर की फिल्म
'रंगीला' की धूम थी।
सच तो यह है कि छात्रों को भी इन विषयों में बड़ा आनंद प्राप्त होता था, इसलिए प्रोफेसर
शीघ्र ही छात्रों की पहली पसंद बन गऐ । छात्राओं की राय छात्रों से जुदा थी। मज़ा तो उन्हें भी कम न
आता था, और लड़कियाँ कभी भी पुरुष की निगाहें पहचानने में भूल नहीं करतीं, लेकिन वे गुरुजी
के भव्य व्यक्तित्व के पीछे छिपी उनकी कुत्सा और लिप्सा का आवागमन उनके चेहरे पर देखकर
भी अनजान बनी रहतीं। वह सदा शास्त्रीय ग्रंथों के उदाहरण देकर पढ़ाते और अपनी अभिनय-शक्ति
द्वारा कुशल नट की मानिंद अपने भावों पर नियंत्रण भी कर लेते। हँसते कम, वह मुस्कुराते अधिक।
व्याख्यान के अंत में जब वह प्रश्न पूछते, तो मोहिनी से। चुलबुली, शोख मोहिनी हमेशा उन प्रश्नों
के उत्तर देती- जैसे दे सकती थी। फिर वह दिन आ गया जब वह प्रोफेसर से उनकी पुस्तकें माँ गने
लगी- साधिकार।
यहीं से प्रारंभ होता है कहानी का वह सिरा, जो शांतनु और सत्यवती के प्रेम संबंधों से कभी
प्रारंभ हुआ था- जिसकी विशाल भारतीय परंपरा ख़ब्ती राजाओं द्वारा अपनी उम्र के आधे से भी
कम उम्र की लड़कियों की मान-मनव्वल और जोर-जबरदस्ती तक चलती गई तथा वाज़िद अली शाह
सरीखे नवाबों के 'परीखाने' में जाकर कहीं भटक गई। प्रोफेसर की निगाहों में मोहिनी का अक्स उभरा
रहता और मोहिनी की आँखों में प्रोफेसर भरे रहते। वे उन दोनों के बहुत अच्छे दिन थे और छात्र-
छात्राओं के भी। लगता जैसे सभी प्रेमाविष्ट हैं। लड़कों की संख्या कम होने से लड़कियों में होड़ अधिक
रहती है। वैसे, लड़कियों के समक्ष दूसरे विकल्प भी होते हैं।
बहरहाल, सारी बातों का निचोड़ यह कि कुछ ही दिनों में- 'अब तो बात फैल गई जाने सब
कोई'- वाला हाल था। हालांकि गहराई सबको नहीं पता थी कि बात कहाँ तक पहुँची है, पर हवा में
सरगोशियां तो थीं ही। मोहिनी को लड़कियां छेड़तीं तो वह उन्हें झिड़क देती और स्त्री सुलभ ईर्ष्या का
हवाला देकर सबका मुँह बंद कर देती, नहीं तो हड़का देती कि सर मुझसे ठीक से बात क्या कर लेते हैं,
तुम लोगों से सहन नहीं होता।
यहाँ तक तो कोई नई बात नहीं थी। पर हुआ कुछ यूँ कि प्रोफेसर साहब को छः महीने में ही
मोहिनी में अद्भुत प्रतिभा दिखाई देने लगी। दो-तीन मास बाद ही फाइनल की परीक्षाएं होने वाली
थीं। अब मोहिनी कक्षा के पहले और बाद, अधिकांशतः प्रोफेसर के कक्ष में ही बनी रहती। बड़ा कक्ष,
१२-१५ कुर्सियां पड़ी रहतीं। वहाँ कोई गोपनीयता की गुंजाइश न थी, पर बातें करने की स्वतंत्रता और
एक दूसरे के सामने रहने का अहसास तो बना ही रहता- वह प्रोफेसर की लिखा पढ़ी ही करती रहती।
छह महीने की अवधि में मोहिनी अब एक प्रतिभाशालिनी छात्रा के रूप में उभर चुकी थी,
जिसकी बहुमुखी योग्यता दूसरों के लिए अचानक उदाहरणीय बना दी गई थी। प्रोफेसर के
व्याख्यान में तो अक्सर विद्यार्थियों को मोहिनी की विद्वत्ता का अर्थात् उसकी सुंदरता का जिक्र
सुनने को मिलता।
वैसे प्रोफेसर के साथ ही कई विद्यार्थियों को भी पता था कि मोहिनी ने एम. ए. प्रथम वर्ष में
सिर्फ़ ५३ प्रतिशत अंक ही प्राप्त किए हैं परंतु इस वर्ष की बात अलग थी। इस वर्ष प्रोफेसर वहाँ आ
चुके थे और वह मोहिनी की प्रतिभा को माँ जकर लगातार 'नवनवोन्मेषशालिनी' बना रहे थे। उनकी
योग्यता से वैसे लाभान्वित तो दूसरे विद्यार्थी भी हो रहे थे परंतु मोहिनी की बात ही कुछ और थी। वह
प्रोफेसर को लाभान्वित कर रही थी। आखिर उनकी शकुंतला जो ठहरी।
बादलों को चीरकर बाहर आने की कोशिश में लगी जाड़े की गुनगुनी धूप थी। नवंबर के
अतिम दिन। गुलाबी ठंडक पड़ने लगी थी। मोहिनी विभाग के सामने बने फव्वारे की मुंडेर पर बैठी
'बिहारी' को खंगाल रही थी। फव्वारे के तल में थोड़ा सा गंदा पानी था जो हरे रंग की शैवाल और कई
प्रकार की बेलों तथा छोटी-छोटी वनस्पतियों से आच्छादित था। फव्वारा कहने के लिए ही फव्वारा
था, उसका जलवा कई सालों से किसी ने देखा न था।
इस इलाके में वैसे भी पानी की कमी रहती है। पिछली बार इस फव्वारे का जीर्णोद्धार तब
हुआ था, जब देश के युवा प्रधान मंत्री दीक्षांत समारोह की शोभा बढ़ाने इस विश्वविद्यालय में आए
थे। तब शायद हिन्दी विभाग के अध्यक्ष 'राहीजी' या 'प्रवासीजी' रहे होंगे। खैर, उसके बाद से इसकी
शोभा बरसाती पानी से ही बढ़ती रही है, जिसका अवशिष्ट वर्ष भर उसे हरा बनाए रखता है। यही हाल
इसकी मुंडेर का है। गोलाकार बनी चौड़ी मुंडेर पर विभाग के छात्र-छात्राऐं बैठकर 'साहित्य चर्चा' करते
हैं- ख़ास तौर से जाड़ों में। कभी-कभी कोई अध्यापक या अध्यापिका भी इसका उपयोग कर लेते हैं।
डा. क्षीरसागर ने तो ख़ैर, विभाग की इज्ज़त डा. लताश्री (तब तक कुमारी) के साथ इस
मुंडेर पर बैठकर जो इतिहास रच दिया है, उसकी गूंज विभाग के छात्र-छात्राओं के लिए आज भी
प्रेरणा स्रोत है। आज भले ही उनका मधुर संबंध पुरातात्विक महत्व का हो चुका है, पर डाक्टर
क्षीरसागर की स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बाद डाक्टर लताश्री की श्री श्रीहीन हो गई है। हालांकि,
उनका व्यक्तित्व अभी भी विद्यार्थियों के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है ।
तो, जाड़े की उस गुलाबी धूप वाले दिन फव्वारे की मुंडेर पर बैठी मोहिनी को इंतेज़ार था
प्रोफेसर का। मुंडेर पर दूसरी ओर सामने के अर्थशास्त्र विभाग की दो सुंदरियाँ अंग्रेजी में बातें कर रही
थीं। जाहिर है, वे हिन्दी के छात्र-छात्राओं पर रोब डालने के लिए अंग्रेजी में गिट पिट कर रही थीं।
उनके बगल में बुर्क़ा पहने बैठी, उर्दू विभाग की दो छात्राओं में कुछ ख़ासमख़ास चिमगोइयां हो रही
थीं।
तभी उर्दू विभाग की ओर से हमारे प्रोफेसर का आगमन हुआ। उनके हाथ में एक
सेमिनारिया बैग था और साथ में उनके निर्देशन में पी-एच. डी. करने वाला नया मुर्गा मंगल
सिंह। मोहिनी को देखते ही प्रोफेसर की बाँछें खिल गईं। उन्होंने अपना बैग मंगल को देते हुऐ
कहा कि तुम मेरा कमरा खोलो, मैं अभी आता हूँ। मंगल 'जी सर' कहकर चुपचाप बैग लेकर
चलता बना। गुरूजी को देखते ही मोहिनी खड़ी हो गई, मुस्कुराई और झुककर अभिवादन किया।
प्रोफेसर की आँखों की चमक बढ़ गई। अभिवादन स्वीकार कर वे मोहिनी से बोले- ''मोहिनीजी ! क्या
पढ़ रही हैं इतनी तल्लीनता से?" जबकि मोहिनी उन्हें देख रही थी, तल्लीन तो कतई नहीं थी।
'' सर ! बिहारी पढ़ रही थी, तभी आपको आते देखा।''
'' बिहारी ! बहुत सुंदर ! बिहारी तो मेरे भी प्रिय कवि हैं"- अब वे फव्वारे की मुंडेर पर बैठ चुके
थे, उनके पास ही मोहिनी भी बैठ गई।
'' मोहिनीजी ! मध्ययुगीन कवि हमारे अध्ययन का आधार हैं। इन्हें विशेष ध्यान देकर पढ़ना
चाहिए। बिहारी को समझने का आसान तरीका है- कालिदास को छानना। कालिदास से बिहारी ने
बहुत कुछ लिया है। यदि कोई समस्या हो तो आप कभी भी पूछ सकती हैं ।''
'' मैं पूरा ध्यान रख रही हूँ सर ! कुछ चीजें नोट कर रही हूँ । आपसे एक साथ पूछ लूँगी। इस
बार मुझे बहुत से नंबर लाने हैं, जिससे पिछले साल का कवर कर सकूं।''
''मोहिनीजी ! मुझे आश्चर्य है कि इतनी योग्य होकर भी प्रथम वर्ष में आपको इतने कम अंक
प्राप्त हुऐ । आपको तो फर्स्ट क्लास फर्स्ट से कम होना ही नहीं चाहिए। मैं देखता हूँ - इस बार आपको
इतने कम अंक कैसे मिलते हैं?"
''सर क्या बताऊँ? मेरे पेपर इतने अच्छे हुऐ थे, पर नंबर बहुत कम मिले़..."
''कोई बात नहीं, इस बार ऐसा नहीं होगा। बस आप इसी प्रकार अपना अध्ययन जारी रखें,
बाकी मैं तो हूँ ही- आपकी सेवा के लिए।''
''अगर आप रहे होते तो शायद मेरे साथ यह अन्याय नहीं होता। मैं तो बहुत निराश हो गयी
हूँ ।''
''अरे भाई! निराश मत होइए। आपकी इन सुंदर आँखों में निराशा जँचती नहीं। मोहिनी तो
सम्मोहित करे, तभी अच्छी लगती है... पिछली बार मैं नहीं था तो क्या हुआ? इस बार तो हूँ ।
मोहिनीजी ! तुलसी बाबा कह गऐ हैं- 'और करे अपराध कोउ और कोउ फल भोग।' तो पता नहीं
किसके अपराध का दंड आपको मिला है। ईश्वर उसका ध्यान रखेगा। आप अपने परिश्रम पर भरोसा
रखिए। देखिए रहीम का एक खूबसूरत दोहा है-
'कुटिलन संग रहीम कवि, साधू बचते नाहिं ।
ज्यौं नैना सैना करैं, उरज उमैठी जाहिं ॥'
''क्या समझीं? कुटिलों के संग रहने का दंड सज्जनों को भुगतना पड़ता है। जैसे सारी
शरारत तो आँखों की होती है, लेकिन उसका दंड उरोजों को भुगतना पड़ता है।''
वे निस्संगता से मोहिनी से बोले जा रहे थे। मोहिनी के गाल, आँखें , कान आदि लाल हो रहे
थे, जैसे प्रोफेसर उसे यह सब बता न रहे हों बल्कि बाक़ायदा उसके साथ कर रहे हों। वह लाज, शर्म,
हया- इसे जो भी कहें- के साथ तड़पकर बोली- "सर ! ये आप क्या कह रहे हैं?... मैं तो अपने भविष्य
की बात कर रही थी...।''
अर्थशास्त्र की सुंदरियाँ अंग्रेजी भूलकर इस बौद्धिक रोमांस को निहार रही थीं- 'कि हाय!
लिटरेचर में सब कुछ कितना रियल है? कितना रोमाँटिक?'
उर्दू विभाग की छात्रा ने अपनी सहेली से कहा- '' लाहौल बिला क़ुव्वत! कितना बेहया है?
ज़बान तो देखो नामुराद की। क्लास में यही सब सिखाता होगा। हमारे यहाँ ऐसा कहे तो जाने क्या हो
जाए।''
''होना क्या है? रहमत अली की याद है- कैसे चंपी हो गयी थी? हमारे यहाँ यह आ जाऐ तो
क़सम ख़ुदा की बचे हुऐ बाल भी न रहें। चल क्लास में बैठते हैं। अब यही बाकी रह गया है। यहाँ के
उस्तादों में न तमीज़ रही न तहजीब'' - दूसरी ने कहा और वे दोनों चेहरे पर बुर्का डाल, सैंडिल
चटकाती हुई उर्दू विभाग की ओर रुख़सत हो गर्ईं।
इस सबसे निर्द्वंद्व प्रोफेसर ने मोहिनी के कंधे को धीरे से दबाया और बोले- ''मैं भी आपके
भविष्य की ही बात कर रहा था और अब आपका भविष्य मुझे बनाना है। बस आप इसी प्रकार मुझे
सहयोग करती रहिए, शेष मुझ पर छोड़ दीजिए"- ठहर-ठहर कर बोलते हुऐ प्रोफेसर साहब ने उसे
सांत्वना दी। हाँ! अतिम बात उन्होंने बहुत धीरे से कही क्योंकि चार-पाँच छात्र-छात्राऐं वहाँ आकर खड़े
हो गऐ थे। अब प्रोफेसर ने मुंडेर से उठते हुऐ मोहिनी से कहा- "मैं विभाग में हूँ ।"
वे विभाग चले गऐ । विभाग में मंगल उनके कमरे में बैठा था। मंगल से उन्होंने कहा-
"मंगलजी, ऐसा कीजिऐ कि 16 तारीख़ की बंगलोर की फ़्लाइट में टिकट बुक करवा दीजिए
और वापसी का 19 को। और दूसरा सेकंड स्लीपर बंगलोर आने जाने का टिकट भी बुक
करवा दीजिए। ये लीजिए दस हज़ार रुपऐ । बुकिंग आज ही हो जानी चाहिए ।" मंगल ने पूछा-
"ट्रेन और फ़्लाइट दोनों की टिकट क्यों सर?" गुरूजी ने कहा- "आप परेशान मत हों, मैं
दोनों से नहीं जाऊँगा। जाना तो ट्रेन से ही है। फ़्लाइट का टिकट बुक करके उसकी फ़ोटोकॉपी
करके उसे कैंसिल करवा देना। समझे !"
मंगल कुछ कनफ़्यूज़ हुआ लेकिन बोला- "ठीक है सर, मैं अभी जाकर टिकट बुक
करवा देता हूँ ।...सर! आपने कहा था कि आज आप मेरी सिनाप्सिस फ़ाइनल करवा देंगे।"
प्रोफेसर ने मुस्कुराते हुऐ कहा- "अरे भाई! सिनाप्सिस बनाने में समय लगेगा। बंगलोर यात्रा
से वापस आते ही बनवा दूँगा। और, इस यात्रा में मैं तुम्हारे विषय पर कुछ मनन भी कर
लूँगा। ठीक?" मंगल ने प्रसन्न होते हुऐ कहा- "ठीक सर। आप जैसा कहें।" प्रोफ़ेसर ने कहा-
"आप निश्चिंत रहें मंगलजी, हमें आपकी चिंता है।" मंगल प्रसन्न होता हुआ उन्हें प्रणाम
करके निकल गया। गुरूजी मंगल के भोलेपन पर मुस्कुरा रहे थे या और किसी बात पर,
कहना मुश्किल है।
उधर डाक्टर क्षीरसागर और लताश्री के संबंधों का साक्षी वह ऐतिहासिक फव्वारा विभागीय
छात्र-छात्राओं से घिर चुका था। हाँ , मोहिनी जरूर किनारे से खिसक चुकी थी, लेकिन प्रोफेसर का
फव्वारे पर बैठना बहुत दिनों तक विभाग की चर्चा का केन्द्र बना रहा।
अब वक्त कुछ ऐसा आ चला था कि प्रोफेसर को देख मोहिनी मुस्कराकर कटाक्ष फेंकती जिसे
वे लपककर चूम लेते। दिन बीतते गऐ । परीक्षाऐं नजदीक आ गयीं। उन्होंने मोहिनी को परीक्षाओं के
लिए विशेष 'डोज' देना प्रारंभ किया। चार में से एक प्रश्न-पत्र वह स्वयं बनाते थे। दूसरा विभाग के
अन्य सदस्य का था। इन दोनों पर उनका वश था। दो अन्य प्रश्न-पत्र बाहर के परीक्षकों द्वारा परीक्षा
विभाग को सीधे भेजे जाते हैं। इन पर उनका सीधा वश नहीं था। अतः वह दोनों उपलब्ध प्रश्न-पत्रों का
पूर्वाभ्यास मोहिनी को कभी किसी रोमाँ चक स्थल पर कराते, कभी सिनेमाहाल में फिल्म देखते हुऐ ,
कभी किसी उन्मुक्त पार्क के किसी मादक कोने में किसी वृक्ष की छाया में लेटे हुऐ , कभी किसी
रेस्त्रां के किसी अंधेरे कोने में तो कभी किसी...।
कभी-कभी मंगल का बीच में आना उन्हें अखर जाता लेकिन वे मुस्कुराते हुऐ मंगल
को किसी व्यक्तिगत कार्य के लिए नियुक्त कर देते और मोहिनी के साथ व्यस्त हो जाते।
प्राचीन भारतीय इतिहास विभाग के सामने बनी 'अशोक वाटिका' भी उनके लिए एक मुफ़ीद जगह
थी। उसका नाम उन्होंने 'तपोवन' रख दिया था, जहाँ दुष्यंत और शकुंतला पहली बार मिले थे। तो
शाम चार बजे से अंधेरा होने तक का समय उन्होंने तपोवन में बैठी मोहिनी के लिए नियत कर रखा
था। कभी-कभी साथ में दो तीन छात्राओं को और बुला लेते वे, जिससे लोक लाज और विश्वविद्यालय
प्रशासन को कोई परेशानी न हो।
पर, इस तपोवन में भी कभी-कभी। अक्सर तो उनका प्रोग्राम विश्वविद्यालय के बाहर किसी
जगह पर रहता। वे जगहें प्रायः एकांत मिलन स्थल होतीं और परीक्षा की तैयारी के लिए एकांत
अभ्यास आवश्यक है। कहने की आवश्यकता नहीं कि मोहिनी इस शहर के इन मिलन स्थलों से पहले
ही वाकिफ थी- जहाँ वह कई बार खास मित्रों के साथ आ चुकी थी और अब प्रोफेसर को उन स्थानों के
दीदार करा रही थी। समय प्रोफेसर तय करते और स्थान मोहिनी। प्रोफेसर चूंकि शहर में नए थे, अतः
उनको जानने वाले भी अभी तक अपेक्षाकृत कम थे। वह बात दीगर है कि उन्हें किसी की चिन्ता न
थी।
परीक्षा के पूर्व प्रोफेसर साहब ने मोहिनी को खूब ट्रेण्ड किया। मोहिनी भी आश्वस्त थी- अपने
भविष्य के प्रति। यह बताना तो यहाँ पर कठिन है कि मोहिनी ने परीक्षा के पूर्व कितना पढ़ा-लिखा,
क्योंकि पिछला एक महीना तो उसने प्रोफेसर के संसर्ग में बिताया है, और विद्वानों का संसर्ग
प्रतिभा को चमका तो देता ही है। पर इतना अवश्य है कि इस विशेष अभियान में प्रोफेसर और
मोहिनी- दोनों एक दूसरे के इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, संगीत, साहित्य और रूप-रस-गंध-
लय-ताल-सुर-छंद आदि से भली-भाँति एकसार हो गऐ । सारी संभावनाऐं उन्होंने तलाश डालीं और
नित नवीन अनुभव प्राप्त किए। हालांकि जाने कितना अभी भी अधूरा-अनचीन्हा लगता- दोनों को-
जिस पर भविष्य में गहन शोध अपेक्षित है।
इस बीच परीक्षाएं निपट गर्ईं। परीक्षाओं के दौरान उन्होंने मंगल की सिनाप्सिस बनवा
ही दी। आख़िर हर समय हर काम करने वाले सेवक मंगल का इतना हक़ तो था ही। और
मंगल जुट गया अपनी थीसिस में।
मोहिनी परीक्षा के पूर्व भी हवा में थी, परीक्षा के पश्चात भी । उसके और प्रोफेसर के दिन
वैसे बीतते रहे। वह हवा में तैरते सपनों को पकड़ने की कोशिश करती और उनके साथ खुद भी उड़ने
लगती...
'एक दिन वह अशोक वाटिका में अभिज्ञान शाकुंतल पर व्याख्यान देने लगी। शकुंतला की
सुंदरता के स्थान पर वह दुष्यंत की सुंदरता का वर्णन करने लगी । दुष्यंत का गौर वर्ण, दुष्यंत का
चौड़ा सीना, दुष्यंत के वृषभ-स्कंध, दुष्यंत की प्रभावशाली आँखें , दुष्यंत के लहराते केश। और यहीं
पर उसकी तंद्रा भंग हो गई। प्रोफेसर साहब तो उजड़ा चमन हैं- बालों के नाम पर बालों का धोखा
मात्र। तो ! दुष्यंत के केश कैसे रहे होंगे? उसे लगा कालिदास उसे कन्फ़्यूज़ कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो
नहीं कि दुष्यंत भी प्रोफेसर साहब की भाँति उजड़ा चमन? नहीं ! यह नहीं हो सकता़....'
तभी उसे दूसरा सपना दिखा- 'वह किसी विश्वविद्यालय के प्रांगण में व्याख्यान दे रही है।
श्रोताओं में प्रोफेसर सबसे अगली पंक्ति में बैठे तालियां पीट रहे हैं। दूसरे प्रोफेसर उसे बधाइयां दे रहे
हैं। वह लड़के-लड़कियों से घिरी है। उसकी पुस्तक का विमोचन प्रोफेसर के हाथों हो रहा है...'
उस दिन वह दूसरे आसमान पर थी। तबसे उसका समर्पण और अधिक आकांक्षामय, और
अधिक आत्मीय और, और अधिक मादक हो गया- अब वह सातवें आसमान पर पहुँच चुकी थी। वे
दोनों इसी तरह 'आसमान-दर-आसमान' चढ़ते-उतरते रहे और एक दिन परीक्षाफल आ गया।
मोहिनी को अट्ठावन प्रतिशत अंक मिले- यानी द्वितीय श्रेणी।
मोहिनी और प्रोफेसर- दोनों के पंख जल गऐ । प्रोफेसर साहब को समझ में नहीं आ रहा था कि
इतनी बड़ी चूक कैसे हुई। क्यों नहीं उन्होंने पहले ही बाहरी परीक्षकों को 'साध' लिया। इस समय
उनकी सबसे बड़ी परेशानी यह थी कि मोहिनी को सांत्वना कैसे दें? कैसे समझाऐं? उसकी आँखें
गंगा-जमुना-सरस्वती का उद्गम बनीं हुई थीं। वह बार-बार यही कहती- ''अब मेरा क्या होगा सर?
आपने क्या कहा था? यह सब कैसे हो गया? मेरा कैरियर बरबाद हो गया। अब मेरा जीवन व्यर्थ है।
मैं क्या करूँ ? जी में आता है कि नदी में कूदकर अपनी जान दे दूँ ।''
प्रोफेसर से उसकी पीड़ा देखी नहीं गई। कुछ करना होगा। उसे समझाते हुऐ बोले- ''मोहिनीजी!
सबसे पहले आप रोना बन्द करें। आपको रोते देखकर मेरा हृदय विदीर्ण हो रहा है। मैंने आपसे
कहा था- आपका कैरियर मैं बनाऊँगा। अभी कुछ नहीं बिगड़ा। आपको मुझ पर विश्वास है या नहीं?"
''सर! आप पर विश्वास तो अपने से अधिक है, पर, अब सब कुछ कैसे होगा? मैं क्या करूँ ?
मेरा डिवीज़न, मेरा भविष्य?''
''आपका डिवीज़न बदलेगा। आप प्रतिभावान हैं, सुयोग्य हैं। यह विश्वविद्यालय आपकी
प्रतिभा का अपमान नहीं कर सकता। आप शांत हो जाइए और सुनिये''- प्रोफेसर ने अपने रूमाल से
उसके आँसू पोंछते हुऐ , उसे बाहों में घेर लिया और दबाव बनाते हुऐ उसकी पीठ सहलाने लगे।
त्रिसूत्रीय योजना बनी। पहली- मोहिनी आठों प्रश्न-पत्रों में इम्प्रूवमेंट की परीक्षा दे। दूसरी ओर
वह उनके निर्देशन में पी-एच. डी. में तुरंत प्रवेश ले ले। तीसरी- वह महाविद्यालयों,
विश्वविद्यालयों की अध्यापिका बनने के लिए अनिवार्य नेट/सेट परीक्षा में भी बैठे। मोहिनी ने आठों
प्रश्न-पत्रों के लिए इम्प्रूवमेंट परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी। यह तैयारी एम. ए. परीक्षा से अधिक
सघन थी। पी-एच. डी. में आवेदन कर दिया- प्रोफेसर के निर्देशन में- उन्हीं के द्वारा तय किए गऐ
एक लचर विषय पर- जोकि तीस साल पहले मूलतः प्रोफेसर का भी शोध विषय था।
प्रोफेसर को इस विश्वविद्यालय और इस शहर में आए लगभग डेढ़ वर्ष हो चुके थे। विभाग से
संबंधित शहर के महाविद्यालयों के अध्यापक उनसे भली-भांति परिचित हो चुके थे- बोर्ड आ़फ़
स्टडीज़ के चेयरमैन की हैसियत से। कुछ पहले से ही जानते थे। दूसरे विश्वविद्यालयों के जो
परीक्षक थे, उनको तथा अन्य संपर्कों को उन्होंने 'साधा'- मोहिनी की इम्प्रूवमेंट परीक्षा के लिए।
परीक्षा तो ख़ैर जैसी होनी थी, हो गई। प्रोफेसर को पता था कि कौन सा प्रश्न-पत्र किसके
पास जाता है। उन्होंने परीक्षक बंधुओं से मोहिनी के बारे में इतना ही कहा कि वह उनकी भतीजी है
और बहुत योग्य है। कृपया ध्यान रखें। परीक्षक भी संसारी जीव होते हैं, जिनकी कुछ आवश्यकताएं,
कुछ राग-द्वैष होते हैं। फिर प्रोफेसर साहब स्वयं कह रहे हैं तो छात्रा की इससे बड़ी योग्यता क्या
होगी? यह तो वैसे भी उनकी भतीजी का मामला है। लिहाजा उन सबने अतिशय उदारता से काम
लिया और चाचा-भतीजी दोनों को धन्य कर दिया।
'दुख भरे दिन बीते रे भइया, अब सुख आयो रे
रंग जीवन में नया छायो रे'....
ऐसा रंग मोहिनी और प्रोफेसर के जीवन में छा गया। उनके उत्सवधर्मी दिन फिर लौट आए-
जब मोहिनी का रिजल्ट आ गया। इस बार उसे तिहत्तर प्रतिशत अंक प्राप्त हुऐ जो इस विषय में इस
विश्वविद्यालय का दस वर्षों का रिकार्ड है। मोहिनी की इस सफलता को उन दोनों ने 'सेलीब्रेट' किया-
कहाँ -कहाँ और कैसे-कैसे- कहना मुश्किल है, क्योंकि अब वे हर कहीं मिल सकते थे। हाँ ! इतना जरूर
पता चला कि हनुमान मंदिर के बाहर सवा किलो पेड़े का प्रसाद भिखारियों में बँटा।
उन दोनों की झिझक और शर्म तो पहले ही मिट चुकी थी, जो नेकनामी होनी थी, हो चुकी थी
और सबसे बड़ी बात- वह उनके मार्गदर्शन में पी-एच. डी. कर रही थी। प्रोफेसर अपना वादा पूरा कर
रहे थे। उन्हें अपने से अधिक मोहिनी की चिंता थी। बुढ़ौती का प्रेम- क्या लोक-लाज और क्या मान-
सम्मान। घर में एक गँवार पत्नी है जो गाँव में रहकर गृहस्थी और खेती-बाड़ी में खटती रहती है। एक
लड़का है- वह भी अपने बीवी-बच्चों के साथ एक दूसरे शहर में नौकरी में व्यस्त और मस्त है।
मोहिनी के शानदार कैरियर की शुरुआत हो गई। अब प्रोफेसर को रिटायर होने में लगभग दो
वर्ष बचे थे। इस दौरान उनके पास दो आवश्यक कार्य थे- मोहिनी को पी-एच. डी. की डिग्री दिलवाना
और नेट/सेट परीक्षा में पास करवाना। इतना सब हो तो उसके लिए एक अदद नौकरी का जुगाड़
करना मुश्किल न होगा। इसी शहर में कई महाविद्यालयों में स्थान रिक्त हैं, अतः कोई समस्या ही
नहीं है। आखिर एक्सपर्ट तो वही रहेंगे।
इन्हीं सब समीकरणों के गठजोड़ में प्रोफेसर ने मोहिनी को थीसिस डिक्टेट करवानी प्रारंभ
कर दी। समय उनके दोनों हाथों से झर रहा था, पर वह प्रगतिशील थे- मोहिनी के प्रति पूरी तरह
'प्रतिबद्ध' और 'कटिबद्ध'। यहाँ पर आप लोग 'कटिबद्ध' का अर्थ पूरी तरह अभिधा में लें- 'कटि से
बद्ध'। लिहाजा, डेढ़ वर्ष में ही मोहिनी की थीसिस जमा हो गई। वैसे भी उसे करना ही क्या था- जो
भी था प्रोफेसर का किया धरा था। नियमानुसार, अट्ठारह महीने से पहले जमा न की जा सकने की
मजबूरी थी, नहीं तो वह पहले ही जमा हो जाती।
वैसे थीसिस तो मंगल की भी जमा हो चुकी है लेकिन गुरूजी को अब उसकी मौखिकी
परीक्षा कराने की कोई जल्दी नहीं है। उनकी सोच है- मंगल लड़का है, ऊपर से विवाहित भी।
उसे अपनी रोज़ी-रोटी कमानी ही है- किसी तरह कमा लेगा। लेकिन मोहिनी तो लड़की है,
उसका साथ कौन देगा? इतने बड़े शहर में कौन उसे नौकरी देगा? मंगल को एक प्राइवेट
स्कूल में छोटी सी नौकरी मिल भी गई है। लेकिन गुरूजी के प्रति उसकी प्रतिबद्धता कम
नहीं हुई है। वैसे वो नेट पास हो चुका है एक वर्ष पहले ही। अब उसे अपनी पी-एच. डी. डिग्री
का इंतेज़ार है और किसी अच्छी नौकरी का भी- गुरूजी की कृपा से। इतने दिनों की सेवा का
कुछ फल तो मिलना चाहिए।
प्रोफेसर की नौकरी अब सिर्फ़ तीन महीने शेष थी। शोध-प्रबंध लिखवाने के साथ-साथ
उन्होंने मोहिनी को नेट-सेट की परीक्षा में भी बैठाया। बड़ा विश्वविद्यालय होने के कारण और अपने
विषय के विभागाध्यक्ष होने के कारण उन्हें नेट-सेट परीक्षा के प्रश्न-पत्र बनाने के लिए बुलाया जाता
था। इस बार भी ऐसा ही हुआ।
प्रोफेसर ने प्रश्न-पत्र भी बनाया और परीक्षा के बाद परीक्षक भी बने। उत्तर पुस्तिकाओं को
जांचने के लिए निमंत्रित हुऐ । इस अति गोपनीय जांच-कार्य में उनके साथ और परीक्षक भी थे। सभी
एक दूसरे को जानते थे, अतः भतीजी फार्मूला यहाँ भी कार्य कर गया और इसी के साथ मोहिनीजी
नेट/सेट परीक्षा की वैतरणी प्रथम बार में ही पार कर गर्ईं। उसकी प्रतिभा उससे अभिभूत और चकित
थी। उसकी प्रतिभा को और चमकाने में तथा लोगों को उसका क़ायल बनाने में प्रोफेसर द्वारा इधर-
उधर कहे गऐ शास्त्र वचन भी सहायक बन रहे थे। वह यह परीक्षा शोध-प्रबंध जमा करने से पहले ही
पास हो गई। अब उसका तथा प्रोफेसर का सपना पूरा होने वाला था।
प्रोफेसर ने मोहिनी से जो वादा किया था, अच्छी तरह निभाया। मोहिनी ने भी तन, मन और
जो कुछ भी हो सकता है, उससे प्रोफेसर की सेवा की थी। जिसकी कीमत का अंदाज़ा और कोई नहीं
लगा सकता। अब उसे था सिर्फ़ एक नौकरी का इंतेज़ार । उसका जुगाड़ भी उन्हें ही बैठाना था। पी-एच.
डी. का क्या है, जमा कर दिया तो तीन महीने में उपाधि भी मिल ही जाऐगी - फिर?
प्रोफेसर का मोहिनी से अटूट प्रेम संबंध प्रतिदिन और प्रगाढ़ होता गया। वह अब तक मोहिनी
से किए गऐ अपने वादे निभाते आए थे। फर्स्ट वस्र्लास फर्स्ट एम. ए., सेट परीक्षा उत्तीर्ण, पी-एच.
डी. शोध-प्रबंध जमा- ऐसे उम्मीदवार को क्या मुश्किल? उसके लिए किसी से कुछ कहने में भी
संकोच नहीं हो सकता। प्रोफेसर तो वैसे भी साम-दाम-दंड-भेद सबमें माहिर हैं।
उन्हें याद आया अपने विश्वविद्यालय के एक कालेज का प्रिंसिपल। उसने अपने कालेज में
एम. ए. की कक्षाऐं चलाने के लिए विभाग और विश्वविद्यालय से अनुमोदन लिया था। इसमें
प्रोफेसर ने उसकी सहायता की थी। उसके यहाँ एक स्थान रिक्त था। प्रोफेसर ने उससे संपर्क किया
और जितना संभव था, मोहिनी की बड़ाई करके उस पर दबाव बना लिया। प्रिंसिपल भी कम घाघ न
था, वह भी प्रोफेसर की ही प्रजाति का था। उसने मोहिनी को बायोडाटा सहित बुला लिया। बायोडाटा
तो मोहिनी का वाकई स्ट्रांग था- बड़ी-बड़ी मोहक आँखें , भरा-पूरा शरीर, आकर्षक खिला रंग और
सबसे अधिक मादक थी उसकी आमंत्रित करती मुस्कान- जिसमें एक निस्संकोच आमंत्रण था।
मोहिनी की बड़ी-बड़ी वृश्चिक राशि की आँखें देखकर प्रिंसिपल ने उसे एक हफ़्ते बाद ही बुला
लिया- बाक़ायदा साक्षात्कार के लिए- मैनेजमेंट के समक्ष। योग्यता में कहीं कोई पेंच न था।
एक्सपर्ट थे प्रोफेसर और उनके एक मित्र। मैनेजमेंट तो उम्मीदवार के विषय में एक्सपर्ट और
प्रिंसिपल से ही पूछता है- जो पहले ही तैयार थे। इस प्रकार मोहिनी को चुन लिया गया।
वैसे मंगल भी एक आवेदक था और उसका साक्षात्कार भी लिया गया। लेकिन उससे
ऐसे प्रश्न पूछे गऐ जो उसके दायरे से बाहर थे। वो समझ गया कि मोहिनी की उपस्थिति में
उसे कौन पूछेगा? और हुआ भी यही। मोहिनी को चुन लिया गया। मंगल ने इसे अपनी
नियति मानकर स्कूल की नौकरी जारी रखी। आख़िर वो मोहिनी का विकल्प हो भी कैसे
सकता था।
और मोहिनी वहां तीसरे दिन से ही पढ़ाने लगी। दो वर्ष का प्रोबेशन होता है। प्रोफेसर को अब
केवल मोहिनी की पी-एच. डी. की मौखिकी करवानी बाकी थी- नौकरी का जुगाड़ फिट हो ही चुका
था। उन्होंने परीक्षकों से पहले ही बात कर रखी थी। जिस दिन मोहिनी की नौकरी लगी, प्रोफेसर को
रिटायर होने में एक महीना शेष था । और जिस दिन मोहिनी की पी-एच. डी. की मौखिकी हुई,
उसके आठ दिन बाद प्रोफेसर रिटायर हो गऐ । हालांकि, पता नहीं चला कि नौकरी और पी-एच.
डी. की पार्टी उन दोनों ने एक दूसरे को कैसे दी? इतना जरूर है कि नेहरू गार्डेन में उन दोनों की
खिलखिलाहट देर रात तक सुनाई देती रही।
कुल मिलाकर यह कहा जाए कि प्रोफेसर साहब की चार वर्षों की उपलब्धि क्या रही तो वह
निश्चित ही मोहिनी थी। और मोहिनी ! मोहिनी को प्रोफेसर से जो कुछ भी मिला- क्या तुच्छ शरीर
उसका कुछ प्रतिदान दे सकता है?
अब आप कह सकते हैं कि मज़ा नहीं आया कहानी सुनने में। पर, यह आपसे किसने कहा था
कि मज़े के लिए कहानी सुनिये। न न, गलतफ़हमी में न रहिए- अगर मज़ा बिगाड़ना हो तो आगे
सुनिये, नहीं तो यहीं छोड़ दीजिए।
प्रस्थान बिंदु
जब प्रोफेसर साहब इस शहर में आए थे, तो उनके सामने रहने की विकट समस्या थी।
विश्वविद्यालय के परिसर में वे रहना नहीं चाहते थे- इससे उनकी स्वतंत्रता में बाधा आती। अतः
कुछ महीनों वे इधर-उधर भटके, फिर यहाँ के एक कालेज के अध्यापक वीरेंद्र नाथ राय ने अपनी
बिल्डिंग में एक खाली फ़्लैट प्रोफेसर को दिखाया। किराया थोड़ा अधिक था, पर प्रोफेसर को जिस
एकांत की तलाश थी, वह यहाँ था, सो उन्होंने फ़्लैट किराए पर ले लिया।
उस बिल्डिंग में सोलह फ़्लैट थे- सभी भरे हुऐ । प्रोफेसर को तीसरी मंज़िल का एक फ़्लैट
मिला, जो वीरेंद्र राय के फ़्लैट के ठीक ऊपर था। वीरेंद्र राय के फ़्लैट के नीचे- पहली मंज़िल पर-
जौहरी साहब का फ़्लैट था। यह वही दिन थे जब प्रोफेसर और मोहिनी एक दूसरे से खुलकर मिलने
लगे थे। पर प्रोफेसर कभी मोहिनी को अपने फ़्लैट पर नहीं लाए, क्योंकि वे अपनी दोनों ज़िंदगियों,
घर और विश्वविद्यालय में, अंतर बनाऐ रखना चाहते थे। जो रहा भी।
कहानी कुछ शुरू यूँ होती है- एक दिन प्रोफेसर वीरेंद्र राय के फ़्लैट में बैठे थे कि नीचे से जौहरी
का पदार्पण हुआ। जाहिर है, दोनों का परिचय हुआ। जौहरी अपने घर में सत्यनारायण की पूजा एवं
हवन कराना चाहता था। इस समय वह वीरेंद्र राय के पास इसी कार्य के लिए एक अदद पंडित के
जुगाड़ में आया था। वह कुछ कहता, उससे पहले ही प्रोफेसर ने उससे पूछ लिया-
'' जौहरी साहब! किस प्रकार की पूजा करवानी है? क्या कोई विशेष प्रयोजन है?''
''हां साहब! विशेष बात ही है। पिछले साल मेरे पिता का देहान्त हो गया। अब एक वर्ष पूरा हो
रहा है, इसलिए भगवान सत्यनारायण की पूजा एवं हवन करवाना है। जो पंडितजी हमेशा हमारे घर
आते थे, वे देस (गाँव) गऐ हैं। इसलिए मैं वीरेंद्र जी से जानना चाहता था कि....''
''अच्छा-अच्छा! बड़ा महत्वपूर्ण कार्य है। तो वीरेंद्रजी! किसी से बात की?'' प्रोफेसर ने
जिज्ञासा जाहिर की।
'' अभी कहाँ डाक्टर साहब! आजकल तो अच्छा पंडित मिलना भी एक समस्या है।''
'' अरे भाई! आप कहें तो मैं ही आपकी समस्या दूर कर दूँ ''- मुस्कुराते हुऐ प्रोफेसर ने कहा।
'' आप! क्या आप यह सब..."
'' नहीं भाई! सबके लिए नहीं, यह सुविधा मैं सिर्फ़ मित्रों को देता हूँ । और विश्वास कीजिऐ
जौहरी साहब! आपके पंडित से अच्छा ही कराऊँगा। आपको निराशा नहीं होगी।''
''अरे सर! फिर क्या कहने। आप जैसे विद्वान के आने से तो मेरा घर पवित्र हो जाएगा।
वीरेंद्रजी! आपकी बड़ी कृपा है जो ऐसे विद्वान पुरुष के दर्शन हुऐ । सर ! अब मैं आपको पंडित जी ही
कहूँगा। आपको ऐतराज़ तो नहीं।''
'' जौहरी साहब ! भाई, आप जो चाहें कहें। मैं तो प्रेम का पुजारी हूँ । आप जैसे मित्रों की सेवा ही
मेरा धर्म है। फिर, यह तो अपने घर की बात है।
प्रोफेसर का जौहरी से यह प्रथम परिचय था। उनकी शहर के एक प्रतिष्ठित बाजार में अच्छी
चलती दुकान है। धर्म-भीरु जौहरी लक्ष्मी पुत्र होकर भी सरस्वती पुत्रों का बड़ा सम्मान करता है।
उसका छोटा सा परिवार है- पत्नी और एक लड़की- १५-१६ साल की। घर में पत्नी की ही सरकार है।
वैसे भी जौहरी को दुकान के बड़े झंझट रहते हैं, अतः घर की सारी व्यवस्था पत्नी के हाथों में ही रहती
है।
बड़े प्रयत्नों से भी जब जौहरी दंपति को पुत्र-लाभ न हुआ, तो वे ईश्वर की कृपा मान बेटी को
ही बेटा समान पालने लगे। परिणाम स्वरूप उसकी सारी इच्छाओं, ज़रूरतों को वे पूरा करते रहे और
कोई कमी न होने दी। जिस दिन वीरेंद्र के घर में प्रोफेसर का जौहरी से परिचय हुआ, प्रोफेसर को शहर
में आए लगभग ड़ेढ वर्ष हो चुके थे। मोहिनी से उनकी आशिक़ी परवान चढ़ रही थी। तभी उनकी
घुसपैठ जौहरी के घर हुई- वह भी सामान्य ढंग से नहीं, प्रभावशाली ढंग से। विश्वविद्यालय का
प्रोफेसर- कई विद्याओं का ज्ञाता- उनके यहाँ सत्यनारायण की पूजा और हवन करवाए- यह अहसास
जौहरी परिवार के सदस्यों के मन में प्रोफेसर के लिए आदर और सम्मान का भाव बढ़ा गया।
हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी के ज्ञाता पंडित की विद्वता का मधुर आतंक इन तीनों पर कुछ
ऐसा पड़ा कि कुछ ही दिनों में प्रोफ़ेसर की आमदरफ़्त उनके यहाँ बढ़ गई। जौहरी की बेटी ममता
बारहवीं कक्षा की छात्रा थी। जब उसे घर पर पढ़ाने के लिए मास्टर की बात उठी- जौहरी परिवार को
प्रोफेसर याद आए। जौहरी की पत्नी ने प्रोफेसर से बात की। प्रोफेसर तो इसी फिराक में थे- सहर्ष राजी
हो गऐ ।
इतनी सुंदर माँ और बेटी के पास प्रतिदिन बैठने-बतियाने का इससे सुंदर जुगाड़ क्या होता?
यूँ भी उनके दिन और शामें विश्वविद्यालय और मोहिनी के नाम बुक रहतीं। प्रोफेसर ने ममता को
पढ़ाने का वह समय चुना, जब जौहरी खाना खाकर और बांधकर दुकान जा चुका होता। बेटी पढ़ने के
लिए तैयार रहती और उसकी माँ उसे देखने के लिए। प्रोफेसर विश्वविद्यालय दोपहर तक जाते और
ममता का विद्यालय भी दोपहर का था। वह साढ़े नौ से साढ़े दस-ग्यारह तक उसे पढ़ाते। जौहरी नौ से
पहले ही घर छोड़ देता। अतः उनकी भेंट जौहरी से न के बराबर होती।
प्रोफेसर की क्षमता और योग्यता मोहिनी प्रकरण में प्रकट हो चुकी है अतः उनके कौशल पर
यहाँ न लिखा जाना ही उचित है। जब वह ममता को पढ़ाते- उसकी माँ भी आस-पास बैठी रहती।
प्रोफेसर ठहरे प्रेमी जीव। वह ममता की पढ़ाई से अधिक ध्यान उसकी माँ पर देते और उससे बतियाते
रहते। वह भी इनकी बातों में बड़ा रस लेती। ममता को वह संस्कृत, हिंदी, अग्रेजी पढ़ाते। संस्कृत
पढ़ाते हुऐ वह बड़े रसिया हो जाते और कई श्लोक संदर्भ से हटकर सुना जाते।
जब वे दोनों उनसे उनके अर्थ पूछतीं तो प्रोफेसर पहले तो ना-नुकुर करते, फिर उनकी
जिज्ञासा बढ़ जाने पर और बार-बार पूछे जाने पर मुस्कुराते हुऐ आचार्य अमरुक के उन श्रृंगारिक
श्लोकों का अर्थ बताते- असंपृक्त होकर। कभी-कभी वह ऐसे श्लोक भी सुनाते जिनके अर्थ दार्शनिक
या सामाजिक होते। श्लोकों की व्याख्या के बीच वह अप्रत्यक्ष रूप से यह भी इंगित करते जाते कि
आप बड़ी सुंदर हैं, युवा हैं- जिसका अर्थ होता कि आप प्रेम के सर्वथा योग्य हैं।
अपनी अश्लीलता और नंगई को वह देववाणी का सौंदर्य और पवित्रता कहकर महिमा मंडित
कर देते। जब कोई विशेष भाव या संदर्भ समझाना होता, तो वह ममता को पानी लाने या चाय बनाने
भेज देते तथा उसकी माँ को 'खुले' शब्दों में समझा देते। ममता भी समझ जाती कि उसे क्यों चाय
बनाने भेजा जा रहा है। वह चाय बनाते हुऐ चुपचाप उन दोनों की बातें भी सुनती? उसके मन में भी
नित नई संभावनाओं के द्वार खुलते जा रहे थे।
इधर प्रोफेसर और उसकी माँ के बीच वार्तालाप कुछ अधिक ही उन्मुक्त होने लगा। वह सब
कुछ न सिर्फ़ समझती जा रही थी, बल्कि अनजाने ही प्रोफेसर की योजना का शिकार भी बनती जा
रही थी। उसे नहीं पता था कि उस तक पहुंचने के लिए प्रोफेसर पहले उसकी माँ को 'साध' रहा है। वैसे
प्रोफेसर को यह अच्छी तरह पता था कि दोनों को 'साधने' से ही खुला खेल फर्रुखाबादी खेला जा
सकता है- किसी एक से नहीं।
ममता धीरे-धीरे प्रोफेसर की विद्वता एवं कौशल के प्रति आकर्षित होती गई। प्रोफेसर भी
उसके आकर्षण के प्रति सजग था। जब कभी माँ घर के किसी काम में मसरूफ़ होती, वह ममता के
कंधे, सर, गाल, पीठ आदि पर चपत लगा देता- कभी-कभी सहलाने के अदाज़ में। उसे अच्छी तरह
मालूम था कि कहाँ छूने से प्रभाव अधिक शीघ्र और तीव्र होगा। ममता के यौवन का प्रारंभ हो रहा था।
उसे यह सब उपादान भाते। फिर उसकी माँ प्रोफेसर के साथ जिस तरह पेश आती थी- उसे देख उसकी
हिम्मत भी खुलती गई। और एक दिन जब उसे चाय बनाने भेजा गया- उसने छिपकर देखा- उसकी
माँ और प्रोफेसर- दोनों एक दूसरे को बेतहाशा चूम रहे हैं। माँ ने कुछ मादक प्रतिवाद किया कि- ''
छोड़िए'', तो प्रोफेसर ने यह श्लोक सुनाया-
'' अपरिक्षतकोमलस्य यावत्कुसुमस्येव नवस्य षट्पदेन ।
अधरस्य पिपासता मया ते सदयं सुंदरि! गृह्यते रसोSस्य॥'' (अभिज्ञान शाकुंतलः ३/२२)
- 'अर्थात् जैसे भौंरा नवीन और कोमल फूल का रस बड़े चाव से पीता है, वैसे ही जब मुझ
प्यासे को तुम्हारे कोमल अधरों का रसपान करने को मिल जाएगा, तब छोड़ दूँ गा।'
यह दृश्य जौहरी परिवार के लिए प्रस्थान बिंदु सिद्ध हुआ।
इसके कुछ दिनों बाद ही वह स्थिति आ गई, जब प्रोफेसर ने मिसेज़ जौहरी को पूर्णतः
'साध' लिया। अब उनके रिटायरमेंट को भी छः महीने ही बचे थे। इस उम्र में वह विश्वविद्यालय में
मोहिनी और घर में मिसेज़ जौहरी दोनों के साथ जीवंत संबंध जी रहे थे। मोहिनी के साथ उनके
जुड़े होने की बात सभी को पता थी पर जौहरी परिवार का सच किसी को पता न था- खुद जौहरी को भी
नहीं। जौहरी परिवार को भी मोहिनी की ख़बर नहीं थी। और प्रोफेसर तो निर्द्वन्द्व हो ही चुके थे।
भविष्य के विषय में उन्होंने कभी सोचा नहीं! सोचने का समय ही न था उनके पास।
पाठकों ! अब आपको इस कहानी के बारे में विचार-विमर्श करना है। मैं आपकी थोड़ी-
थोड़ी परेशानी समझ रहा हूँ । आपको यहाँ बुलाया था- कहानी सुनने को, न कि विमर्श करने को-
आजकल इस 'विमर्श' शब्द का ही चलन है। जी नहीं ! मैं कतई आपसे आज वो टकसाली- स्त्रीवादी,
फासीवादी या दलित-विमर्श की बात नहीं करना चाहता। मेरी आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि इस
कहानी को इन चौखटों में घेरने की कोशिश कदापि न करें।
मुझे पता है- आप चिढ़ रहे हैं, लेकिन क्या करूँ ? आप सोच रहे होंगे कि अच्छी भली कहानी
दौड़ रही थी, कि मैंने खड़ी कर दी। सच तो यह है साथियों कि मैं ही धर्मसंकट में था और निश्चय
नहीं कर पा रहा था कि आगे मैं यह कहानी आपसे कैसे कहूँ ? सुनाना शुरू करते वक़्त मुझे इसका
आभास नहीं था, पर कोई बात नहीं।
इतनी बकवास करने का कारण यही था कि जब तक आप को इधर-उधर टहलाऊँ , तब तक
आगे की कहानी कैसे सुनानी है- इसका ताना-बाना भी बुन लूँ । वैसे भी अब दो ही प्रश्न आपके पास
हैं- अततः क्या हुआ? और कैसे हुआ? तो पहले 'अततः क्या हुआ' प्रश्न का उत्तर- यानी कि
क्लाइमेक्स- इस प्रकार है-
उपसंहार यानीः किसका कंधा, किसके पैर
कहानी में और कुछ कहने-सुनने को नहीं है। बस मोहिनी ने कुछ उन्नति अवश्य की है। जब
प्रोफेसर जौहरी की फ़ेमिली में खोए थे- मोहिनी अपने प्रिंसिपल की दोपहरी ज़रूरतों को पूरा कर रही
थी। प्रोफेसर से उसका मिलना-जुलना अब कुछ कम हो चुका है। वैसे उसके पास प्रोफेसर से मिलने-
जुलने का समय एवं औचित्य- दोनों ही नहीं हैं। प्रोफेसर को मोहिनी का संबल दरकार था, जो
आजकल प्रिंसिपल का कंधा बनी हुई है।
जो घटना जौहरी के घर हुई- जिसका जिक्र अभी बाकी है- उससे तो प्रोफेसर अलग-थलग
पड़ गया।
यह वही दिन थे जब मोहिनी की पी-एच. डी. की मौखिकी होने वाली थी और वह वीरेन्द्र राय
के कालेज में उनके ही विभाग में उनकी सहायक बनकर पढ़ाने लगी थी। वीरेंद्रराय को पहले मोहिनी
प्रकरण न मालूम था। वह तो उसे गुरु-शिष्या का रिश्ता मानता था और अपने प्रिंसिपल से उसने
मोहिनी की सिफारिश भी की थी- प्रोफेसर के कहने पर। उसका इंट्रेस्ट बस इतना था कि एक योग्य
अध्यापक आने से विभाग मजबूत होगा, दूसरे उसके प्रोफेसर से भी बड़े अच्छे संबंध थे।
पर एक महीना बीतते-बीतते मोहिनी ने कालेज के प्रिंसिपल पर ही अपना जादू चला दिया।
वह सिर्फ़ पढ़ाने के समय कक्षा में जाती और बाकी समय प्रिंसिपल के कक्ष में ही बनी रहती । वह
उसे बैठाकर कुछ न कुछ कराते रहते और लंच आदि के समय कक्ष का द्वार बंद हो जाता- शुरू में
एकाध घंटा, बाद में यह लंच-काल करीब दो घंटे या इससे अधिक भी होने लगा। इस लंच-काल के
दौरान कार्यालय या किसी अध्यापक का कोई भी कार्य होना संभव नहीं था- यहाँ तक कि हेड क्लर्क
का भी नहीं, जिसके जिम्मे सारा हिसाब-किताब था। लिहाजा सारा स्टाफ मोहिनी से खुन्नस खा
गया।
इन बातों से वीरेंद्रराय भी प्रोफेसर से ख़ासे चिढ़े हुऐ थे, क्योंकि मोहिनी को नौकरी दिलाने के
एक घटक वह भी थे। उनके कहने से ही मैनेजमेंट के एक सदस्य ने साक्षात्कार में मोहिनी का पक्ष
लिया था। लेकिन मोहिनी के वर्तमान व्यवहार से वह भी बहुत क्षुब्ध थे। मोहिनी भी उनसे ठीक से
बात न करती। वह प्रिंसिपल को 'साध' कर हीरोइन बनी हुई थी। उसके लिए यह खेल नया न था।
विश्वविद्यालय के मित्रों से पता लगाने पर वीरेंद्रराय को मोहिनी और प्रोफेसर की जन्मकुंडली का
पता चला। उन्होंने देर करना उचित न समझा और अपने मित्र जौहरी को उसी रात अपने साथ
बैठाकर प्रोफेसर के बारे में सब कुछ बता दिया।
वीरेंद्र राय ने अपने कालेज के कुछ असरदार और पुराने अध्यापकों के साथ जाकर चेयरमैन
से मुलाकात की तथा सारी कैफ़ियत बयान की। नतीजतन मैनेजमेंट ने मोहिनी की लगभग आठ
महीने की सेवाएं उसी दिन से समाप्त कर दीं- बिना कारण बताए- 'बाय-बाय मिस गुड नाइट' की तर्ज
पर।
अब मोहिनी का रुख फिर प्रोफेसर की ओर हुआ- कातर और समर्पित- 'हाय ! अब मैं क्या
करूँ ?' - जैसा। प्रोफेसर ने मोहिनी को अपनी स्टाइल में कुछ दिन सांत्वना दी फिर अपने गाँव
के पास के एक सनीचरनुमा अध्यापक को बुलाया, जो शहर के अन्य महाविद्यालय में पढ़ाता है
और किंचित दुर्घटनावश इस पेशे में आ गया है। सनीचरा कुछ ख़ास तो न कर सका पर उसने मोहिनी
को दूर के एक कालेज में चार व्याख्यान प्रति सप्ताह दिलवा दिऐ - अपने राहुनुमा साथी के सानिध्य
में। मोहिनीजी आजकल राहु और शनि के बीच शुक्रवत् अपनी आभा बिखेर रही हैं। वे दोनों भी
उसकी कलम बने हुऐ हैं और उसे महान लेखिका बनाने को कटिबद्ध हैं।
हां ! मोहिनी के पास प्रोफेसर के लिए फिर समय नहीं है। इस कारण प्रोफेसर का सनीचर
महोदय से झगड़ा हो चुका है, लिहाजा प्रोफेसर एक बार फिर मोहिनी से निर्द्वन्द्व हो चुके हैं। अब
वह उन प्रोफेसरों की जमात में शामिल हो गऐ हैं, जो शिक्षा-दीक्षा से 'ऊपर' उठ चुके हैं। पुस्तकों और
कलम से उनका सगा नाता कभी का न था, अब तो सौतेला भी नहीं रहा। मोहिनी प्रकरण में वह
ख्यातिनाम हो चुके हैं, चुनांचे विश्वविद्यालय की ओर मुँह करके खड़े नहीं होते । जौहरी का फ़्लैट
भी उसी दिशा में है। उन्होंने घर बदल लिया है ।
आजकल वह 'धार्मिक' हो गऐ हैं और यंत्र-मंत्र-तंत्र तथा ज्योतिष एवं आध्यात्म की ओर मुड़
गऐ हैं। यज्ञ, हवन आदि पहले से ही करवाते हैं, अब कंप्यूटर द्वारा कुंडली और हाथ की रेखाऐं भी
पढ़ने लगे हैं। कभी-कभी सुरेश भाई, रमेश बापू या माँ जानकी के कथामृत अथवा इसी प्रकार की
प्रकट अथवा गोपन गोष्ठियों में सती-साध्वियों के मध्य थोड़ी 'आध्यात्मिक चर्चा' से भी उन्हें गुरेज़
नहीं है। ब्रह्मकुमारियों के आश्रम में भी उनका आना-जाना अब नियमित होने लगा है।
हां ! जौहरी आजकल 'शीर्षासन की मुद्रा' में रहता है। उसकी पुत्री और बेटी उसकी पीठ से बातें
करते हैं। वह अक्सर लाल-लाल आँखें लिए सड़कों पर व्यर्थ घूमता रहता है और कुछ बड़बड़ाता रहता
है। कभी-कभी वह बेतहाशा हँसने लगता है और आगे-पीछे की ओर झुककर कुछ कसरत जैसा करता
है। ऐसे समय में उसके शब्द काफी अस्पष्ट हो जाते हैं, पर गौर से सुनने पर 'पंडितजी, मुझे माफ़
कर दीजिऐ' की अनुगूँज हवा में तैर जाती है ।
तो देखा आपने ! इस कहानी का क्लाइमेक्स महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण है यह जानना कि यह सब
'कैसे हुआ'? मोहिनी की कहानी में ज्यादा पेंच नहीं है इसलिए आप चुपचाप सुनते गऐ , परंतु जौहरी
की कहानी में झाम अधिक है । 'शीर्षासन की मुद्रा', 'एक विनती है' आदि जुमलों की सच्चाई
जानने के लिए आपको आगे की कहानी सुननी बहुत जरूरी है और मैं आपकी जिज्ञासा की और
परीक्षा नहीं लेना चाहता। अस्तु़ .....
भरतवाक्य
ऐसा नहीं था कि जौहरी की बिल्डिंग के सभी बाशिंदे सो रहे थे और किसी को कोई ख़बर नहीं
थी कि प्रोफेसर क्या गुल खिला रहे हैं? यह ऐसा विषय है जिसकी गंध सभी सीमाओं का अतिक्रमण
कर कस्तूरी के समान दसों दिशाओं में फैल जाती है।
प्रोफेसर के इस घर से कुछ 'वैसे' संबंध हैं- इसका आभास तो कइयों को था। पर वास्तविकता
क्या है और इसमें कितनी गहराई है- यह किसी को पता न था । जौहरी को फुरसत नहीं थी। और जब
तक कुछ पक्की ख़बर न हो- कोई भी यह बात जौहरी से कैसे कहे? कहे तो क्या कहे? कुछ-कुछ शक
वीरेंद्रराय को भी हो रहा था- पर इतनी बड़ी बात सिर्फ़ शक के आधार पर वह जौहरी से कैसे कह दे?
जौहरी समझदार, इज्ज़तदार और संसारी जीव था। वह दूसरों को दुनियादारी सिखाता था पर
खुद कैसे फँस गया- यह समझ न पा रहा था। उसने बिना पत्नी और बेटी से कुछ कहे अपने घर को
सूँघना प्रारंभ कर दिया। दो-चार दिनों में ही उसके पास संदेह करने के पर्याप्त कारण थे, पर वह सीधे
उन दोनों से कुछ कह भी न सकता था। दोनों माँ -बेटी बड़े सशक्त तरीके से एकजुट रहतीं थीं। जिस
दिन वीरेंद्रराय ने जौहरी को मोहिनी की कहानी बताई थी, तबसे उसकी शांति भंग थी। धंधे-रोजगार
में गड़ब़डियां हो रहीं थीं। दुकान की व्यवस्था बिगड़ रही थी । नौकर चाकर कई थे पर व्यापार में
किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता था। वह दुकान पर व्यस्त रहता था- घर पर सब ठीक है- ऐसा
मानकर। पर यहाँ तो आलम ही जुदा था। अब वह जल्द से जल्द इस शंका का निश्चित समाधान
चाहता था।
एक दिन उसने उस समय घर पर पहुँचने की गुप्त योजना बनाई, जिस समय प्रोफेसर घर में
'व्यस्त' हो। प्रातःकाल वह सामान्य रूप से दुकान चला गया और लगभग दो घंटे के पश्चात वापस
आ गया। फ़्लैट्स में जो ताला है, उसकी ताली भीतर-बाहर दोनों ओर से लगती है। फ़्लैट की एक
चाभी हमेशा उसके पास रहती थी। उसने धीरे से दरवाजे में चाभी लगाई और हैंडिल घुमा दिया। हाल
में एम टीवी पर संगीत बज रहा था। झमाझम पॉप म्यूज़िक कमरे में व्याप्त था और तीन-चार
बदन उघाड़ू लड़कियाँ 'शीला की जवानी' गाते हुऐ बिंदास थिरक रही थीं।
अचानक बाहर का दरवाज़ा खुला और ममता पेप्सी की बड़ी बोतल लिए हुऐ घर में
घुसी। पापा को घर के भीतर देख वह स्तब्ध रह गई। वह इतनी हतप्रभ थी कि उसकी बोलती बंद
हो गई। बार-बार वह बेडरूम की ओर देखने लगी। जब तक वह कुछ कहने की हिम्मत जुटा पाती,
जौहरी बेडरूम पहुँचा और हैंडिल पर हाथ रख दिया। दरवाजा भीतर से बंद न था लिहाजा खुलते ही
उसने जो दृश्य देखा, उसे देख न सका। तुरंत दरवाजा वापस खींचकर हाल में आ गया।
जब तक प्रोफेसर या उसकी पत्नी कमरे से बाहर आते- वह क्रोध में टहलता रहा। उसकी बेटी
तब तक भयाक्रांत होकर, रिमोट से टीवी ऑफ करके, किचन में जा छिपी थी। अचानक उसने मेज पर
पानी का जग रखा देखा- वह जग उठाकर गटागट पानी पी गया। पानी पी लेने से उसके क्रोध का
तापमान पिघलने लगा। उसकी आँखें बह चलीं।
वैसे भी वह लड़ाका न था- व्यापारी आदमी था- ऊपर से धर्म-भीरु। वह खुद को संभाल न सका
और सोफे पर ढेर हो गया। प्रोफेसर को बेडरूम से निकलने में तीन-चार मिनट लगे होंगे। तब तक
जग का पानी जौहरी के पर्याप्त आंसू निकाल चुका था। अब तक वह उन्माद की चरम अवस्था से
बाहर आ चुका था।
तभी धीरे से बेडरूम का दरवाजा खुला- झुका सिर लिए प्रोफेसर धीरे-धीरे दरवाजे की ओर
बढ़ा। इस समय यदि जौहरी उसे गोली भी मार देता तो भी वह उफ़ तक न करता। पर जौहरी अब तक
संभल चुका था। दुनिया देखी थी उसने और शोर शराबा करके अपनी बदनामी का ढिंढोरा नहीं पीटना
चाहता था। सोफे से उठते हुऐ कंपित वाणी में उसने कहा- '' पंडित जी !''
प्रोफेसर स्टैच्यू हो गऐ - धीरे से मुड़े। नज़रें अभी भी ज़मीन पर। जौहरी उनके पास
आया और हाथ जोड़ते हुऐ बड़े मार्मिक शब्दों में बोला- "एक विनती है..."
प्रोफेसर की नज़रें उछलीं, उन्होंने देखा- जौहरी झुका और हाथ जोड़ते हुऐ बोला-
''कृपया दोबारा इस घर में मत आइयेगा।''
प्रोफेसर बिना किसी प्रतिक्रिया के किसी तरह घर के बाहर निकल गये। इस समय
उनकी दशा न जाने कैसी हो रही थी। वो रोना चाह रहे थे, पर रोने के लिए उन्हें किसी कंधे
की ज़रूरत महसूस हुई। और कुछ दिनों से भूली-बिसरी मोहिनी उन्हें बहुत याद आई। इस
वक्त क्या करें, यह समझ से परे था। तो पैर स्वयं ही मोहिनी के घर की तरफ मुड़ चले।
कुछ समय बाद ही मोहिनी के घर की घंटी ज़ोर से बज उठी। मोहिनी घर में थी यह
तो तय था पर, दरवाज़ा खुलने में बहुत देर लग रही थी। प्रोफेसर की प्रतीक्षा करने की हालत
न थी। ताबड़तोड़ कई बार घंटी बजा दी। कुछ समय बाद दरवाज़ा खुला। मोहिनी के चेहरे पर
हवाइयाँ उड़ रही थीं। उन्हें देखकर चौंकी, फिर बोली- "क्या सर? आप भी ! इतने उतावले
काहे हो रहे हैं? खोल तो रही हूँ दरवाज़ा। सब ठीक है ना?" प्रोफेसर जैसे आवेश में
मोहिनी को बाहों में लपेटने लगे। मोहिनी ने उन्हें रोक दिया। बोली- "क्या बात है सर? आज
आपको क्या हो गया है?"
प्रोफेसर कुछ समझें, इससे पहले ही उनकी निगाहें कमरे के अंदर से आते हुऐ अस्त-
व्यस्त सनीचरा पर पड़ीं। सनीचरा सकपकाया हुआ था, पर था तो इन्हीं का चेला। उसने इन्हें
प्रणाम किया। मोहिनी की तरफ अविश्वास से देखते हुऐ प्रोफेसर ने सनीचरा को देखा।
मोहिनी ने जैसे बेशरमी से जवाब दिया- "ऐसे क्या देख रहे हैं सर? हम लोग पढ़ाई कर रहे
थे। मुझे घनानंद समझ में नहीं आ रहे थे सो सर की मदद ले रही हूँ। बस!!!"
प्रोफेसर के सामने कोई रास्ता न रहा। वे चरम क्रोध की अवस्था में मोहिनी और
सनीचरा पर एक दुर्वासा दृष्टि डालकर उलटे पाँवों घर से बाहर निकल गऐ । मोहिनी और
सनीचरा की आँखें मिलीं। मोहिनी बोली- "ये आज सर को क्या हो गया है? बाप रे ! कैसे
देख रहे थे?"
सनीचरा मोहिनी को बाहों में घेरता हुआ बोला- "अरे छोड़ो ! गुरूजी सठिया गऐ हैं। सबको
अपनी जागीर समझते हैं। अब बुढ़ापे में इनसे उम्मीद भी क्या की जाए?"मोहिनी ने दरवाज़े
की ओर तिरछी निगाहों से देखते हुऐ कहा, जहाँ से गुरूजी अभी बाहर निकले थे- "सच्ची।
मेरा तो मन ही ख़राब हो गया। अब घनानंद कैसे समझूँगी?"
मोहिनी और सनीचरा दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े।
उधर प्रोफेसर साहब सड़क पर बेतहाशा चले जा रहे थे- दिशाहारा। उन्हें कुछ सूझ नहीं रहा
था कि किधर जाएँ, क्या करें? किंचित वे अपनी आँखें मोहिनी के घर पर ही छोड़ आए थे...
बिना सोचे समझे सड़क पर तेज़ी से जाते हुऐ प्रोफेसर अचानक मोड़ पर एक सायकिल से
टकरा कर गिर गए । सायकिल पर सवार मंगल जल्दी से उतरा और उसने उन्हें उठाया।
बदहवास प्रोफेसर ने देखा मंगल उन्हें उठा रहा है। उनके मुख से निकला- 'मंगल' !!! मंगल
गुरूजी की यह दशा देखकर बस इतना कह पाया- 'गुरूजी' !!!