काला फागुन
काला फागुन
मौसम की अंगड़ाई में बसन्त दस्तक दे रहा था। टेसू फूल उठे थे। फागुनाहट के जादू से बंधे चिरइया-चुरुगुनी बौराये फिर रहे थे, तो उसकी कौन बिसात।
आखिर उसकी देह की देहरी पर भी तो बसन्त कब से सिर पटक रहा था, लेकिन वह थी, कि लोक लाज के भय से द्वार ही नहीं खोल रही, लेकिन फागुन की ऊभ-चूभ ने ऐसा षड्यंत्र रचा कि वह सुध-बुध खो बैठी। उसका सारा वज़ूद 'मन-मिर्ज़ा तन-साहिबा' हो उठा ।
'तन साहिबा' गुलाल भरी मुठ्ठियाँ लिये उसके दरवज्जे उझकी, मन ही मन हुलस कर उसने अपने 'मन मिर्ज़ा ' को रंग दिया, लेकिन दरवज्जे के भीतर केवल मिर्जा ही न था, एक पूरी दुनिया थी, दक़ियानूसी दुनिया। जिसने देखा एक लड़की को एक लड़के पर रंग डालते हुये। दुनिया ने लड़के को मर्द होने के लिये धिक्कारा--
" ...अरे ! कैसा मर्द है रे तू, लानत है तुझ पर। वह तुझे रंग गई और तू बैठा-बैठा देखता रहा "क्यों रे तूने क्या चूड़ियाँ पहन रखी है ...एक लड़की की इतनी हिम्मत...लड़की है, तो लड़की की तरह रहे...अपनी बहनों, भाभियों, सहेलियों से खेले न कि लड़कों से रंग खेलेगी...अब तो इस दुस्साहसी लड़की के गालों पर गाढ़ा लाल 'पोटास ' लगना ही चाहिये। आखिर उसे तो भी याद रहे ' आग से खेलने' का नतीजा..."
'पोटास' और साबुन का ऐसा केमिकल रियेक्शन कि पूरा चेहरा झुलस गया।
साथ ही झुलस गया उसका फागुन। सूख गये टेसू। आ गया पतझड़। खो गया मिर्ज़ा, मिट गयी साहिबा कोई दुनिया का सदक़ा तो उतारो....।
संदेश:
हमारा भारतीय समाज महिलाओं के लिए कुछ भी कभी भी माफ़ नहीं करता ।
विडम्बना है , लेकिन है सच।