Sandhya Tiwari

Drama

4.0  

Sandhya Tiwari

Drama

एकांत

एकांत

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एपिक चैनल पर रात दस के आसपास एक सीरियल आता था "एकांत"

(अब खैर दो साल से TV ही नहीं

इसलिए अब पता नहीं)

एकांत की शुरुआत में ही हाॅरर फिल्म सा म्यूजिक बजता था और 

कहीं बिल्कुल नज़दीक के खण्हर 

से फड़फड़ा कर दूर जाती चीखती चील की चिरी चिरी चिरी आवाज़। रात के सन्नाटे में भी रोंये खड़े कर देने में सक्षम। उसके बाद शुरू होता था एंकर का बोलना...।

 वीरान हो चुके शहरों, गांवों और किलों के बारे में । बसे बसाये शहर कैसे एकदम से बे-रौनक हो जाते या गांव के गांव जस का तस सामान छोड़ कहां? क्यों? कैसे? गायब हो जाते , किसी को कुछ पता ही न था।

देहरी पर पीठा सनी हाथेली की थापों से, ये एकांत के- क्या...? क्यों...? कैसे...?सवाल मन पर छपे से हैं।

 मेरी खिड़की से झांकता है पानी की टंकी का बड़ा सा मैदान और उस पर छाया नीला आसमान ।

यों तो रोज का मिलना-जुलना है मेरा उससे... लेकिन ज्यादातर उसी तरह जैसे मैं मिलती हूं अपने घर के सोफे से, बेड से, अलमारी से, फ्रिज से या किसी अन्य सामान से।

या कि बेचैनी, उदासी, ऊब का एक कंधा... जो तब याद आया है जब सब अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। 

घर के कामों में व्यस्त इधर-उधर आती जाती टंकी और उसमें से झरते पानी को देखना इतना ही

अदृश्य और महत्वहीन है जैसे पेड़ से गिरा सूखा पत्ता या सिर से निकल कर कंघे में उलझे बाल।

 एक अगहन की सुबह जब हवा में हल्की सी खुनकी थी

गरम लोई से खुद को छुपाये सुबह की सुहानी नींद का स्वाद ले रही थी, कि अचानक किसी के गुर्राने की आवाज़ आयी। सुबह पांच बजे कौन किसके घर आता है, हुंह के साथ कानों पर बाहें धर लीं। लेकिन गुर्राहट बढ़ती ही जाती थी।

आखिर नींद को परे रख खिड़की की जाली में मुंह सटा कर देखा तो पाया एक हट्टी कट्टी जेसीबी खड़ी खड़ी गुर्रा रही है। जेसीबी की गुर्राहट और चाइनीज मोबाइल पर बजता नगीना फिल्म का गाना "मैं तेरी दुश्मन दुश्मन तू मेरा मैं नागिन तू सपेराऽऽऽ...." ने नींद और सुबह की शान्ति को ऐसे चाट लिया जैसे कोई बकरी दीवार पर लगी लुनाई को चाट जाये ।

जेसीबी ने एक घेरे में खुदाई शुरू कर दी थी मेरे देखें उसका आकार कुछ कुछ मौत के कुएं सा दिखने लगा। 

वाह! क्या मेला लगेगा यहां?

मन ने मन से पूछा लेकिन कोई तय उत्तर नहीं मिला ।

बीच का घेर छोड़ गोलाई से मिट्टी निकाली जाने लगी सूखी मिट्टी की पर्तों के बाद फिर कुछ-कुछ नम मिट्टी।चट्टे पर चट्टा लगता चला गया। इतनी गहरी खुदाई कि उसमें हाथी समा जाय।

जिस दिन जेसीबी न गुर्राती उस दिन भोर की हलचल मानों यूं ड्योढ़ी पर ठिठक जाती जैसे आंगन में पिता जी बड़े भाई या बहन को डपट रहे हों और छोटी कोने छातर छुपने की राह ढ़ूंढ़ रही हो। 

महीनों जेसीबी के गुर्राने के बाद आयी कंक्रीट, ईट, बजरी, सीमेंट बालू, सरिया की खेप के साथ गिरमिटिया मजदूर।

हां मैं उन्हें गिरमिटिया ही कहूंगी क्योंकि उन्हें शायद दूर दराज के इलाकों से लाया गया था वे यहीं इसी मैदान में रहने लगे थे, सब के सब एक साथ ।

नई पानी की टंकी की नींव भरी जा रही थी वे सब आपस में एक-दूसरे को ईंटे, सरिया, सीमेंट पकड़ाते चिल्लाते-चीखते अठ्ठारह खांचों में सीमेंट कंक्रीट उड़ेलते सरिया पर सरिया मजबूती से बांधते आकाश में चाली, बांस, बल्ली के सहारे पोर-पोर चढ़ते मजबूत खंभों का निर्माण कर रहे थे।

 मैं खिड़की में कुछ देर खड़ी होकर उन्हें काम करते देखती और फिर अपने कामों में लग जाती। उनकी चीख पुकार के साथ बजरी सीमेंट मिलाने की मशीन की आवाज़ अब तलक मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन चली थी।

अगहन, पूस, माह और अब फागुन। फागुन की दस्तक के साथ आयी रंग-बिरंगी मदमाती होली।

उस रोज होली थी, लेकिन टंकी बनने का काम रुका नहीं था। मैंने कहा था न, कि वे सब शायद कांट्रेक्टवेस के मजदूर थे इसीलिए घर नहीं गये। वहीं थे। होली पर भी वहीं। अपने घर परिवार से दूर।जलकर परिसर के अहाते में घिरे बटुरे। 

 होलिका दहन की रात आई। 

 जब हवा मोहल्ले भर के पकवानों की चुगली इधर से उधर कर रही थी तो पीछे-पीछे आकाश

भी उन मजदूरों की टोली में गाये जाने वाले धमार के शब्दों को कानों तक खींच लाया था।

चट् धा, गिट धा, ...चट् धा, गिट धा !' 'चटाक् धा, चटा्क धा!' चट् चट् चट् चट् धा। अहाते में ढोलक टुनक रही थी ।

 उस रात मैंने कल्पना की आंख से देखा वे सब सस्ती दारू के नशे में झूम-झूम के धमार गाने के लिए एक दूसरे से होड़ा-होड़ी कर रहे थे।

होली के बाद भी उनका काम चलता रहा।

 इक्सीस मार्च के बाद से अहाता एकदम वीरान है 

सैकड़ों चाली बल्ली से कसे बंधे खंभों में फंसे लोहे के खांचे आकाश में ऐसे मुंह बाये हैं जैसे स्वाति बूंद के लिए चातक का इंतजार।

लगभग डेढ़ महीने से सौ फुट के अठ्ठारह खंभों में से एक खम्भे में से निकली सरिया पर टंगी है किसी मजदूर की फटी लहराती कमीज़, पसरा है वीरान अहाता और चील की चीखती चें चें चें की आवाज़

और मन सोचने लगा... 

शायद ऐसे ही बनते होंगे एकांत, जिसकी बातें एपिक का एंकर करता है।


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