काबलीयत
काबलीयत
"आपको बॉस ने अपने केबिन में बुलाया है"
चपरासी के इतना कहते ही ऑफिस में काम कर रहे सारे लोगों की निगाहें मेरी ओर उठ गयी।
फाइल पे चलते हुए मेरे कलम रुक गए, बुझे हुए चेहरे के साथ मैं बॉस के केबिन की ओर बढ़ा। अपने पीठ पीछे मैं अपने सहकर्मियों की सरगोशियां सुन रहा था। सभी अपनी-अपनी अटकलें लगा रहे थे, किसी की बातों में सहानुभूति थी तो किसी की बातों में तंज।
"आपने बुलाया मुझे?" बॉस के केबिन का दरवाजा खोल कर मैंने अदब से कहा।
बॉस।.... जो कि अधेड़ावस्था को पार करते हुए बुढ़ापे की दहलीज़ पे कदम रख रहा था, अपनी फाइलों में खोया हुआ था। । मेरे आने की आहट पाकर भी वह पूर्ववत फ़ाइल को देखता रहा और सीधे मुद्दे की बात पर आते हुए बोला, " मिस्टर तन्मय, आप के पिछले कुछ महीनों के कार्यों की समीक्षा से पता चला है कि आप का परफॉर्मेंस काफी नीचे रहा है, आपको इस सम्बन्ध में समय-समय पर चेतावनी भी दी जाती रही है, जिसका आप पर कोई असर नहीं पड़ा, इसीलिए अब इस ऑफिस को आपकी कोई जरूरत नहीं है, आप आज तक का अपना हिसाब अकाउंट सेक्शन से क्लियर करवा लीजिये, टर्मिनेशन लेटर आपको थोड़ी देर में मिल जायेगा"। इतना कह कर वह पुनः अपने काम में उलझ गया।
"लेकिन सर" मैंने प्रतिवाद करना चाहा"
"नो मोर टाकिंग अबाउट दिस मैटर, यू मे गो नाउ"
मैं लड़खड़ाते क़दमों से बॉस के केबिन से बाहर निकला।
बाहर सभी सहकर्मियों की निगाहें प्रश्न सूचक अंदाज़ में मुझे घूर रही थी, सरगोशियां तेज़ हो चुकी थी, मैं किसी तरह अपने डेस्क पर पहुँचा, दराज़ खोल कर थरथराते हुए हाथों से अपना सामान समेटने लगा, कुछ कागज़ के टुकड़े, दो कलम और एक डायरी। तभी वर्मा जी ने मेरे कंधे पे हाथ रखा, बोले " चलो चाय पी कर आते हैं" मेरा मन तो नहीं था लेकिन सहकर्मियों की चुभती निगाहों से बचने के लिए मैंने हामी भर दी"
केंटीन में पहुंचकर उन्होंने दो चाय आर्डर किया और बोले, "तो "
मैं खोखली मुस्कराहट के साथ बोला , "निकाल दिया गया"
"अब क्या करोगे"
"पता नहीं"
चाय आ गयी थी।
"आगे क्या सोचा है"? बात के सिलसिले को बढ़ाते हुए वर्मा जी ने पूछा।
"आपको क्या लगता है? क्या मेरा परफॉर्मेंस सचमुच इतना ख़राब था कि मैं एक झटके में नौकरी से निकाल दिया जाऊँ"?-- मेरे इस प्रति प्रश्न पे वर्मा जी किंचित मुस्कुराये
"आपको पता है की आपको नौकरी से निकालने की असली वजह क्या है"? -- फिर मेरे उत्तर का इंतज़ार किये बिना उन्होंने कहना शुरू किया -- "आपने अपने तीन सालों की नौकरी में सब कुछ अच्छे से किया लेकिन जिस बात से यहाँ कर्मचारियों की काबलियत मापी जाती है वो आपमें नहीं थी"।
"कौन सी बात से:?
"चापलूसी, जी हुज़ूरी, बेगैरती, समझौता परस्ती, दूसरों की चुगली, जैसे बहुत सारे गुण उस कर्मचारी में होने ही चाहिए जो आज के युग में नौकरी में बने रहना चाहता है".... "है आपमें ये सब गुण"?
मेरा सर स्वयमेव इनकार में हिलने लगा।
"तो फिर मिस्टर तन्मय, पहले तन्मयता से इन सब गुणों को आत्मसात कीजिये, फिर ये सारी दुनिया आपकी है.... उन्होंने गूढ़ लहजे में समझाया।
" तो क्या सच्चाई, ईमानदारी, उसूल जैसी बातों का कोई अर्थ नहीं"?
"है न। टेक्स्टबुक की किताबों में, बड़े विद्वानों के स्पीच में, नेताओं के वादों में.... और बताऊँ"?
"वर्मा जी, अगर मेरी समस्या का कोई समाधान बता सकते हैं तो बताइये" मैंने उकताते हुए उनसे कहा
"आप गोविन्द से एक बार मिल लीजिये" वर्मा जी ने थोड़ा झुक कर कानों में कहा।
"गोविन्द", वो चपरासी"?
"जी हाँ, बताना मेरा फ़र्ज़ था, मानना या न मानना आपकी मर्ज़ी, अब मैं चलता हूँ, चाय के पैसे दे दूंगा, टेक केयर" कहते हुए वर्मा जी उठ कर चल दिए।
बहुत देर तक मै उधेड़बुन में वहीँ बैठा रहा, अंत में निश्चय किया की मिल लेने में हर्ज़ ही क्या है? गोविन्द को कॉल किया और बोला कि कैंटीन में हूँ, आकर मिल ले।
थोड़ी ही देर में गोविन्द आता हुआ दिखा, उसके चेहरे पे भी मेरे लिए सहानुभूति के भाव झलक रहे थे
"सुन कर बहुत अफ़सोस हुआ" -- आते ही उसने मर्सिया सा पढ़ा और सामने वाली कुर्सी के पास खड़ा हो गया।
"मेरी समस्या का अब तू ही कोई उपाय निकाल गोविन्द" मैंने आशा भरी दृष्टि उस पे डालते हुए कहा
"साहब, मै क्या और मेरी औकात क्या"?
"मुझे पता है की तू सब कर सकता है"
"किसने कहा साहब"?
"मुझे सब पता है गोविन्द, बस कोई उपाय निकाल, उसके लिए मुझे जो करना पड़े वो करने को मै तैयार हूँ, मुझे इस नौकरी की सख्त जरुरत है।
"खर्चा होगा" वो निर्णयात्मक भाव से बोला।
"कितना"?
"साहब से बात करता हूँ, आप बैठिये यहीं, मैं आकर मिलता हूँ आपसे एक आध घंटे में" -- कहता हुआ वो चला गया। मन में आशा बंधी की शायद वो बिगड़ी बना दे, भले कुछ क़र्ज़ लेकर भी देना पड़े, नौकरी बची रही तो धीरे-धीरे करके चुका ही दूंगा, नौकरी ही न रही तो खाऊंगा क्या? घर का किराया, बिजली का बिल, बच्चों के स्कूल की फीस, माँ का इलाज़, छोटे भाई का हॉस्टल का खर्च---इन सबको याद करते हुए बदन में झुरझुरी सी दौड़ गयी।
करीब घंटे भर बाद गोविन्द आता हुआ दिखा, मेरे मन को लगा जैसे साक्षात् गोविन्द ही आ गए। उसके नज़दीक आते ही मैंने उत्सुकता से उसकी ओर देखा।
"आपके लिए खुशखबरी है" वह इत्मीनान से सामने वाली कुर्सी पे बैठते हुए बोला -- "बड़े साहब से बात हो चुकी है, अपने ब्रांच ऑफिस से एक आदमी को हटाना ही था, आपके बदले अब कोई दूसरा आदमी निकाला जायेगा, बड़ी मुश्किल से बड़े साहब को इसके लिए मनाया, जाइये ऐश करिये"
"ऐसे ही मान गए? कुछ लेनी देनी"?
"दो लाख"
"क्या? ???
"जी हाँ, न हो मंजूर तो अभी भी आप इनकार कर सकते हैं"?
"नहीं गोविन्द, मैं दूंगा दो लाख रुपये," - मैंने दृढ़ता से कहा।
"ये हुई न बात "? तब जाइये टर्मिनेशन लेटर पे अब आपका नहीं किसी और कर्मचारी का नाम होगा"
"किसका"? मैंने उत्सुकतावश पूछा
"वर्मा जी का" -- उसने मेरे कान में सरगोशी करते हुए कहा।