जिजीविषा
जिजीविषा
ऑल इंडिया प्रिंसीपल मीट्स में मेरा नाम "बेस्ट प्रिंसिपल" अवार्ड के लिए स्टेज से पुकारा गया। मैं अपनी जगह से उठ कर धीरे धीरे स्टेज की ओर बढ़ी। तालियों की गड़गड़ाहट के साथ लोगों की कानाफूसी भी जारी थी। अरे, यह लगंड़ी कब तक में स्टेज पर पहुंच पाएगी । इसको तो पहले से ही स्टेज के पास बिठाना चाहिए था , इत्यादि। कितने दोहरे व्यक्तित्व, एक तरफ तो मेरे लिए तालियां बजा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ मेरे लिए लंगडी , अपाहिज जैसे शब्दों का प्रयोग। इन अपरिचित चेहरों में मुझे वह सारे परिचित चेहरे भी दिखने लगे जो मेरे पीठ पीछे मुझे ऐसे ही संबोधित करते हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि मुझे इन शब्दों की आदत डाल लेनी चाहिए। पर नहीं, शायद अगर मैंने इन शब्दों आदत डाल ली होती, तो आज मैं यहां ना होती। पिछले 10 साल मेरे लिए बहुत ही खराब गये। खासतौर से 2005 से 2008 तक का समय। वह कहते हैं ना कि दुर्दिन आपको चारों तरफ से घेर लेता है । वही हुआ मेरे साथ, अच्छी भली 6 साल की अध्यापन की नौकरी के बाद मुझे स्कूल से निकाल दिया गया यह बोल कर कि मैं B.Ed नहीं हूं। समझाने की कोशिश की, कि आप एक साल का समय दो मैं B.Ed कर लेती हूं ,पर नहीं । फिर प्रदेश राज्य का अंतर क्योंकि मेरी सारी पढ़ाई कर्नाटक से हुई है तो मुंबई से बीएड करने के लिए ना जाने कितने फॉर्म कितने पेपर सबमिट करने पड़े।
इन्हीं मुंबई बेंगलुरु के बीच सफर करते करते मुझे महसूस हुआ कि मेरे पांव में कुछ तो है जो ठीक नहीं है। मेरे पैरों में एक अजीव सा दर्द हमेशा बना रहता। मेरे पाव सुन्न होना शुरू हो गए। ऐसा लगे जैसे मेरा मेरे पांव पर नियंत्रण ही नहीं है। लगा कि शायद यह बस के ज्यादा सफर के कारण होगा। डॉक्टर ने भी बोला कि पैर के व्यायाम करो , कुछ नहीं है पैरों को थोड़ा आराम दो, बस ठीक हो जाएगा I पैरों में दर्द के साथ मुझे लगता जैसे एक शून्य मेरे पूरे पैर में फैल रहा था और दूसरे पैर पर भी अपना असर डाल रहा था। पर जब डॉक्टर बोल रहे हैं सब ठीक है तो फिर मैंने भी मान लिया। हम महिलाएँ अपने स्वास्थ्य की ओर से इतनी लापरवाह रहती है कि मैंने भी मान लिया यह मेरा वहम है, सब ठीक ही होगा I मेरी बीमारी ने इतने दबे पाव आकर मुझ पर कब्जा किया कि अपने अंदर होने वाले परिवर्तनों को मैं खुद भी नहीं जान पाई I
उस दिन मेरा बर्थडे था और मेरे पति मुझे सरप्राइज़ देने के लिए मुझे लेने b.ed कॉलेज पहुंच गए जब उन्होंने मुझे पहली बार दूर से चलकर आते देखा तो उन्हें भी लगा कि नहीं कुछ तो प्रॉब्लम है। वह तुरंत मुझे लेकर हड्डी रोग विशेषज्ञ के पास गए। डॉक्टर ने मुझे देखते ही बोला आप की स्पाइन (रीड की हड्डी ) में कुछ प्रॉब्लम है। आप स्पाइन विशेषज्ञ से मिल लीजिए। उन्होंने हमें एक डॉक्टर के पास भेजा। हम वहां गए। उसने बस चलताऊँ देख कर बोला, "नहीं नहीं कुछ नहीं है, फिर भी आपको लगता है तो आप अपनी तसल्ली के लिए एम. आर. आई. करवा लीजिए। वैसे तो मुझे कुछ प्रॉब्लम नहीं दिखती है"। उसने मुझे कुछ दवाइयां दी और बोला खाइए आपका पैर दर्द अच्छा हो जाएगा। हम आराम से घर वापस आ गए कि जब डॉक्टर बोल रहे हैं, कुछ नहीं है तो फिर जाने दो।
कुछ समय बीता तब मुझे महसूस हुआ कि जैसे मेरा मेरे अपने ऊपर से नियंत्रण कमजोर पड़ता जा रहा है। मेरा मेरी दैनिक जरूरतों पर नियंत्रण कमजोर पड़ रहा है। आखिर में मेरे B.Ed एग्जाम से लगभग एक महीने पहले अचानक मैं चलते चलते गिर गई। मैंने अपने पति से बोला ," पता नहीं मैं व्यायाम भी करती हूँ , पर मेरे पैरों का दर्द बढ़ता ही जा रहा हैं और पैरों से मेरा नियत्रण जा रहा है" I उन्होंने बोला चलो फिर एम. आर. आई. करवा कर देख ही लेते हैं। मन का वहम दूर हो जाएगा। एम. आर. आई. वाले ने चेक कियाI डॉक्टर ने कुछ लेवल 9 और लेवल १० चेक करने को बोला था। वहाँ सब कुछ ठीक था। मेरे पति ने उनसे आग्रह किया कि आप चेक कर रहे हो तो थोड़ा उपर नीचे भी चेक कर लो क्योंकि मेरी वाइफ को सच में कुछ प्रॉब्लम है। पर क्या वह समझ में नहीं आ रही है। उसने चेक किया तो लेवल ११ पर एक छोटा सा ट्यूमर था। वो ट्यूमर मेरी सारी इंद्रियों की नसों को दबा रहा था। जिसके कारण मेरे शरीर पर मेरा नियंत्रण नहीं रह पा रहा था। वापस उसी डॉक्टर के पास गए उसने कहा , "सॉरी, सॉरी यह तो ख्याल में ही नहीं आया। यह बीमारी तो हजारों में से किसी एक को होती है। इसका तो ऑपरेशन करना पड़ेगा"। मैंने कहा डॉक्टर 20 दिन बाद मेरी B.Ed की एग्जाम है तो क्या मैं B.Ed की एग्जाम दे पाऊंगी। डॉक्टर ने कहा इस ऑपरेशन में इतनी जल्दी अच्छा हो पाना मुश्किल है। ऐसा करो आप ऑपरेशन करवा लो। एग्जाम अगले साल दे देना। ऑपरेशन तो आपको जल्द से जल्द करवाना ही पड़ेगा क्योंकि यह आपके नर्व सिस्टम को किस तरह से असर करेगा हमें भी मालूम नहीं और एक बार वैसा कुछ हो गया तो हमारे हाथ में कुछ भी नहीं होगा। उन्होंने मेरे पति को बाद में चुपके से यह भी बता दिया था कि इस ऑपरेशन के बाद भी शायद मेरा नीचे का हिस्सा कभी काम ना कर पाए। मैं बड़ी कशमकश में थी 20 दिन बाद पेपर थे। मैं उनको छोड़ना नहीं चाहती थी। पूरे साल की मेहनत बेकार जाती। आखिर मैंने अपने पति को बोला जो होना होगा वह देखा जाएगा पर आज मुझे मेरे लिए मेरे पेपर ज्यादा जरूरी है मुझे b.ed करना ही है। मैं पेपर जरूर दूंगी। क्योंकि मेरे पति को डॉक्टर ने बता ही दिया था कि मेरी आगे की जिंदगी कैसी होने वाली है I तो मेरे पति ने सोचा पता नहीं बाद में बीएड कर पायेंगी या नहीं कर पाएगी। तो अच्छा है आज मै इसे बीएड.कर लेने देता हूँ।
राम-राम करके पेपर खत्म हो गए और दूसरे दिन ही मुझे हॉस्पिटल में एडमिट करवा दिया गया। फिर वह भयावह दिन आया। उस डॉक्टर ने बिना इंतजार किये , कि मुझ पर लोकल एनेस्थीसिया का असर हुआ भी हैं या नहीं मेरी रीढ़ की हड्डी में मार्किग शुरू कर दी। वह दर्द मुझे आज भी भुलाए नहीं भूलता है। यहां तक कि ऑपरेशन के बाद मुझे बाजू में कर डॉक्टर दूसरे ऑपरेशन करने लग गए बगैर यह follow-up लिए कि मुझे आईसीयू में शिफ्ट किया गया है या नहीं। मैं वही ऑपरेशन थिएटर में एसी में बगैर कुछ ओढे साइड में पड़ी हुई थी। मुझे ठंड लग रही थी पर मैं किसी से कुछ कह भी नहीं पा रही थी। ऑपरेशन होने के 15 दिन बाद तक मुझे फिजियोथैरेपिस्ट भी नहीं दिया गया। मेरा पूरा नीचे का हिस्सा जाम हो गया था उसमें कोई भी सेन्स नहीं था। यह सब वो भी मुंबई के एक नामी हॉस्पिटल में, अब इसे मैं क्या कहूं अपना बुरा नसीब या वह एक बुरा बहुत बुरा डॉक्टर जिसने ऑपरेशन करने के दूसरे ही पल से मुझे जिंदा लाश समझ लिया था।
खैर मेरे पति मुझे घर पर ले आए मेरा फिजियोथैरेपिस्ट ट्रीटमेंट शुरू किया। मेरा फिजियोथैरेपिस्ट बहुत अच्छा था। वह बोलता था आपको चलना ही पड़ेगा। मैं आपको चला कर दिखाऊंगा। 3 महीने तक मुझे कैथेटर (पेशाब की थैली) लगी हुई थी। मैं बच्चों को देखती लगता कितने बड़े हो गए हैं 15 दिन में। अपना काम खुद कर लेते हैं। कोई मांग नहीं, कोई जिद नहीं। पति भी सब संभाल ले रहे थे। लगता था ठीक होना है। फिर लगता किसके लिए ठीक होना ? सब तो अच्छे से चल रहा है। किसी का भी तो कुछ मेरे कारण रुका नहीं है। मेरे ठीक होने ना होने से क्या फर्क पड़ता है। पति और बच्चे चाहते कि वह मुझे ऐसा महसूस करवाएं की मेरी बीमारी से वह परेशान नहीं है। और मैं चाहती कि वे कभी तो ऐसा बोले तुम्हारे बगैर कुछ भी नहीं हो पा रहा। फिर मैंने सोचा नहीं मुझे जीना है मुझे मेरे लिए ठीक होना है। मैंने सोचा जब बीमारी मेरी ऐसी है कि जो हजारों में से एक को होती है तो जरूर मैं कुछ स्पेशल हूं और मुझे इस बात को साबित करने के लिए कि मैं सच में स्पेशल हूं मुझे इस सब से बाहर आना होगा।
मैंने मैंने जिद करके कैथेटर (पेशाब की थैली) निकलवा दी। सोचा जैसे बच्चों को हम समय-समय पर करवाते हैं वैसे ही मैं भी समय-समय पर खुद जाकर आऊंगी। और आप यकीन नहीं मानेंगे की कुछ ही महीनों में मेरा अपने ऊपर काफी हद तक कंट्रोल हो गया। घर में पड़े पड़े मुझे बोर होने लगा था। मुझे लगता यह जिंदगी तो मेरी नहीं है I मुझे ऐसी जिंदगी तो नहीं चाहिए थी। मैंने ट्यूशन लेना शुरू कर दिया। संयोगवश वह बच्चे जिन्हें मैं 2 साल पहले पढ़ा चुकी थी, जो मेरे पढ़ाने के अंदाज से खुश थे, मैंने उनका ट्यूशन लेना शुरू किया। अध्यापन मेरा जुनून था। मैं शरीर से अपाहिज थी दिमाग से नहीं। तन से अपाहिज थी, मन से तो बिल्कुल भी नहीं। इन प्यारे प्यारे बच्चों की मुस्कानों में दिन बीतने लगे। वह मुझे बोलते मिस आप जल्दी से अच्छी हो कर हमें पढ़ाने आइए। हाँ , आज तो मेरे पास B.Ed की फर्स्ट क्लास की डिग्री भी थी।
अभी भी मैं चलने के लिए दूसरों पर आश्रित थी। पर अध्यापन के शौक , बच्चों के प्यार एंव विश्वास और परिवार के सहयोग के कारण एक बार फिर मैं सपने देखने लगी थी कि मैं स्कूल में पढानें जा रही हूं। क्लास में घूम घूम कर पढ़ा रही हूं। मेरे इन्हीं सपनों ने मेरी जिजीविषा को खाद पानी दिया। और वो डॉक्टर जिसने मेरे पति को बोला था कि आपकी पत्नी अब जिंदगी भर के लिए शय्याग्रस्त हो जाएगी। वह विश्वास ही नहीं कर पा रहा था कि मैंने वापस अपनी इंद्रियों पर कंट्रोल कर लिया है। लंगड़ा कर ही सही पर मैं चल सकती थी। क्या दर्द अब नहीं होता था , नहीं अब भी होता था पर मैंने जीना सीख लिया था अपने दर्द के साथ।
मैंने स्कूलों में नौकरी के लिए आवेदन दिए। .मुझे स्वीकार नहीं किया गया। क्योंकि उन्हें लगता कि शायद मैं इतनी देर खड़ी नहीं रह पाऊंगी या इतना चल नहीं पाऊंगी या पता नहीं जो भी हो। खैर मुझे अपनी पढ़ाने की काबिलियत पर भरोसा था। मैंने हिम्मत नहीं हारी और आवेदन करती रही। बाद में एक स्कूल में नौकरी लग गई। मुझे बड़े क्लास मिले पढ़ाने के लिए। उनकी क्लासेस फर्स्ट और सेकंड फ्लोर पर लगती थी। अब मेरी वास्तविक अग्नि परीक्षा थी। मैं पीरियड शुरू होने से 15 मिनट पहले ही चलना शुरू कर देती, ताकि मैं क्लास में समय से पहुंच सकूं।
धीरे धीरे लग रहा था कि सब सामान्य हो रहा है। पर क्या मेरे बुरे दिन यहीं पर समाप्त होने वाले थे ? नहीं।
मुझे वापस से उसी जगह पर टयूमर वापस हो गया। यह बीमारी हजारों में से किसी एक को ही रीपीट होती है। मुझे वापस से ऑपरेशन करवाना पड़ा। लगता था जहां से शुरू किया था बस वापस वहीं पर आ गई हूं। पर मेरी जिजीविषा मेरे साथ थी। मैंने एक बार मरुस्थल पार कर लिया था। मुझे मालूम था मैं इस बार भी पार कर जाऊंगी। पर दया आती है, पहले गुस्सा आता था अपना कहने वाले लोगों की सहानुभूतियों से जो मुझे ऐसे देखते थे कि लगता कि मैं जिंदा हूं यह मेरा अपराध है। सहानुभूतियाँ मेरे पति के लिए, सहानुभूतियाँ मेरे बच्चों के लिए I मैं आज जो भी कुछ हूं मेरे पति और बच्चों की सेवा के कारण हूँ। और इन सब से भी ऊपर अपने छात्रों और शिक्षण के प्रति अपने जुनून के कारण जिसने मुझे जिंदा रहने की ताकत दी।
पर आज यह तालियां यह अवॉर्ड यह साबित करता है "सिर्फ पंखों से कुछ नहीं होता हौसलों से उड़ान होती है"। शायद मेरे माता पिता ने कुछ सोच कर ही मेरा नाम आशा रखा होगा। मैंने कानाफूसी करने वाले लोगों को मुस्कुरा कर देखा और आगे बढ़ गई। यह तो एक शुरुआत है मुझे सफलताओं के ऐसे बहुत से सोपान अभी चढ़ने हैं।
