जीवनसाथी
जीवनसाथी
वीनू जी की किडनी खराब हो जाने के कारण चिकित्सक ने उन्हें पानी कम पीने की सलाह दी। साथ ही भोजन में नमक का उपयोग न ही करें तो बहुत अच्छा होगा।
जब उनकी पत्नी परहेजी भोजन अपने हाथों से उन्हें खिलाती। तब वे झिकझिक करते पचास तरह की बात अपनी पत्नि को सुना देते।
आँखें दिखाते हुए रोषपूर्वक कहते ~ " तुम सब लोग स्वयं तो बढिया भोजन करते हो किंतु मुझे यह अलूना खाना खाने के लिए देते हो।"
"ऐसा बेस्वाद खाना खाने से अच्छा तो मेरा मर जाना होगा"
किंतु उनकी पत्नी न जाने कौन सी मिट्टी की बनी थी कि दस गालियाँ खाकर डाँट फटकार सुनकर भी अनसुना कर जाती। और उनकी सेवा में कोई कमी नही छोड़ती थी।
लगातार उसके परिश्रमशील सेवा भाव से वीनू जी की टैस्ट तालिका में बहुत सुधार आने लगा था। अब धीरे,धीरे वे बिस्तर से उठकर चलने फिरने लगे थे।
स्वास्थ्य लाभ के कारण उनका चिड़चिडा स्वभाव कम हो गया था।
अब वह पत्नि बच्चों के साथ हँसते, बोलते प्रसन्न रहते थे। एकदिन अपनी पत्नि का हाथ पकडकर प्यार से करीब बिठा कर बोले कि ~
" सुनो निर्मला !
मैं जानता हूँ कि तुमने मुझे ठीक करने की खातिर मेरा दुर्व्यवहार भी सहा है। "
" तुम पूरे तनमन से मेरी सेवा में लगी रही। यह तुम्हारे पुण्य प्रताप का ही फल है कि आज मैं मृत्यु के मुँह से बाहर निकल आया हूँ।"
" तुम जैसा जीवनसाथी पाकर मैं धन्य हो गया हूँ"।
कहते, कहते वीनू जी का गला भर्राने लगा। उन्होंने निर्मला के काँधें पर सिर को टिका दिया और किसी नन्हें शिशु की भाँति बिलखकर रोने लगे।