Prabodh Govil

Inspirational

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झंझावात में चिड़िया- 22

झंझावात में चिड़िया- 22

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योग, संयोग और प्रतिरोध ने पद्मावत के रिलीज़ में देरी की और इससे सन दो हज़ार सत्रह दीपिका के लिए "ज़ीरो" इयर अर्थात ख़ाली साल चला गया लेकिन दीपिका ने इसे रजतपट यानी स्क्रीन पर शून्यकाल की तरह नहीं जाने दिया।

इस साल शाहरुख खान की कैटरीना कैफ और अनुष्का शर्मा के साथ एक फ़िल्म आई - ज़ीरो। इस फ़िल्म में भी ठीक उसी तरह मेहमान कलाकारों की बहुतायत थी जैसे दीपिका की पहली फ़िल्म "ओम शांति ओम" में।

तो इस बार दीपिका खुद अपने ही फिल्मस्टार के रोल में इस फ़िल्म में नज़र आईं। और इस मेहमान भूमिका से ही उन्होंने इस वर्ष भी फिल्मी पर्दे पर उपस्थिति दर्ज़ कराई।

अब दर्शकों को बेताबी से प्रतीक्षा थी दीपिका के प्रोड्यूसर बनने की।

लेकिन इससे भी पहले एक और इन सबसे ज़बरदस्त मुकाम दीपिका का इंतज़ार कर रहा था। ये वो शानदार और भव्य अवसर था जिस दिन दीपिका पादुकोण जीवन के अभूतपूर्व मुकाम, अर्थात अपने विवाह के बंधन में बंधने वाली थीं।

रणवीर सिंह से उनका पारंपरिक विवाह बहुत कम गिने चुने मेहमानों की उपस्थिति में, किंतु बेहद आलीशान तरीके से इटली में संपन्न हुआ।

विवाह दो रीतियों से संपन्न हुआ। क्योंकि दोनों परिवारों के रस्मो रिवाज अलग अलग थे, इसलिए पहले कोंकणी रीति से शादी हुई फ़िर उसके बाद रणवीर सिंह के परिवार के सिंधी रिवाजों के अनुसार पाणिग्रहण संस्कार हुआ।

इस विवाह को लेकर दर्शकों में एक ज़बरदस्त उत्साह और उत्सुकता थी क्योंकि ये इस दौर के दो सुपर सितारों का शुभ विवाह था, वो भी आपस में एक दूसरे से!

पिछले लगभग छह साल से दोनों के बीच प्रेम का ये रिश्ता चल रहा था और साथ ही चल रही थीं दोनों की एक के बाद एक सुपरहिट फिल्में।

ऐसे में इनकी शादी हंगामेदार तो होनी ही थी। इटली के लेक कोमो के एक आलीशान सुसज्जित विला में शादी होने के बाद भारत में दो प्रीति भोज दिए गए। पहले बैंगलोर में और दूसरा मुंबई में।

एक परिजनों और मित्रों के लिए था तो दूसरे में पूरा बॉलीवुड ही उमड़ पड़ा।

मीडिया चैनलों, पत्र - पत्रिकाओं और अखबारों में इस विवाह की धूम रही। दर्शक पल- पल की ख़बर और फोटोज़ के लिए बेचैन रहे।

दर्जनों सवाल थे - दीपिका पादुकोण ने कौन सी ड्रेस पहनी? रणवीर सिंह किस पोशाक में थे। शादी में कौन - कौन शरीक हुआ? शादी किस रीति- रिवाज से हुई? दीपिका और रणवीर अब कितने दिन तक काम से छुट्टी रखेंगे? वो अपना हनीमून यानी "मधुचंद्र" कहां मनायेंगे?

उनकी अधूरी फ़िल्मों का क्या होगा, क्या उनकी शूटिंग रुक जायेगी? क्या दीपिका फ़िल्मों में काम करती रहेंगी? या उन पर भी राजकपूर परिवार की बहुओं की तरह फ़िल्मों में अब काम न करने की पाबंदी लग जायेगी?

भारतीय समाज की इस दोहरी मानसिकता ने भी समय समय पर ख़ूब गुल खिलाए थे कि कुछ लोग शादी होने के बाद अपने परिवार की बहुओं के काम करने को लेकर संकीर्ण सोच रखते हैं।

फ़िल्म नगर में ऐसे लोग भी रहे जिन्होंने अपनी पत्नियों पर ऐसा दबाव बनाया कि वो सिर्फ़ उन्हीं फ़िल्मों में काम करें जिनमें उनके पति ही उनके हीरो रहें। किंतु इस सोच ने कई प्रतिभाशाली अभिनेत्रियों के भविष्य को भी नुकसान पहुंचाया।

कभी "मैंने प्यार किया" जैसी सुपरहिट फिल्म की नायिका भाग्यश्री के लिए जब ये बंदिश आई कि अब ये मोहतरमा केवल उन्हीं फ़िल्मों में काम कर सकेंगी जिनमें उनके हीरो उनके पति हिमालय दासानी रहेंगे तो कुछ ही समय में भाग्यश्री का कैरियर धराशाई होने में देर नहीं लगी।

दशक भर पहले कुछ समय तक ऐश्वर्या राय बच्चन को भी लोगों ने इसी राह पर चलते देखा। अतीत में अभिनेत्री बबीता और रणधीर कपूर के साथ भी ऐसा होता देखा गया था।

ख़ैर, सबका नसीब एकसा नहीं होता, सबकी फितरत भी एक सी नहीं होती। क्रिकेटर विराट कोहली के खेल में अनुष्का शर्मा से विवाह के बाद और भी चुस्ती आती हुई भी तो दर्शकों ने देखी थी।

दीपिका और रणवीर सिंह ने विवाह की ख़ुमारी को अपने पर कभी हावी नहीं होने दिया। तुरंत ही इससे उबर कर अपने उस सपने पर काम करना शुरू कर दिया जिसमें दीपिका के प्रोड्यूसर बनने की संभावनाएं छिपी थीं।

एक कहानी को सुन कर और कुछ लोगों से मिल कर दीपिका का ध्यान उन महिलाओं पर गया जो ज़िन्दगी में किसी दूसरे के द्वारा तेज़ाब डाल देने से अपने ज़िन्दगी के सपने, खुशियां और मकसद अकारण खो बैठती हैं। आख़िर क्या वजह होती है इस अमानुषिक पाशविक कृत्य की कि एक इंसान दूसरे इंसान के चेहरे की उस चमक, गमक और लुनाई को ही नष्ट कर दे जिसके लिए इंसान जीता है।

जब हम पैदा होते हैं तो हमारे चेहरे की झलक तमाम रिश्तेदारों - मित्रों - शुभचिंतकों को दिखाई जाती है, जब हम पढ़ने जाते हैं तो स्कूल कॉलेज हमारे चेहरे की एक तस्वीर हमेशा फ़ाइलों में, फार्मों में सहेज कर रखते हैं, जब हम नौकरी के लिए जाते हैं तो हमारा चेहरा ही नियोजकों के लिए सबसे बड़ी आश्वस्ति होता है और जब हम विवाह करने निकलते हैं तो भावी जीवन साथी से हमारे चेहरे की रंगत का आदान प्रदान होता है, क्योंकि चेहरा ही तो है जिसे कोई सारी उमर के लिए अपने तसव्वुर में बसा लेता है।

ओह! मरने के बाद भी इसी चेहरे पर माल्यार्पण करके लोग हमें याद करते हैं।

और ... इसी चेहरे पर यदि कोई तेज़ाब फेंक कर इसे बदसूरत बना देना चाहे तो वो इंसान कहां, वो तो दुनिया का एक ऐसा ज़हरीला कीड़ा हुआ जिसे देखते ही जान से मार कर कचरे के ढेर पर डाल दिया जाना चाहिए। मलबे के ढेर पर!

दीपिका को एक कहानी पसंद आ गई। नाम "छपाक"!

उन्होंने सिर्फ़ अभिनेत्री ही नहीं बल्कि एक प्रोड्यूसर के तौर पर इस फ़िल्म से जुड़ने का फ़ैसला किया।

इसकी निर्देशक मेघना गुलज़ार थीं।

अलग सोच की प्रतिभाशाली मेघना को मौजूदा पीढ़ी तो एक संजीदा फिल्मकार के रूप में जानती ही है किंतु पुरानी पीढ़ी उन्हें अपने समय की बेहतरीन अभिनेत्री राखी गुलज़ार और महान लेखक, शायर गुलज़ार की बिटिया के रूप में भी जानती है।

ये बताना इसलिए और भी ज़रूरी हो जाता है कि दीपिका और मेघना का ये मेल इस संवेदनशील सब्जेक्ट को केवल मनोरंजन के गाते- नाचते खेल के रूप में पर्दे पर नहीं लाने वाला था बल्कि उन्होंने पटकथा और पात्रों पर पर्याप्त मेहनत करके समाज की एक भीषण समस्या को उठाने का बीड़ा उठाया था।

मुख्य क़िरदार निभाने का दायित्व दीपिका पादुकोण ने ख़ुद लिया। विक्रांत मैसी उनके साथ नायक की भूमिका में थे।

कहानी एक वास्तविक एसिड सर्वाइवर के साथ घटे घटनाक्रम पर आधारित थी। असफल प्रेमी द्वारा फेंके गए तेज़ाब से झुलसी लक्ष्मी की कथा में अटैक और उसके बाद की न्याय प्रक्रिया के साथ - साथ पीड़ित युवती की फ़िर उठ खड़े होकर जीने की तमाम मायूसी को उठाना फिल्मकार के लिए बड़ी चुनौती थी।

दशक के बीतते - बीतते दुःख का ये चित्रण स्क्रीन पर आया।


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