झांकी
झांकी
सड़क पर झांकियों का एक काफ़िला अनवरत चला जा रहा था।भाँति भाँति के रंगों में रंगे रथ और उन पर बैठे छोटे छोटे बच्चे, सुरीली धुनों को बजाते हुए बैंड काफी आकर्षक और मनमोहक लग रहे थे।हुँकार भरते आयोजक और अन्य सहयोगी व्यवस्था सम्भाल रहे थे। किनारे खड़े लोग अपनी अपनी मौज में अपनी राय सुमारी बाँट रहे थे।सड़क के किनारे खड़ी रीता इस मनोरम दृश्य को देखती हुई भी अपनी अलग ही दुनियाँ में खोई हुई थी। नजरें जो मंजर देख रही थी, दिमाग उसकी जगह किसी याद को ताजा कर रहा था।
"सुनो! रीता आज में घर देर से आऊँगा, शाम को नए साल की पार्टी है दोस्तों के साथ।" कहकर अखिलेश काम पर निकला था। शाम को रीता छत पर भोजन बना रही थी तभी उसे गली में बैंड बाजे के आवाज ने रीता का ध्यान खींचा।उठकर देखा कुछ लोग नए साल के आगमन का उत्सव मनाते हुए निकल रहे थे।रीता ने सहजभाव से मुस्कुराते हुए देखा और अपने काम में जुट गई। उसने सोचा काश ! अखिलेश जल्दी घर आ जाते तो बाहर खाना खा आते और नए साल का स्वागत करते।
गली से आ रहा उत्सव का शोर सहसा थम सा गया और एम्बुलेंस की बीप सुनाई देने लगी।रीता के मुस्कुराते चेहरे पर अचानक सलवटें पड़ने लगी और कुछ अनिष्ट की आशंकाओ से मन भर उठा। दौड़कर वापस गली के बाहर झाँका तो एम्बुलेंस उसके घर के बाहर ही रुकती हुई दिखी। दिल धक से बैठ गया।जीने को उड़ती हुई सी लांघती नीचे पहुँची। एम्बुलेंस के कर्मचारी अखिलेश को स्ट्रेचर से बाहर ला रहे थे।रीता का मन रोना चाहता था, दिमाग कई सवाल पूछना चाहता था और दिल शंकाओं के पारावार में डुबकियां लगा रहा था। वह किंकर्तव्यविमूढ़ सी खड़ी देख रही थी।कर्मचारी ने कहा कि "दिन में वन- वे के कारण संतुलन खोकर सामने से आ रही गाड़ी से टकराकर गिर गए और पीछे वाली गाड़ी के नीचे आने से एक पैर टूट गया। अभी प्लास्टर बंधा है, महिने भर बाद खुल जायेगा।" रीता कुछ कह पाती उससे पहले अखिलेश की आवाज़ सुनाई दी कि इनको तीन हजार रुपये ला दो। उसमें थोड़ी चेतना लौटी और हाँ ! कहती हुई कमरे की ओर दौड़ी और संदूक से रुपए लाकर दिए।
धीरे धीरे मौहल्ले वाले इकट्ठे होने लगे और हालचाल पूछने वालों का तांता लग गया।सब अपनी अपनी राय और संवेदना व्यक्त करते हुए आते जाते रहे। रीता को कुछ पूछने का अवसर ही न मिला। आखिर रात को समय मिलने पर कुछ कह और सुन पाई।रीता के लिए अगली सुबह से ही एक नया काम बढ़ गया।अखिलेश बेड रेस्ट पर है उसकी सारी जिम्मेदारी रीता की हो गई। अखिलेश की दैनिक क्रियाओं से लेकर भोजन और दवाइयों का ध्यान रीता को रखना पड़ता था। कब सुबह होती कब शाम, पता ही नहीं चला, और कब महीना पूरा हो गया। आज प्लास्टर खुलवाने के लिए रीता अस्पताल पहुंची और डॉक्टर ने प्लास्टर खोला। अखिलेश थोड़ा प्रसन्न था कि चलो अब में फिर से चल सकूँगा। पर ऐसा हो न सका। डॉक्टर ने बताया कि घुटने में चोट गहरी थी जो दवाओं से ठीक नहीं हो सकी। ऑपरेशन करना पड़ेगा।
रीता के लिए ये शब्द किसी वज्र से कम न थे। घर के हालात पहले ही अच्छे न थे ऊपर से एक महीना धेले भर की कमाई न हुई। अब ऑपरेशन! रीता अपने को संभालती हुई डॉक्टर से पुछा कि कितने का खर्चा आएगा। डॉक्टर ने बताया कि लगभग पचास हजार रुपये। रीता ने भाई से कहकर रुपयों का प्रबंध कराकर ऑपरेशन करवाया।समय बीतता गया लेकिन अखिलेश का पैर ठीक होने की स्थिति में आया ही नहीं। अब अखिलेश लंगड़ाकर थोड़ा चल लेता है पर काम करने की स्थिति बिल्कुल नहीं है।तब से खुद दूसरों के घर झाड़ू बर्तन करके घर चला रही है।
"चलो दीदी ! जुलूस निकल गया, अब चले" सुरेखा की आवाज सुनकर रीता की चेतना लौटी और भारी कदमों से घर की चल पड़ी।